आंग्ल-मराठा युद्ध द्वितीय

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द्विताय आंग्ल-मराठा युद्ध 1803 - 1806 ई. तक चला। बाजीराव द्वितीय को अपने अधीन बनाने के पश्चात् अंग्रेज इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि, वे होल्कर, भोसलें तथा महादजी शिन्दे को भी अपने अधीन कर लें। साथ ही वे अपनी कूटनीति से उस पारस्परिक कलह और फूट को बढ़ावा देते रहे, जो मराठा राजनीति का सदा ही एक गुण रहा था। वास्को द गामा दूसरी बार 1502 में कालीकट आया था। कालीकट पहुँचने के कुछ ही महीनों के बाद उसने कोचीन में प्रथम पुर्तग़ाली फ़ैक्ट्री की स्थापना की नींव रख दी। लॉर्ड वेलेजली ने महादजी शिन्दे और भोंसले, जो उस समय दक्षिण के बरार में थे, को अपने-अपने क्षेत्र में लौट जाने को कहा। किन्तु महादजी शिन्दे और भोंसले ने अंग्रेज़ों के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। उनके इन्कार करने पर 7 अगस्त, 1803 को अंग्रेज़ों ने महादजी शिन्दे के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध में पराजित शिन्दे ने 30 दिसम्बर, 1803 ई. को सुर्जी अर्जुनगाँव की सन्धि की। भोसलें ने देवगाँव की संधि करके कटक का प्रांत तथा बरार अंग्रेज़ों को दे दिया। रघुजी भोंसले इस असफलता के पश्चात् राजनीतिक गतिविधियों से अलग हो गया। महादजी शिन्दे ने फ़रवरी, 1804 में बुरहानपुर की सहायक संधि पर भी हस्ताक्षर किया। अंग्रेजों ने दौलतराव शिन्दे की प्रतिरक्षा का आवश्वासन दिया। होल्कर को अंग्रेजों के साथ राजपुर घाट की संधि करनी पड़ी, परन्तु अंग्रेजों ने क्रमशः 1805 एवं 1806 ई. में शिन्दे व होल्कर के साथ संधि कर उनके कुछ क्षेत्रों को वापस कर दिया।


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