शेरअली: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "महत्व" to "महत्त्व") |
||
Line 9: | Line 9: | ||
====मृत्यु==== | ====मृत्यु==== | ||
'''शेरअली अंग्रेज़ों की विशाल सेना''' को रोकने में पूरी तरह से असफल था और वह रूसी तुर्किस्तान की ओर भागा, जहाँ फ़रवरी [[1879]] ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार शेरअली अपने दो प्रबल पड़ोसियों रूस और इंग्लैण्ड की निर्दयी | '''शेरअली अंग्रेज़ों की विशाल सेना''' को रोकने में पूरी तरह से असफल था और वह रूसी तुर्किस्तान की ओर भागा, जहाँ फ़रवरी [[1879]] ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार शेरअली अपने दो प्रबल पड़ोसियों रूस और इंग्लैण्ड की निर्दयी महत्त्वाकांक्षा एवं स्वार्थपूर्ण नीतियों का शिकार बन गया। | ||
Revision as of 10:30, 13 March 2011
शेरअली दोस्त मुहम्मद का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था, जो 1863 ई. में अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना। किन्तु 1866 ई. में काबुल और 1867 ई. में कंधार से खदेड़े जाने पर उसने हेरात में शलण ली।
शेरअली का संदेह
इसी बीच रूस ने अपने साम्राज्य की सीमाएँ कैस्पियन सागर के निकट के ख़ानों की राज्य सीमाओं तक बढ़ाकर 1865 ई. में ताशकन्द और 1868 ई. में समरकन्द पर अधिकार कर लिया। अफ़ग़ानिस्तान और साम्राज्य विस्तार से शेरअली को रूस के भावी मनसूबों पर संदेह हुआ, फलत: 1869 ई. में उसने भारत सरकार के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड मेयो से अम्बाला में भेंट की। उसने वाइसराय के सम्मुख कुछ ऐसे प्रस्ताव रखे, जिनसे अफ़ग़ानिस्तान में स्वयं अंग्रेज़ों की स्थिति मज़बूत हो जाती और वे भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान की सीमाओं की ओर रूसी विस्तार रोकने में समर्थ होते। किन्तु लन्दन के आदेश पर उसने इस प्रकार की कोई सन्धि करना अस्वीकार कर दिया।
अंग्रेज़ों का प्रस्ताव
लगभग 1870 ई. से तुर्किस्तान में नियुक्त रूसी गवर्नर-जनरल काउफ़मैन ने शेरअली से पत्र व्यवहार प्रारम्भ कर दिया। रूसियों द्वारा 1873 ई. में खीव (कीव) पर अधिकार कर लेने पर शेरअली ने भारत सरकार से पुन: एक निश्चित सन्धि करने की प्रार्थना की, किन्तु उसे पुन: अस्वीकार कर दिया गया। लेकिन 1876 ई. में जब लॉर्ड लिटन प्रथम (1876-80 ई.) भारत का वाइसराय हुआ, तब भारत सरकार ने अपनी अफ़ग़ान नीति में अचानक परिवर्तन कर दिया और शेरअली से एक निश्चित सन्धि करने का प्रस्ताव रखा। जिसमें प्रतिबन्ध यह था कि अमीर हेरात में अंग्रेज़ रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर ले। शेरअली अफ़ग़ानों की मनोवृत्ति भली प्रकार से जानता था। उसे पूरा विश्वास था कि अपने राज्य में अंग्रेज़ रेजीडेण्ट रखने का सुझाव मान लेने से अफ़ग़ान प्रजा पूर्णत: असंतुष्ट हो जायेगी और उसकी अपनी गद्दी भी संकट में पड़ जायेगी। अत: उसने अंग्रेज़ों का उक्त प्रस्ताव ठुकरा दिया।
विवशता एवं युद्ध
इसी बीच 1878 ई. में बर्लिन कांग्रेस में अंग्रेज़ों की नीति से चिढ़कर रूस ने जनरल स्टोलिटाँफ़ (स्तोलियताफ़) के नेतृत्व में एक दूतमण्डल अफ़ग़ानिस्तान भेजा। शेरअली को विवश होकर उसका स्वागत करना पड़ा। अब लॉर्ड लिटन प्रथम की सरकार को एक और कारण मिल गया कि वह अंग्रेज़ों के दूतमण्डल को भी अपने यहाँ बुलावे। किन्तु शेरअली के द्वारा इसे अस्वीकार करने पर नवम्बर, 1878 ई. में ब्रिटिश सरकार ने उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
मृत्यु
शेरअली अंग्रेज़ों की विशाल सेना को रोकने में पूरी तरह से असफल था और वह रूसी तुर्किस्तान की ओर भागा, जहाँ फ़रवरी 1879 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार शेरअली अपने दो प्रबल पड़ोसियों रूस और इंग्लैण्ड की निर्दयी महत्त्वाकांक्षा एवं स्वार्थपूर्ण नीतियों का शिकार बन गया।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-453