मैत्रेय्युग्पनिषद: Difference between revisions

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इस सामवेदीय उपनिषद में राजा [[बृहद्रथ]] और महातेजस्वी शाकायन्य मुनि के वार्तालाप द्वारा शरीर की नश्वरता, उसके वीभत्स रूप और आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उल्लेख है। इसमें कुल तीन अध्याय हैं।<br />
इस सामवेदीय उपनिषद में राजा [[बृहद्रथ]] और महातेजस्वी शाकायन्य मुनि के वार्तालाप द्वारा शरीर की नश्वरता, उसके वीभत्स रूप और आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उल्लेख है। इसमें कुल तीन अध्याय हैं।<br />
'''नित्य कौन हैं?'''
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*तीसरे अध्याय में 'ब्रह्म' स्वयं अपनी स्थिति स्पष्ट करता है-<br />
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अहमस्मि परश्चास्मि ब्रह्मास्मि प्रभवोऽस्म्यहम्।<br />
अहमस्मि परश्चास्मि ब्रह्मास्मि प्रभवोऽस्म्यहम्।<br />
सर्वलोकगुरुश्चास्मि सर्वलोकेऽस्मि सोऽस्म्यहम्॥1॥ अर्थात अन्तःकरण में स्थित ब्रह्म मैं हूँ और बाह्य जगत में भी मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं स्वयं जन्म हूँ, सृजन हूँ और समस्त लोकों का गुरु हूँ तथा समस्त लोकों में जो कुछ भी विद्यमान है, वह मैं ही हूँ। वास्तव में वही सिद्ध है, वही शुद्ध है, वही परमतत्त्व है, वह सदैव नित्य है और मलरहित है। वह विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न है, वही शोक-रहित शुद्ध चैतन्य-स्वरूप है। वह गुणातीत, मान-अपमान से परे शिव है। वही 'ब्रह्म' है।<br />  
सर्वलोकगुरुश्चास्मि सर्वलोकेऽस्मि सोऽस्म्यहम्॥1॥ अर्थात अन्तःकरण में स्थित ब्रह्म मैं हूँ और बाह्य जगत् में भी मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं स्वयं जन्म हूँ, सृजन हूँ और समस्त लोकों का गुरु हूँ तथा समस्त लोकों में जो कुछ भी विद्यमान है, वह मैं ही हूँ। वास्तव में वही सिद्ध है, वही शुद्ध है, वही परमतत्त्व है, वह सदैव नित्य है और मलरहित है। वह विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न है, वही शोक-रहित शुद्ध चैतन्य-स्वरूप है। वह गुणातीत, मान-अपमान से परे शिव है। वही 'ब्रह्म' है।<br />  
'''जो मनुष्य एक बार भी इस 'मैत्रेयी उपनिषद' का श्रवण अथवा मनन कर लेता है, वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है।'''  
'''जो मनुष्य एक बार भी इस 'मैत्रेयी उपनिषद' का श्रवण अथवा मनन कर लेता है, वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है।'''  


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Latest revision as of 14:09, 30 June 2017

इस सामवेदीय उपनिषद में राजा बृहद्रथ और महातेजस्वी शाकायन्य मुनि के वार्तालाप द्वारा शरीर की नश्वरता, उसके वीभत्स रूप और आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उल्लेख है। इसमें कुल तीन अध्याय हैं।
नित्य कौन हैं?

  • पहले अध्याय में राजा बृहद्रथ और शाकायन्य मुनि का वार्तालाप है, जिसमें शरीर की नश्वरता और 'आत्मतत्त्व' की प्राप्ति पर प्रकाश डाला गया है। मुनिवर राजा से कहते हैं कि परमात्मा अविनाशी है। उसे मन एवं वाणी से नहीं जाना जा सकता। वह आदि और अन्त से रहित है। वह मात्र सत्-रूपी प्रकाश से सतत प्रकाशित होता है। वह कल्पनातीत है-

नित्य: शुद्धो बुद्धमुक्तस्वभाव: सत्य: सूक्ष्म: संविभुश्चाद्वितीय:।
आनन्दाब्धिर्य: पर: सोऽहमस्मि प्रत्यग्धातुर्नात्र संशीतिरस्ति॥15॥ अर्थात वह परमात्मा नित्य, शुद्ध, ज्ञान-स्वरूप, मुक्त स्वभाव, सत्य-रूप, सूक्ष्म, सर्वत्र व्यापक और अद्वितीय है। वह इस परमानन्द सागर एवं प्रत्येक स्वरूप का धारण करने वाला है। इसमें कोई संशय नहीं है।
आत्मा ही नित्य है

  • दूसरे अध्याय में भगवान मैत्रेय और महादेव के वार्तालाप द्वारा 'परमतत्त्व' के रहस्य पर प्रकाश डाला गया है। महादेवजी कहते हैं-'यह शरीर देवालय है तथा उसमें रहने वाला जीव ही केवल शिव, अर्थात परमात्मा है।'

'जीव' और 'ब्रह्म' एक ही है, यह मानना ही ज्ञान है। मल, मूत्रादि दुर्गन्धयुक्त शरीर की शुद्धि मिट्टी और जल से होती है, किन्तु वास्तविक शुद्धि 'मैं और मेरा' का त्याग करने से होती है।
ब्रह्म ही परमतत्त्व है

  • तीसरे अध्याय में 'ब्रह्म' स्वयं अपनी स्थिति स्पष्ट करता है-

अहमस्मि परश्चास्मि ब्रह्मास्मि प्रभवोऽस्म्यहम्।
सर्वलोकगुरुश्चास्मि सर्वलोकेऽस्मि सोऽस्म्यहम्॥1॥ अर्थात अन्तःकरण में स्थित ब्रह्म मैं हूँ और बाह्य जगत् में भी मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं स्वयं जन्म हूँ, सृजन हूँ और समस्त लोकों का गुरु हूँ तथा समस्त लोकों में जो कुछ भी विद्यमान है, वह मैं ही हूँ। वास्तव में वही सिद्ध है, वही शुद्ध है, वही परमतत्त्व है, वह सदैव नित्य है और मलरहित है। वह विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न है, वही शोक-रहित शुद्ध चैतन्य-स्वरूप है। वह गुणातीत, मान-अपमान से परे शिव है। वही 'ब्रह्म' है।
जो मनुष्य एक बार भी इस 'मैत्रेयी उपनिषद' का श्रवण अथवा मनन कर लेता है, वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है।


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