निर्वाणोपनिषद: Difference between revisions
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*'[[ॠग्वेद]]' से सम्बन्धित यह उपनिषद जीवन के परम लक्ष्य तथा आवागमन से मुक्त होने के साधनाभूत 'निर्वाण', | *'[[ॠग्वेद]]' से सम्बन्धित यह उपनिषद जीवन के परम लक्ष्य तथा आवागमन से मुक्त होने के साधनाभूत 'निर्वाण', अर्थात् 'मोक्ष' के विषय पर विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। इस उपनिषद में परमहंस-संन्यासी के गूढ़ सिद्धान्तों को सूत्रात्मक पद्धति द्वारा विवेचित किया गया है। सर्वप्रथम संन्यासी का परिचय, फिर उसकी दीक्षा, देवदर्शन, क्रीड़ा, गोष्ठी, भिक्षा तथा आचरण आदि का उसके लिए क्या स्वरूप है, इसकी विवेचना की गयी है। | ||
*इससे आगे | *इससे आगे संन्यासी के लिए मठ, ज्ञान, ध्येय, गुदड़ी, आसन, पटुता, तारक उपदेश, नियम-अनियम, यज्ञोपवीत, शिखा-बन्धन तथा मोक्ष आदि का स्वरूप कैसा होना चाहिए, उसका उल्लेख है। इन सभी का निरूपण करते हुए 'निर्वाण' के तत्त्वदर्शन को बताया गया है। यह तत्त्वदर्शन किसे देना चाहिए और किसे नहीं, यह समझाया गया है। यहाँ इस बात का भी उल्लेख है कि सामान्य जन को इस तत्त्वदर्शन से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। | ||
== | ==संन्यासी का परिचय== | ||
*'निर्वाण,' | *'निर्वाण,'अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील साधक संन्यासी कहलाता है। उसका लक्ष्य 'परब्रह्म' को प्राप्त करना होता है। ईश्वर के साथ संयोग ही उसकी दीक्षा है। संसार से मुक्त होना उसका उपदेश है। दीक्षा लेकर सन्तोष करना, पावन कर्म है। दया उसकी क्रीड़ा है और आत्मिक आनन्द उसकी माला है। एकान्त में मुक्त होकर बैठना उसकी गोष्ठी है। मांगकर प्राप्त किया भोजन उसकी भिक्षा है। आत्मा ही उसका प्रतिपादन हंस है। धैर्य उसकी गुदड़ी, उदासीन प्रवृत्ति लंगोटी, विचार दण्ड और सम्पदा उसकी पादुकाएं हैं। | ||
*ईश्वर से योग उसकी निद्रा है और वही उसका लक्ष्य भी है। इन्द्रियों पर अंकुश उसका मार्ग और सत्य तथा सिद्ध हुआ योग ही उसका मठ है। भय, मोह, शोक और क्रोध का परित्याग उसका त्याग है तथा इन्द्रिय-निग्रह नियम है। | *ईश्वर से योग उसकी निद्रा है और वही उसका लक्ष्य भी है। इन्द्रियों पर अंकुश उसका मार्ग और सत्य तथा सिद्ध हुआ योग ही उसका मठ है। भय, मोह, शोक और क्रोध का परित्याग उसका त्याग है तथा इन्द्रिय-निग्रह नियम है। | ||
*ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययन के उपरान्त लौकिक ज्ञान का परित्याग ही सन्न्यास है। शिष्य अथवा पुत्र को ही निर्वाण के इस रहस्य को प्रदान करना चाहिए। निर्वाण-पथ का यह तत्वदर्शन समस्त संशयों को नष्ट कर देता है। | *ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययन के उपरान्त लौकिक ज्ञान का परित्याग ही सन्न्यास है। शिष्य अथवा पुत्र को ही निर्वाण के इस रहस्य को प्रदान करना चाहिए। निर्वाण-पथ का यह तत्वदर्शन समस्त संशयों को नष्ट कर देता है। |
Latest revision as of 07:53, 7 November 2017
- 'ॠग्वेद' से सम्बन्धित यह उपनिषद जीवन के परम लक्ष्य तथा आवागमन से मुक्त होने के साधनाभूत 'निर्वाण', अर्थात् 'मोक्ष' के विषय पर विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। इस उपनिषद में परमहंस-संन्यासी के गूढ़ सिद्धान्तों को सूत्रात्मक पद्धति द्वारा विवेचित किया गया है। सर्वप्रथम संन्यासी का परिचय, फिर उसकी दीक्षा, देवदर्शन, क्रीड़ा, गोष्ठी, भिक्षा तथा आचरण आदि का उसके लिए क्या स्वरूप है, इसकी विवेचना की गयी है।
- इससे आगे संन्यासी के लिए मठ, ज्ञान, ध्येय, गुदड़ी, आसन, पटुता, तारक उपदेश, नियम-अनियम, यज्ञोपवीत, शिखा-बन्धन तथा मोक्ष आदि का स्वरूप कैसा होना चाहिए, उसका उल्लेख है। इन सभी का निरूपण करते हुए 'निर्वाण' के तत्त्वदर्शन को बताया गया है। यह तत्त्वदर्शन किसे देना चाहिए और किसे नहीं, यह समझाया गया है। यहाँ इस बात का भी उल्लेख है कि सामान्य जन को इस तत्त्वदर्शन से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।
संन्यासी का परिचय
- 'निर्वाण,'अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील साधक संन्यासी कहलाता है। उसका लक्ष्य 'परब्रह्म' को प्राप्त करना होता है। ईश्वर के साथ संयोग ही उसकी दीक्षा है। संसार से मुक्त होना उसका उपदेश है। दीक्षा लेकर सन्तोष करना, पावन कर्म है। दया उसकी क्रीड़ा है और आत्मिक आनन्द उसकी माला है। एकान्त में मुक्त होकर बैठना उसकी गोष्ठी है। मांगकर प्राप्त किया भोजन उसकी भिक्षा है। आत्मा ही उसका प्रतिपादन हंस है। धैर्य उसकी गुदड़ी, उदासीन प्रवृत्ति लंगोटी, विचार दण्ड और सम्पदा उसकी पादुकाएं हैं।
- ईश्वर से योग उसकी निद्रा है और वही उसका लक्ष्य भी है। इन्द्रियों पर अंकुश उसका मार्ग और सत्य तथा सिद्ध हुआ योग ही उसका मठ है। भय, मोह, शोक और क्रोध का परित्याग उसका त्याग है तथा इन्द्रिय-निग्रह नियम है।
- ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययन के उपरान्त लौकिक ज्ञान का परित्याग ही सन्न्यास है। शिष्य अथवा पुत्र को ही निर्वाण के इस रहस्य को प्रदान करना चाहिए। निर्वाण-पथ का यह तत्वदर्शन समस्त संशयों को नष्ट कर देता है।
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