ध्यानबिन्दु उपनिषद: Difference between revisions

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Latest revision as of 13:44, 13 October 2011

ध्यानबिन्दु उपनिषद

  • कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में 'ध्यान' पर विशेष प्रकाश डाला गया हैं इसका प्रारम्भ 'ब्रह्म ध्यानयोग' से होता है। उसके बाद 'ब्रह्म' की सूक्ष्मता, सर्वव्यापकता, ओंकार स्वरूप, ओंकार की ध्यान-विधि, प्राणायाम द्वारा ओंकार का ध्यान, ब्रह्म का ध्यान, हृदय में ब्रह्म का ध्यान, योग द्वारा ध्यान, कुण्डलिनी से मोक्ष-प्राप्ति, हंसविद्या, ब्रह्मचर्य, नादब्रह्म का ध्यान, आत्मदर्शन, साधना-सिद्धि आदि का व्यावहारिक विवेचन किया गया है।
  • ऋषि का कहना है कि 'ध्यान-योग' से पर्वतों से भी ऊंचे पापों का विनाश हो जाता है।
  • बीजाक्षर 'ॐ' से परे 'बिन्दु' और उसके ऊपर 'नाद' विद्यमान है। उस मधुर नाद-ध्वनि के अक्षर में विलय हो जाने पर, जो शब्दविहीन स्थिति होती है, वही 'परम पद' है। उससे भी परे, जो परम कारण 'निर्विशेष ब्रह्म' है, उसे प्राप्त करने के उपरान्त सभी संशय नष्ट हो जाते हैं। जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म शेष है, वही ब्रह्म की सत्ता है। पुष्प में गन्ध की भांति, दूध में घी की भांति, तिल में तेल की भांति ही आत्मा का अस्तित्त्व है। उसी 'आत्मा' के द्वारा 'ब्रह्म' का साक्षात्कार या अनुभव किया जा सकता है।
  • 'मोक्ष' प्राप्त करने वाले सभी साधकों का लक्ष्य 'ॐकार' रूपी एकाक्षर 'ब्रह्म' रहा है। जो साधक ओंकार से अनभिज्ञ हैं, वे 'ब्राह्मण' कहलाने के योग्य नहीं हैं। ओंकार से ही सब देवताओं की उत्पत्ति और समस्त जड़-जंगम पदार्थों का अस्तित्व है।
  • हृदयकमल की कर्णिका के मध्य में स्थित ज्योतिशिखा के समान अंगुष्ठमात्र आकार के नित्य 'ॐकार' रूप परमात्मा का सदा ध्यान करने से, समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
  • योग द्वारा ध्यान करते हुए तथा कुण्डलिनी- जागरण के द्वारा सहस्त्रदल कमल पर विराजमान परमात्मा को प्राप्त करना चाहिए। इस विद्या का प्रयोग किसी सिद्धहस्त योगी के सान्निध्य में ही करना चाहिए, अन्यथा हानि होने की सम्भावना रहती है।

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