क्षुरिकोपनिषद: Difference between revisions
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*यहाँ कहा गया है कि सबसे पहले योग-साधना के लिए स्वच्छ आसन और स्थान पर बैठकर 'प्राणायाम' की विशेष क्रियाओं- पूरक, कुम्भ और रेचक-का अभ्यास करके शरीर के सभी मर्मस्थानों में प्राण का संचार करना चाहिए। उसके उपरान्त नीचे से ऊपर की ओर उठते हुए 'ब्रह्मरन्ध्र' में स्थित परब्रह्म तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। | *यहाँ कहा गया है कि सबसे पहले योग-साधना के लिए स्वच्छ आसन और स्थान पर बैठकर 'प्राणायाम' की विशेष क्रियाओं- पूरक, कुम्भ और रेचक-का अभ्यास करके शरीर के सभी मर्मस्थानों में प्राण का संचार करना चाहिए। उसके उपरान्त नीचे से ऊपर की ओर उठते हुए 'ब्रह्मरन्ध्र' में स्थित परब्रह्म तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। | ||
*ऋषि का कहना है कि योग की सिद्धि के लिए 'धारणा-रूपी' छुरी का प्रयोग करना चाहिए। इससे जीव आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है। 'धारणा' के प्रभाव से सांसारिक बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। | *ऋषि का कहना है कि योग की सिद्धि के लिए 'धारणा-रूपी' छुरी का प्रयोग करना चाहिए। इससे जीव आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है। 'धारणा' के प्रभाव से सांसारिक बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। | ||
*'ध्यानयोग' के द्वारा समस्त नाड़ियों को छेदन किया जा सकता है, किन्तु सुषुम्ना नाड़ी का नहीं, परन्तु योगी पुरुष धारणा-रूपी छुरी से सैकड़ों नाड़ियों का भी छेदन कर सकता है। वैराग्य-रूपी पत्थर पर 'ॐकार' युक्त प्राणायाम से घिसकर | *'ध्यानयोग' के द्वारा समस्त नाड़ियों को छेदन किया जा सकता है, किन्तु सुषुम्ना नाड़ी का नहीं, परन्तु योगी पुरुष धारणा-रूपी छुरी से सैकड़ों नाड़ियों का भी छेदन कर सकता है। वैराग्य-रूपी पत्थर पर 'ॐकार' युक्त प्राणायाम से घिसकर तेज़ की गयी धारणा-रूपी छुरी से सांसारिक विषय-भोगों के समस्त्र सूत्रों को काट देना चाहिए। तभी वह अमृत्व प्राप्त कर सकता है। | ||
*जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा निर्मित अतिसूक्ष्म तन्तुओं पर गतिशील रहती है, उसी प्रकार प्राण का संचार समस्त नाड़ियों के भीतर होना चाहिए। प्राण की गतिशीलता योग-साधना से ही त्वरित की जा सकती है। तब [[प्राणतत्त्व]] शरीर की समस्त नाड़ियों का भेदन करते हुए 'आत्मतत्त्व' तक पहुंचने में सफल हो पाता है। जैसे दीपक बुझने के समय, अर्थात प्राणोत्सर्ग के समय, तेल-बाती जलकर नष्ट हो जाती है और दीपक की ज्योति परमतत्त्व में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के समय साधना से सभी सांसारिक बन्धन कटकर गिर जाते हैं और प्राणतत्त्व आत्मा के साथ संयुक्त होकर 'परब्रह्मा' के पास पहुंच जाता है। | *जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा निर्मित अतिसूक्ष्म तन्तुओं पर गतिशील रहती है, उसी प्रकार प्राण का संचार समस्त नाड़ियों के भीतर होना चाहिए। प्राण की गतिशीलता योग-साधना से ही त्वरित की जा सकती है। तब [[प्राणतत्त्व]] शरीर की समस्त नाड़ियों का भेदन करते हुए 'आत्मतत्त्व' तक पहुंचने में सफल हो पाता है। जैसे दीपक बुझने के समय, अर्थात प्राणोत्सर्ग के समय, तेल-बाती जलकर नष्ट हो जाती है और दीपक की ज्योति परमतत्त्व में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के समय साधना से सभी सांसारिक बन्धन कटकर गिर जाते हैं और प्राणतत्त्व आत्मा के साथ संयुक्त होकर 'परब्रह्मा' के पास पहुंच जाता है। | ||
Revision as of 11:37, 20 February 2011
- कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद के मन्त्र 'तत्त्व-ज्ञान' के प्रति बन्धक घटकों को काटने में क्षुरिका (छुरी-चाक़ू) के समान समर्थ हैं। योग के अष्टांगों में से 'धारणा' अंग की सिद्धि और उसके प्रतिफल की यहाँ विशेष रूप से चर्चा की गयी है। इसमें कुल पच्चीस मन्त्र हैं।
- यहाँ कहा गया है कि सबसे पहले योग-साधना के लिए स्वच्छ आसन और स्थान पर बैठकर 'प्राणायाम' की विशेष क्रियाओं- पूरक, कुम्भ और रेचक-का अभ्यास करके शरीर के सभी मर्मस्थानों में प्राण का संचार करना चाहिए। उसके उपरान्त नीचे से ऊपर की ओर उठते हुए 'ब्रह्मरन्ध्र' में स्थित परब्रह्म तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए।
- ऋषि का कहना है कि योग की सिद्धि के लिए 'धारणा-रूपी' छुरी का प्रयोग करना चाहिए। इससे जीव आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है। 'धारणा' के प्रभाव से सांसारिक बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
- 'ध्यानयोग' के द्वारा समस्त नाड़ियों को छेदन किया जा सकता है, किन्तु सुषुम्ना नाड़ी का नहीं, परन्तु योगी पुरुष धारणा-रूपी छुरी से सैकड़ों नाड़ियों का भी छेदन कर सकता है। वैराग्य-रूपी पत्थर पर 'ॐकार' युक्त प्राणायाम से घिसकर तेज़ की गयी धारणा-रूपी छुरी से सांसारिक विषय-भोगों के समस्त्र सूत्रों को काट देना चाहिए। तभी वह अमृत्व प्राप्त कर सकता है।
- जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा निर्मित अतिसूक्ष्म तन्तुओं पर गतिशील रहती है, उसी प्रकार प्राण का संचार समस्त नाड़ियों के भीतर होना चाहिए। प्राण की गतिशीलता योग-साधना से ही त्वरित की जा सकती है। तब प्राणतत्त्व शरीर की समस्त नाड़ियों का भेदन करते हुए 'आत्मतत्त्व' तक पहुंचने में सफल हो पाता है। जैसे दीपक बुझने के समय, अर्थात प्राणोत्सर्ग के समय, तेल-बाती जलकर नष्ट हो जाती है और दीपक की ज्योति परमतत्त्व में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के समय साधना से सभी सांसारिक बन्धन कटकर गिर जाते हैं और प्राणतत्त्व आत्मा के साथ संयुक्त होकर 'परब्रह्मा' के पास पहुंच जाता है।
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