महात्मा गाँधी और गोलमेज सम्मेलन

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चित्र:Blockquote-open.gif "करेंगे या मरेंगे", नोट इस प्रकार है- 'हर व्यक्ति को इस बात की खुली छूट है कि वह अहिंसा पर आचरण करते हुए अपना पूरा ज़ोर लगाए। हड़तालों और दूसरे अहिंसक तरीकों से पूरा गतिरोध पैदा कर दीजिए। सत्याग्रहियों को मरने के लिए, न कि जीवित रहने के लिए, घरों से निकलना होगा। उन्हें मौत की तलाश में फिरना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए। जब लोग मरने के लिए घर से निकलेंगे तभी कौम बचेगी, करेंगे या मरेंगे।' 9 अगस्त, 1942 को अपनी गिरफ्तारी से पूर्व सुबह पांच बजे:- महात्मा गाँधी चित्र:Blockquote-close.gif


1920 के दशक के मध्य में सक्रिय राजनीति में गाँधी जी ने अधिक रुचि नहीं दिखाई। लेकिन 1927 में ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक 'संविधान सुधार आयोग' का गठन किया, जिसमें किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। कांग्रेस और अन्य पार्टियों के द्वारा आयोग का बहिष्कार किए जाने से राजनीतिक घटनाक्रम तेज़ हुआ। दिसम्बर, 1928 में 'कोलकाता कांग्रेस' की बैठक के बाद, जिसमें गाँधी जी ने पूर्ण स्वराज्य के लिए देशव्यापी अहिंसक आंदोलन की धमकी देकर ब्रिटिश सरकार से एक साल के भीतर भारत को अधिराज्य का दर्जा दिए जाने की महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखा। कांग्रेस पार्टी पर फिर से गाँधी जी का नियंत्रण हो गया।

गोलमेज सम्मेलन में प्रतिभाग

समाज के निर्धन वर्ग को प्रभावित करने वाले नमक-कर के ख़िलाफ़ गाँधी जी ने मार्च, 1930 में सत्याग्रह शुरू किया। ब्रिटिश राज्य के ख़िलाफ़ गाँधी जी के अहिंसक युद्ध में यह सबसे विशाल और सफल आंदोलन था और इसके फलस्वरूप 60 हज़ार से अधिक लोग गिरफ़्तार किए गए। एक साल बाद भारत के ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड इरविन के साथ बातचीत के बाद गाँधी जी ने एक समझौता स्वीकार कर लिया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया और लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए सहमत हो गए। गाँधी जी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए, जिसका विस्टन चर्चिल ने खूब मज़ाक़ उड़ाया और उन्हें 'भारतीय फ़क़ीर' की संज्ञा दी।

'अखिल भारतीय हरिजन संघ' की स्थापना

अंग्रेज़ों से सत्ता के हस्तांतरण के बजाय भारतीय अल्पसंख्यकों की समस्या पर केन्द्रित गोलमेज सम्मेलन भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए घोर निराशाजनक था। इसके अलावा, जब दिसम्बर 1931 में गाँधी जी स्वदेश लौटे तो उन्होंने पाया कि उनकी पार्टी को लॉर्ड विलिंगडन का चौतरफ़ा आक्रमण झेलना पड़ रहा है। thumb|150px|महात्मा गाँधी
चित्रकार-वी. पी. करमरकर|left
गाँधी जी को एक बार फिर जेल भेज दिया गया और सरकार ने उन्हें बाहरी दुनिया से अलग-थलग करने तथा उनके प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। यह आसान कार्य नहीं था। सितंबर 1932 में बंदी अवस्था में ही गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार के द्वारा नए संविधान में अछूतों[1] को अलग मतदाता सूची में शामिल करके उन्हें अलग करने के निर्णय के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप देश भर में भावनात्मक आवेग उमड पड़ा। हिन्दू समुदाय और दलित नेताओं ने मिल-जुलकर तेजी से एक वैकल्पिक मतदाता सूची की व्यवस्था की रूपरेखा बनाई और ब्रिटिश सरकार ने इसे मंजूरी दे दी। यह अनशन अछूतों के ख़िलाफ़ भेदभाव दूर करने के ज़ोरदार आन्दोलन का आरम्भ था। गाँधी जी ने इन्हें 'हरिजन' नाम दिया और 'अखिल भारतीय हरिजन संघ' की स्थापना की, जिसका अर्थ होता है, "ईश्वर की संतान"।

विकारी विचार से बचने का एक अमोघ उपाय राम-नाम है। नाम कंठ से नहीं, किन्तु हृदय से निकलना चाहिए। -महात्मा गाँधी

कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा

1934 में गाँधी जी ने न सिर्फ़ कांग्रेस के नेता के पद से, बल्कि पार्टी की सदस्यता से भी इस्तीफ़ा दे दिया। उनका मानना था कि पार्टी के अग्रणी सदस्यों ने सिर्फ़ राजनीतिक कारणों से अहिंसा को अपनाया है। राजनीतिक गतिविधियों के स्थान पर अब उन्होंने 'रचनात्मक कार्यक्रमों' के ज़रिये 'सबसे निचले स्तर से' राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने ग्रामीण भारत को, जो देश की आबादी का 85 प्रतिशत था, शिक्षित करने, छुआछूत के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखने, हाथ से कातने, बुनने और अन्य कुटीर उद्योगों के अर्द्ध बेरोज़गार किसानों की आय में इज़ाफ़ा करने के लिए बढ़ावा देने और लोगों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्रणाली बनाने का काम शुरू किया। स्वयं गाँधी जी मध्य भारत के एक गाँव सेवाग्राम में रहने चले गए, जो सामाजिक और आर्थिक विकास के उनके कार्यक्रमों का केन्द्र बना।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (दलित हिन्दू)

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