जीमूत (मल्ल)

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चित्र:Disamb2.jpg जीमूत एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- जीमूत (बहुविकल्पी)

जीमूत हिन्दू पौराणिक ग्रंथ महाभारत के उल्लेखानुसार एक मल्ल था, जो विराट नगर में भीमसेन द्वारा मारा गया था।

'महाभारत विराट पर्व' के अनुसार जीमूत दूसरे सब पहलवानों को अपने साथ लड़ने के लिये ललकारता था। जब भी वह अखाड़े में उतरकर उछलने लगता था, उस समय कोई भी उसके समीप खड़ा नही हो सकता था। जब सभी मल्ल उदासीन होकर हिम्मत हार बैठे थे, तब मत्स्यनरेश ने अपने रसोइये से उस पहलवान को लड़ाने का निश्चय किया। उस समय राजा विराट से प्रेरित होने पर भीमसेन ने पहचाने जाने का भय होने पर दु:खी होकर जीमूत से लड़ने का विचार किया। वे राजा की बात को प्रकट रूप में टाल नहीं सकते थे। तदनन्तर पुरुषसिंह भीम ने सिंह के समान धीमी चाल से चलते हुए राजा विराट का मान रखने के लिये उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। फिर लोगों में हर्ष का संचार करते हुए उन्होंने लँगोट बाँधा और उस प्रसिद्ध पराक्रमी 'जीमूत' नामक मल्ल को, जो वृत्रासुर के समान दिखायी देता था, युद्ध के लिये ललकारा। वे दोनों बड़े उत्साह में भरे थे। दोनों ही प्रचण्ड पराक्रमी थे, ऐसा लगता था मानो साठ वर्ष के दो मतवाले एवं विशालकाय गजराज एक दूसरे से भिड़ने को उद्यत हों। अत्यंत हर्ष में भरकर एक दूसरे को जीत लेने की इच्छा वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर बाहुयुद्ध करने लगे।[1]

कुश्ती के दाँव-पेंच में कुशल वे दोनों वीर गम्भीर गर्जना के साथ एक-दूसरे को डाँट बताते हुए लोहे के परिघ (माटे डंडे) जैसी बाँहें मिलाकर परस्पर भिड़ गये। फिर विपुलपराक्रमी शत्रुहन्ता महाबाहु भीमसेन ने गर्जना करते हुए, जैसे सिंह हाथी पर झपटे, उसी प्रकार झपटकर जीमूत को दोनों हाथों से पकड़कर खींचा और ऊपर उठाकर उसे घुमाना आरम्भ किया। यह देख वहाँ आये हुए पहलवानों तथा मत्स्य देश की प्रजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। सौ बार घुमाने पर जब वह धैर्य, साहस और चेतना से भी हाथ धो बैठा, तब बड़ी-बड़ी बाहुओं वाले वृकोदर भीम ने उसे पृथ्वी पर गिराकर मसल डाला।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस. पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 150 |

  1. महाभारत विराट पर्व |अनुवादक: साहित्याचार्य पण्डित रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 1874 |

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