अद्वयतारकोपनिषद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
Line 15: Line 15:
<poem>गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गति:।
<poem>गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गति:।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम्॥17॥ <ref>अर्थात गुरु ही 'परमब्रह्म' परमात्मा है, गुरु की परम (श्रेष्ठ) गति है, गुरु परा-विद्या है और गुरु ही परायण (उत्तम आश्रय) है। इस उपनिषद का पाठ करने से साधक को मोक्ष प्राप्त हो जाता है और जन्म-जन्मान्तर के पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त इच्छाओं की पूर्ति सहज ही हो जाती है।</ref></poem>
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम्॥17॥ <ref>अर्थात गुरु ही 'परमब्रह्म' परमात्मा है, गुरु की परम (श्रेष्ठ) गति है, गुरु परा-विद्या है और गुरु ही परायण (उत्तम आश्रय) है। इस उपनिषद का पाठ करने से साधक को मोक्ष प्राप्त हो जाता है और जन्म-जन्मान्तर के पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त इच्छाओं की पूर्ति सहज ही हो जाती है।</ref></poem>
 
==टीका टिप्पणी==
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{संस्कृत साहित्य}}
{{संस्कृत साहित्य}}

Revision as of 11:37, 25 May 2011

शुक्ल यजुर्वेद के इस उपनिषद में 'राजयोग' का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसका मुख्य ध्येय 'ब्रह्म' की प्राप्ति है। इसमें 'तारक योग' की व्याख्या, स्वरूप, लक्ष्य, विधि, सिद्धि, मुद्रा और फलश्रुति आदि के विषय में बताया गया है। इसमें बताया गया है कि 'तारक-ब्रह्म' की साधना से जीव भवसागर से पार हो सकता है।

कुण्डलिनी शक्ति

प्रारम्भ में बताया गया है कि योगी के शरीर के मध्य 'सुषुम्ना' नामक नाड़ी चन्द्रमा की भांति प्रकाशमान है। वह 'मूलाधार चक्र' से 'ब्रह्मरन्ध्र' तक विद्यमान है। इस नाड़ी के बीच में विद्युत के समान तेजोमयी सर्पिणी की भांति, कुण्डली मारे हुए, 'कुण्डलिनी शक्ति' विराजमान है। उस कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञान होते ही साधक समस्त पापों से मुक्त होकर 'मोक्ष' का अधिकारी हो जाता है। मस्तिष्क के ऊपर स्थित तेजामय 'तारक-ब्रह्म' के साथ इस कुण्डलिनी शक्ति का योग होते ही साधक सिद्ध हो जाता है। भौतिक सुखों की कामना में रत मनुष्य निरन्तर पापकर्मों की ओर प्रवृत्त रहता है, परन्तु हृदय में कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन करने मात्र से ही साधक श्रेष्ठतम आनन्द के स्त्रोत को अपने भीतर ही प्राप्त कर लेता है।

तारक योग

'तारक योग' की दो विधियां बताई गयी हैं-

  1. 'पूर्वार्द्ध' और
  2. 'उत्तरार्द्ध' पूर्व को 'तारक' कहते हैं और उत्तर को 'अमनस्क' (मन का शून्य होना) कहा गया है। हम अपनी आंखों की पुतलियों (तारक) से सूर्यचन्द्र का दर्शन करते हैं। जैसे आंखों के तारकों से ब्रह्माण्ड में प्रकाशमान तारों को, सूर्य को और चन्द्रमा को देखते हैं, वैसे ही अपने मस्तिष्क-रूपी ब्रह्माण्ड में 'ब्रह्म' के प्रकाशमान सूर्य और चन्द्र आदि नक्षत्रों का दर्शन करना चाहिए। बाह्य और अन्त: में दोनों को एक रूप मानकर ही चिन्तन करने की प्रक्रिया 'तारक योग' कहलाती है। इसे समस्त इन्द्रियों का दमन कर अन्त: दृष्टि से मनो-रूपी ब्रह्माण्ड में 'तारक-ब्रह्म' का चिन्तन करना कहते हैं ।
  • तारक योग की दो विधियों में प्रथम 'मूर्त' कहलाती है और द्वितीय 'अमूर्त' होती है। दोनों तारकों के मध्य ऊर्ध्व भाग में ज्योति-स्वरूप 'ब्रह्म' का निवास है। यह ब्रह्म शुभ्र-रूप तेजस्वी है और सदैव प्रकाशमान रहता है। उस ब्रह्म को मन सहित नेत्रों की अन्त:दृष्टि से देखना चाहिए।
  • अमूर्त तारक भी इसी विधि से मन और संयुक्त नेत्रों से ज्ञात किया जाता है। इसमें 'एकाग्रता' और 'ध्यान' अनिवार्य हैं।
  • जो साधक आन्तरिक दृष्टि के द्वारा दोनों भृकुटियों के मध्य थोड़ा ऊपर की ओर ध्यान केन्द्रित करके ब्रह्म के तेजोमय प्रकाश के दर्शन करता है, वही 'तारक योगी' कहलाता है। तारक का 'पूर्वार्द्ध योग' यही है। 'उत्तरार्द्ध योग' में तालु-मूल के ऊर्ध्व भाग में महान ज्योति का 'किरण मण्डल' स्थित है। उसी का ध्यान तारक योगी अमूर्ति रूप से करता है। उससे अनेक सिद्धियां प्राप्त होती है।

शाम्भवी मुद्रा

योगी साधक की भीतरी और बाहरी लक्ष्य-सन्धान की सामर्थ्य दृष्टि, जब स्थिर हो जाती है, तब वह स्थिति ही 'शाम्भवी मुद्रा' कहलाती है। इससे योगी परम सदगुरु का स्थान प्राप्त कर लेता है। जो अज्ञान-रूपी अन्धकार को रोकने में समर्थ होता है, वही सच्चा और सदाचारी गुरु कहलाता है।

गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गति:।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम्॥17॥ [1]

टीका टिप्पणी

  1. अर्थात गुरु ही 'परमब्रह्म' परमात्मा है, गुरु की परम (श्रेष्ठ) गति है, गुरु परा-विद्या है और गुरु ही परायण (उत्तम आश्रय) है। इस उपनिषद का पाठ करने से साधक को मोक्ष प्राप्त हो जाता है और जन्म-जन्मान्तर के पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त इच्छाओं की पूर्ति सहज ही हो जाती है।

संबंधित लेख

श्रुतियाँ