कुण्डिकोपनिषद: Difference between revisions
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*[[सामवेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में सद्गृहस्थ का दायित्व पूर्ण होने पर | *[[सामवेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में सद्गृहस्थ का दायित्व पूर्ण होने पर सन्न्यास आश्रम में प्रवेश तथा उसकी दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है। उसके बाद सन्न्यासी की अन्तर्मुखी साधनाओं का उल्लेख किया गया है। पहले जप द्वारा ब्राह्मी-चेतना को जाग्रत करना चाहिए, तदुपरान्त उसे सम्पूर्ण आत्म-चेतना के रूप में जानने का प्रयत्न करना चाहिए। उसके बाद इन्द्रियों के संयम से 'अनाहत नाद' द्वारा जीव-चेतना के विकास की साधना करनी चाहिए। इसी क्रम का उल्लेख इस उपनिषद में किया गया है। | ||
*गृहस्थ-जीवन के उपरान्त | *गृहस्थ-जीवन के उपरान्त सन्न्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को [[वायु देव|वायु]] और जल-सेवन से व कन्द, मूल, फल आदि का उपभोग करके अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए। उसे सांसारिक मोह-माया का त्याग करके अध्यात्मिक मन्त्रों द्वारा ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए। | ||
*[[अग्निदेव|अग्नि]] का सम्पर्क, कमण्डलु, गुदड़ी, कौपीन (लंगोटी), धोती और अंगोछा अपने पास रखना चाहिए। उसे सदैव ब्रह्म का स्मरण करते रहना चाहिए-मैं जीवात्मा, आकाश की भांति, कल्पना से परे, ऊपर स्थित हूं। सूर्य के समान अन्य सुनहले आकर्षक पदार्थों से पृथक् हूं। पर्वत की तरह सतत स्थित रहता हूं तथा समुद्र की तरह अपार हूँ। <ref>आकाशवत्कल्पविदूरगोऽहमादित्यवद्भास्यविलक्षणोऽहम्। | *[[अग्निदेव|अग्नि]] का सम्पर्क, कमण्डलु, गुदड़ी, कौपीन (लंगोटी), धोती और अंगोछा अपने पास रखना चाहिए। उसे सदैव ब्रह्म का स्मरण करते रहना चाहिए-मैं जीवात्मा, आकाश की भांति, कल्पना से परे, ऊपर स्थित हूं। सूर्य के समान अन्य सुनहले आकर्षक पदार्थों से पृथक् हूं। पर्वत की तरह सतत स्थित रहता हूं तथा समुद्र की तरह अपार हूँ। <ref>आकाशवत्कल्पविदूरगोऽहमादित्यवद्भास्यविलक्षणोऽहम्। | ||
अहार्यवन्नित्याविनिश्चलोऽहमम्भोधिवत्पाराविवर्जितोऽहम्॥16॥</ref> | अहार्यवन्नित्याविनिश्चलोऽहमम्भोधिवत्पाराविवर्जितोऽहम्॥16॥</ref> |
Revision as of 13:53, 2 May 2015
सन्न्यासी की अन्तर्मुखी साधनाएं
- सामवेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में सद्गृहस्थ का दायित्व पूर्ण होने पर सन्न्यास आश्रम में प्रवेश तथा उसकी दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है। उसके बाद सन्न्यासी की अन्तर्मुखी साधनाओं का उल्लेख किया गया है। पहले जप द्वारा ब्राह्मी-चेतना को जाग्रत करना चाहिए, तदुपरान्त उसे सम्पूर्ण आत्म-चेतना के रूप में जानने का प्रयत्न करना चाहिए। उसके बाद इन्द्रियों के संयम से 'अनाहत नाद' द्वारा जीव-चेतना के विकास की साधना करनी चाहिए। इसी क्रम का उल्लेख इस उपनिषद में किया गया है।
- गृहस्थ-जीवन के उपरान्त सन्न्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को वायु और जल-सेवन से व कन्द, मूल, फल आदि का उपभोग करके अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए। उसे सांसारिक मोह-माया का त्याग करके अध्यात्मिक मन्त्रों द्वारा ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए।
- अग्नि का सम्पर्क, कमण्डलु, गुदड़ी, कौपीन (लंगोटी), धोती और अंगोछा अपने पास रखना चाहिए। उसे सदैव ब्रह्म का स्मरण करते रहना चाहिए-मैं जीवात्मा, आकाश की भांति, कल्पना से परे, ऊपर स्थित हूं। सूर्य के समान अन्य सुनहले आकर्षक पदार्थों से पृथक् हूं। पर्वत की तरह सतत स्थित रहता हूं तथा समुद्र की तरह अपार हूँ। [1]
- मैं ही नारायण हूँ, पुरुष और ईश्वर मैं ही हूँ, मैं ही अखण्ड बोध-स्वरूप, समस्त प्राणियों का साक्षी, अहंकार-रहित तथा ममता-रहित हूँ। ऐसे ब्रह्म का जो चिन्तन करता है, वह स्वयं ब्रह्म-स्वरूप हो जाता है। वही शिव है। वह सतत स्वयं को ही देखता है और स्वयं ही आनन्द का उपभोग करता हुआ निर्विकल्प रूप में विद्यमान रहता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आकाशवत्कल्पविदूरगोऽहमादित्यवद्भास्यविलक्षणोऽहम्। अहार्यवन्नित्याविनिश्चलोऽहमम्भोधिवत्पाराविवर्जितोऽहम्॥16॥