संहितोपनिषद ब्राह्मण: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "महत्वपूर्ण" to "महत्त्वपूर्ण")
m (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
Line 13: Line 13:
सायण की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। 1965 ई. में डॉ. बी.आर. शर्मा के द्वारा संपादित संहितोपनिषद ब्राह्मण तिरुपति से प्रकाशित हुआ है।
सायण की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। 1965 ई. में डॉ. बी.आर. शर्मा के द्वारा संपादित संहितोपनिषद ब्राह्मण तिरुपति से प्रकाशित हुआ है।


{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

Revision as of 10:47, 21 March 2011

जैसा कि नाम से स्पष्ट है, संहितोपनिषद ब्राह्मण संहिता के निगूढ रहस्य का प्रकाशक है। अन्य वेदों में 'संहिता' का अभिप्राय मात्र किसी विशेष क्रम से संकलित मन्त्र-संग्रह से है, किन्तु संहितोपनिषद ब्राह्मण में 'संहिता' शब्द का इसी प्रचलित अर्थ में प्रयोग नहीं हुआ है। 'संहिता' का तात्पर्य यहाँ ऐसा सामगान है, जिसका गान विशेष स्वर-मण्डल से अनवरत रूप से किया जाता हो। इस सन्दर्भ में सायण का कथन है-
`सामवेदस्य गीतिषु सामाख्या` इति न्यायेन केवलगानात्मकत्वात् पदाभावेन प्रसिद्धा संहिता यद्यपि न भवति तथापि तस्मिन् साम्नो सप्तस्वरा भवन्ति। क्रुष्ट प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थमन्द्रातिस्वार्या इति। तथा मन्द्रमध्यमताराणीति त्रीणि वाच: स्थानानि भवन्ति। एतेषां य: सन्निकर्ष: सा संहिता।[1]
किन्तु द्विजराज भट्ट ने 'संहिता' शब्द के अर्थ पर विचार करते हुए उससे आर्चिक ग्रन्थ का अभिप्राय ग्रहण किया है-
अत्र संहिताशब्देन आर्चिकग्रन्था उच्यन्ते। अध्यापकाध्येतृणा सम्यक् हितकर्य: संहिता:। अथवा सन्ततप्रकारेण द्विपदावसानेनैव अधीयाना: संहिता:। अथवा उपवीतानन्तरं शरीरावसानपर्यन्तं सन्ततमधीयन्त इति संहिता:।
परन्तु द्विजराजभट्ट की व्याख्या प्रकृतप्रसंग में उपादेय नहीं प्रतीत होती है, क्योंकि संहितोपनिषद ब्राह्मण ने संहिता का वर्गीकरण 'देवहू' 'वाक् शबहू' और 'अमित्रहू' रूप तीन प्रकार से किया है। यह मन्द्रादिस्वरजन्य उच्चारण पर आधृत है जो गान-विधि के बिना सम्भव नहीं है। द्विजराज संहिताओं के दो रूप मानते हैं, आर्चिकसंहिता और गानसंहिता। उनके अनुसार संहितोपनिषद ब्राह्मण के प्रथम और द्वितीय खण्डों में क्रमश: इनका निरूपण हुआ है।[2] इस प्रकार प्रस्तुत ब्राह्मण में संहिता क विभाजन विभिन्न श्रेणियों में किया गया है। ऊपर 'देवहू' प्रभृति भेद उल्लिखित है। इनके गान-प्रकारों का आश्रय लेने वाले सामगों के लिए विभिन्न फलों का निर्देश भी है। देवहू-संहिता वह है, जिसका उच्चारण मन्द्रस्वर से होता है और उसके गान से देवगण शीघ्र पधारते हैं। देवहू प्रकार का उद्गाता समृद्धि, पुत्र, पशु आदि की प्राप्ति करता है और वाक्शबहू प्रकार से गायन करने वाला, जो अस्पष्टाक्षरों में गान करता है, शीघ्र ही मर जाता है। आगे संहिता का शुद्धा, दु:स्पृष्टा और निर्भुजा रूपों में विभाजन किया गया है। इनके अतिरिक्त देवदृष्टि से भी संहिता का वर्गिकरण है। द्वितीय और तृतीय खण्डों में साम-गान की पद्वति का विधिवत् निरूपण है, जो सामगाताओं के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तृतीय खण्ड में विद्या-दान की दृष्टि से अधिकारियों का उल्लेख किया गया है। चतुर्थ और पंचम खण्डों में भी इसी विषय का उपबृंहण हुआ है। प्रकृत प्रसंग मे, इसके 'विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम' प्रभृति मन्त्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, जिन्हें निरुक्त में उद्धृत और मनुस्मृति इत्यादि में सन्दर्भित किया गया है। ग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड में प्रसंगत: विविध गुरु-दक्षिणाओं का भी विधान है। इस पर दो भाष्य प्राप्त होते हैं- सायणकृत 'वेदार्थप्रकाश' और द्विजराजभट्टकृत भाष्य्। वेदार्थप्रकाश अद्यावधि प्रथम खण्ड तक ही उपलब्ध है। द्विजराजभट्ट का भाष्य सभी खण्डों पर है। अनेक स्थलों पर वह सायण की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। 1965 ई. में डॉ. बी.आर. शर्मा के द्वारा संपादित संहितोपनिषद ब्राह्मण तिरुपति से प्रकाशित हुआ है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संहितो ब्राह्मण, भाष्य-भूमिका
  2. इह पूर्वस्मिन् आर्चिकसंहिताप्रयोगविधि: सम्यगुक्त:। तदुत्तरं गानसंहिताविधि: वक्तव्य:, संहितोपनिषद ब्राह्मण भाष्य, पृष्ठ 33

संबंधित लेख

श्रुतियाँ