दिति: Difference between revisions
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Revision as of 08:00, 14 October 2011
- अपने पुत्रों की हत्या से दु:खी दिति मरीचि के पुत्र कश्यप के पास गयी और कहा कि अदिति के पुत्रों ने उसके पुत्रों को मार डाला है। वह अपने पति से ऐसे गर्भ की इच्छुक है, जिससे उत्पन्न बेटा इन्द्र की हत्या कर डाले। कश्यप ने स्वीकार कर लिया तथा पुत्र-जन्म तक पवित्रता से रहने का आदेश दिया। पुत्र-जन्म एक हज़ार वर्ष बाद होना था। दिति कुशप्लव नामक तपोवन में तपस्या करने लगी। इन्द्र ने उसे अपनी सेवा से प्रसन्न कर लिया। पुत्र-प्राप्ति से दस वर्ष पूर्व दिति ने इन्द्र से कहा कि उसकी सेवा से प्रसन्न होकर वह अपने पुत्र को उसका वध नहीं करने देगी। दिति पायताने की ओर सिर करके सो गयी। इन्द्र ने ऐसी अपवित्र स्थिति में उसे सोते देखा तो उसके गर्भ में प्रवेश कर बालक के सात टुकड़े कर डाले। बालक के चिल्लाने पर दिति जाग गयी। इन्द्र ने विनीत भाव से कहा कि इन्द्र का वध करने वाले गर्भस्थ शिशु के सात टुकड़े इस कारण किये कि वह अशुचितापूर्वक पायताने पर सिर रखकर सो रही थी। लज्जित होकर दिति ने इस कर्म का परिमार्जन करने की प्रार्थना की। दिति ने कहा कि उसके सात दिव्यरूपधारी बेटे हों जो 'मारूत' कहलाएं क्योंकि गर्भ को काटते हुए इन्द्र ने 'मारूत' (रो मत) कहा थां इनमें से चार इन्द्र के अधीन रहकर चारों दिशाओं में विचरें। शेष तीन में से दो क्रमश: ब्रह्मलोक तथा इन्द्रलोक में विचरें और तीसरा महायशस्वी दिव्य वायु के नाम से विख्यात हो। [1]
- दिति कश्यप की पत्नी थी। सन्ध्या समय जब कश्यप यज्ञ में खीर की आहुतियां दे रहे थे, दिति कामासक्त थी। कश्यप के बहुत समझाने पर भी कि यह 'भूत भ्रमण काल है', दिति समागम का आग्रह करती रही। कश्यप ने पत्नी की बात मान ली। कालांतर में काममुक्त होकर दिति अपने कृत्य के लिए लज्जा तथा खेद का अनुभव करती हुई पति के पास गयी। मुनि ने कहा कि असमय में संभोग करने के कारण उसके पुत्र दैत्य होंगे तथा भगवान के हाथों मारे जायेंगे। चार पौत्रों में से एक भगवान का प्रसिद्ध भगवद्भक्त होगा। दिति को आशंका थी कि उसके पुत्र देवताओं के कष्ट का कारण बनेंगे, अत: उसने सौ वर्ष तक अपने शिशुओं का उदर में ही रखा। तदनंतर सब दिशाओं में अंधकार फैल गया, अत: देवताओं ने ब्रह्मा से जाकर प्रार्थना की कि उसका निराकरण करें। ब्रह्मा ने कहा कि पूर्वकाल में सनकादि मुनियों को बैकुंठ धाम में छ: सीढ़ियों के ऊपर जाने से विष्णु के पार्षदों ने अज्ञतावश रोक दिया था। सनकादि आयु में, संसार में सबसे बड़े होने पर भी पांच ही वर्ष के दिखलायी पड़ते थे। वे लोग विष्णु के दर्शनाभिलाषी थे। उन्होंने क्रुद्ध होकर उन दोनों को पार्षद का पद छोड़कर पापमय योनि में जन्म लेने को कहा था। वे जय-विजय नामक पार्षद बैकुंठ से पतित होकर दिति के गर्भ में बड़े हो रहे हैं।
- तदनंतर सृष्टि में भयानक उत्पात के उपरांत दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष का जन्म हुआ। जन्म लेते ही दोनों पर्वत के समान दृढ़ तथा विशाल हो गये। हिरण्याक्ष के हनन के समय दिति के स्तन से रूधिर प्रवाहित होने लगा था। [2]