आलमशाह द्वितीय: Difference between revisions

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'''आलमशाह द्वितीय या शाहआलम द्वितीय''' (1759-1806 ई.) 17वाँ [[मुग़ल]] बादशाह था। इसका असली नाम शाहज़ादा अली गौहर था। यह [[आलमगीर द्वितीय]] के उत्तराधिकारी के रूप में 1759 ई. में गद्दी पर बैठा। बादशाह शाहआलम द्वितीय ने [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] से [[इलाहाबाद]] की सन्धि कर ली थी और वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन कर रहा था।
'''आलमशाह द्वितीय या शाहआलम द्वितीय''' (1759-1806 ई.) 17वाँ [[मुग़ल]] बादशाह था। इसका असली नाम शाहज़ादा अली गौहर था। यह [[आलमगीर द्वितीय]] के उत्तराधिकारी के रूप में 1759 ई. में गद्दी पर बैठा। बादशाह शाहआलम द्वितीय ने [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] से [[इलाहाबाद]] की सन्धि कर ली थी और वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन कर रहा था।
==ख़िताब तथा संकटग्रस्त समय==
==ख़िताब तथा संकटग्रस्त समय==
'''1759 ई. में राजगद्दी पर बैठने के साथ ही''' अली गौहर ने बादशाह होने पर 'आलमशाह द्वितीय' का ख़िताब धारण किया। [[इतिहास]] में वह 'शाहआलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध है।' उसका राज्यकाल भारतीय इतिहास का एक संकटग्रस्त काल कहा जा सकता है। उसके [[पिता]] आलमगीर द्वितीय को उसके सत्तालोलुप और कुचक्री वज़ीर [[गाज़ीउद्दीन इमामुलमुल्क|गाज़ीउद्दीन]] ने तख़्त से उतार दिया था। वह नये बादशाह को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। आलमशाह द्वितीय के गद्दी पर बैठने के दो साल पहले [[प्लासी]] की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कम्पनी की विजय हो चुकी थी, जिसके फलस्वरूप [[बंगाल]], [[बिहार]] और [[उड़ीसा]] पर उसका शासन हो गया था। उत्तर-पश्चिम में [[अहमदशाह अब्दाली]] ने अपने हमले शुरू कर दिये थे। 1756 ई. में उसने [[दिल्ली]] को लूटा और 1759 ई. में [[मराठा|मराठों]] को, जिन्होंने 1758 ई. में [[पंजाब]] पर अधिकार कर लिया था, वहाँ से निकाल बाहर किया। दक्षिण में [[पेशवा]] [[बालाजी बाजीराव]] के नेतृत्व में मराठे मुग़लों के स्थान पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। इस प्रकार से जिस समय शाहआलम द्वितीय गद्दी पर बैठा, उस समय उसका अपना वज़ीर उसके ख़िलाफ़ ग़द्दारी कर रहा था। पूर्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की ताक़त बढ़ रही थी तथा [[पंजाब]] में अहमदशाह अब्दाली ताक लगाये बैठा था।  
'''1759 ई. में राजगद्दी पर बैठने के साथ ही''' अली गौहर ने बादशाह होने पर 'आलमशाह द्वितीय' का ख़िताब धारण किया। [[इतिहास]] में वह 'शाहआलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध है।' उसका राज्यकाल भारतीय इतिहास का एक संकटग्रस्त काल कहा जा सकता है। उसके [[पिता]] आलमगीर द्वितीय को उसके सत्तालोलुप और कुचक्री वज़ीर [[गाज़ीउद्दीन इमामुलमुल्क|गाज़ीउद्दीन]] ने तख़्त से उतार दिया था। वह नये बादशाह को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। आलमशाह द्वितीय के गद्दी पर बैठने के दो साल पहले [[प्लासी]] की लड़ाई में [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] की विजय हो चुकी थी, जिसके फलस्वरूप [[बंगाल]], [[बिहार]] और [[उड़ीसा]] पर उसका शासन हो गया था। उत्तर-पश्चिम में [[अहमदशाह अब्दाली]] ने अपने हमले शुरू कर दिये थे। 1756 ई. में उसने [[दिल्ली]] को लूटा और 1759 ई. में [[मराठा|मराठों]] को, जिन्होंने 1758 ई. में [[पंजाब]] पर अधिकार कर लिया था, वहाँ से निकाल बाहर किया। दक्षिण में [[बालाजी बाजीराव|पेशवा बालाजी बाजीराव]] के नेतृत्व में मराठे मुग़लों के स्थान पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। इस प्रकार से जिस समय शाहआलम द्वितीय गद्दी पर बैठा, उस समय उसका अपना वज़ीर उसके ख़िलाफ़ ग़द्दारी कर रहा था। पूर्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की ताक़त बढ़ रही थी तथा [[पंजाब]] में अहमदशाह अब्दाली ताक लगाये बैठा था।
 
==ईस्ट इंडिया कम्पनी से सन्धि==
==ईस्ट इंडिया कम्पनी से सन्धि==
'''शाहआलम द्वितीय ने अपने तख़्त के लिए''' अब्दाली को सबसे ज़्यादा ख़तरनाक समझा। इसलिए उसने अब्दाली के पंजे से बचने के लिए मराठों को अपना संरक्षक बना लिया। लेकिन 1761 ई. में [[पानीपत]] की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को हरा दिया। उसने शाहआलम द्वितीय को [[दिल्ली]] के तख़्त पर बने रहने दिया। यद्यपि बाद में उसकी इच्छा हुई कि वह उसे हटाकर स्वयं दिल्ली का तख़्त हस्तगत कर ले, तथापि उसकी यह योजना पूरी नहीं हुई। किन्तु, अब्दाली की इस विफलता से बादशाह शाहआलम द्वितीय को कोई लाभ प्राप्त नहीं पहुँचा। 1764 ई. में उसने अपनी शक्ति बढ़ाने का दूसरा प्रयास किया और [[बंगाल]] से [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] को निकाल बाहर करने के लिए [[अवध]] के नवाब [[शुजाउद्दौला]] और [[बंगाल]] के भगोड़े नवाब [[मीर क़ासिम]] से सन्धि कर ली, परन्तु अंग्रेज़ों ने [[बक्सर का युद्ध|बक्सर की लड़ाई]] (1764 ई.) में शाही सेना को हरा दिया और बादशाह शाहआलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से [[इलाहाबाद की सन्धि]] कर ली। इस सन्धि के द्वारा बादशाह को कोड़ा और [[इलाहाबाद]] के ज़िले अवध से मिल गये और बादशाह ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) कम्पनी को इस शर्त पर सौंप दी, वह उसे 26 लाख रुपये सालाना ख़िराज देगी। लेकिन शाहआलम को यह लाभ थोड़े समय तक ही मिला।
'''शाहआलम द्वितीय ने अपने तख़्त के लिए''' अब्दाली को सबसे ज़्यादा ख़तरनाक समझा। इसलिए उसने अब्दाली के पंजे से बचने के लिए मराठों को अपना संरक्षक बना लिया। लेकिन 1761 ई. में [[पानीपत]] की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को हरा दिया। उसने शाहआलम द्वितीय को [[दिल्ली]] के तख़्त पर बने रहने दिया। यद्यपि बाद में उसकी इच्छा हुई कि वह उसे हटाकर स्वयं दिल्ली का तख़्त हस्तगत कर ले, तथापि उसकी यह योजना पूरी नहीं हुई। किन्तु, अब्दाली की इस विफलता से बादशाह शाहआलम द्वितीय को कोई लाभ प्राप्त नहीं पहुँचा। 1764 ई. में उसने अपनी शक्ति बढ़ाने का दूसरा प्रयास किया और [[बंगाल]] से [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] को निकाल बाहर करने के लिए [[अवध]] के नवाब [[शुजाउद्दौला]] और [[बंगाल]] के भगोड़े नवाब [[मीर क़ासिम]] से सन्धि कर ली, परन्तु अंग्रेज़ों ने [[बक्सर का युद्ध|बक्सर की लड़ाई]] (1764 ई.) में शाही सेना को हरा दिया और बादशाह शाहआलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से [[इलाहाबाद की सन्धि]] कर ली। इस सन्धि के द्वारा बादशाह को कोड़ा और [[इलाहाबाद]] के ज़िले अवध से मिल गये और बादशाह ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) कम्पनी को इस शर्त पर सौंप दी, वह उसे 26 लाख रुपये सालाना ख़िराज देगी। लेकिन शाहआलम को यह लाभ थोड़े समय तक ही मिला।

Revision as of 11:12, 20 February 2012

आलमशाह द्वितीय या शाहआलम द्वितीय (1759-1806 ई.) 17वाँ मुग़ल बादशाह था। इसका असली नाम शाहज़ादा अली गौहर था। यह आलमगीर द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में 1759 ई. में गद्दी पर बैठा। बादशाह शाहआलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से इलाहाबाद की सन्धि कर ली थी और वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन कर रहा था।

ख़िताब तथा संकटग्रस्त समय

1759 ई. में राजगद्दी पर बैठने के साथ ही अली गौहर ने बादशाह होने पर 'आलमशाह द्वितीय' का ख़िताब धारण किया। इतिहास में वह 'शाहआलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध है।' उसका राज्यकाल भारतीय इतिहास का एक संकटग्रस्त काल कहा जा सकता है। उसके पिता आलमगीर द्वितीय को उसके सत्तालोलुप और कुचक्री वज़ीर गाज़ीउद्दीन ने तख़्त से उतार दिया था। वह नये बादशाह को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। आलमशाह द्वितीय के गद्दी पर बैठने के दो साल पहले प्लासी की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कम्पनी की विजय हो चुकी थी, जिसके फलस्वरूप बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर उसका शासन हो गया था। उत्तर-पश्चिम में अहमदशाह अब्दाली ने अपने हमले शुरू कर दिये थे। 1756 ई. में उसने दिल्ली को लूटा और 1759 ई. में मराठों को, जिन्होंने 1758 ई. में पंजाब पर अधिकार कर लिया था, वहाँ से निकाल बाहर किया। दक्षिण में पेशवा बालाजी बाजीराव के नेतृत्व में मराठे मुग़लों के स्थान पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। इस प्रकार से जिस समय शाहआलम द्वितीय गद्दी पर बैठा, उस समय उसका अपना वज़ीर उसके ख़िलाफ़ ग़द्दारी कर रहा था। पूर्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की ताक़त बढ़ रही थी तथा पंजाब में अहमदशाह अब्दाली ताक लगाये बैठा था।

ईस्ट इंडिया कम्पनी से सन्धि

शाहआलम द्वितीय ने अपने तख़्त के लिए अब्दाली को सबसे ज़्यादा ख़तरनाक समझा। इसलिए उसने अब्दाली के पंजे से बचने के लिए मराठों को अपना संरक्षक बना लिया। लेकिन 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को हरा दिया। उसने शाहआलम द्वितीय को दिल्ली के तख़्त पर बने रहने दिया। यद्यपि बाद में उसकी इच्छा हुई कि वह उसे हटाकर स्वयं दिल्ली का तख़्त हस्तगत कर ले, तथापि उसकी यह योजना पूरी नहीं हुई। किन्तु, अब्दाली की इस विफलता से बादशाह शाहआलम द्वितीय को कोई लाभ प्राप्त नहीं पहुँचा। 1764 ई. में उसने अपनी शक्ति बढ़ाने का दूसरा प्रयास किया और बंगाल से अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के लिए अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के भगोड़े नवाब मीर क़ासिम से सन्धि कर ली, परन्तु अंग्रेज़ों ने बक्सर की लड़ाई (1764 ई.) में शाही सेना को हरा दिया और बादशाह शाहआलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से इलाहाबाद की सन्धि कर ली। इस सन्धि के द्वारा बादशाह को कोड़ा और इलाहाबाद के ज़िले अवध से मिल गये और बादशाह ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) कम्पनी को इस शर्त पर सौंप दी, वह उसे 26 लाख रुपये सालाना ख़िराज देगी। लेकिन शाहआलम को यह लाभ थोड़े समय तक ही मिला।

कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन

पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की शक्ति को क्षति अवश्य पहुँची थी, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने फिर से अपनी शक्ति अर्जित कर ली। बादशाह शाहआलम द्वितीय अपने वज़ीर नजीबुद्दौला (गाज़ीउद्दीन) की साज़िशों से दिल्ली नहीं लौट पा रहा था। उसने मराठों की मदद लेने के लिए कोड़ा और इलाहाबाद के ज़िले मराठा सरदार महादजी शिन्दे को सौंप दिये। इस प्रकार मराठों की सहायता से 1771 ई. में शाहआलम द्वितीय पुन: दिल्ली लौटा, लेकिन अब उसकी हैसियत मराठों के हाथ की कठपुतली के समान थी। अतएव ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इलाहाबाद की सन्धि तोड़ दी और शाहआलम द्वितीय से कोड़ा और इलाहाबाद के ज़िले वापस ले लिये और उसे सालाना 26 लाख रुपये की ख़िराज देना भी बंद कर दिया, जिसे अंग्रेज़ों ने 1764 ई. में बंगाल की दीवानी के बदले में देने का वायदा किया था। इससे बादशाह शाहआलम द्वितीय की हालत और भी पतली हो गई और वह दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805 ई.) तक मराठों की शरण में रहा।

मृत्यु

दूसरे मराठा युद्ध में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फ़ौजों ने जनरल सेक के नेतृत्व में महादजी शिन्दे की सेना को दिल्ली के निकट पराजित किया। इसके बाद शाहआलम द्वितीय और उसकी राजधानी दिल्ली दोनों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का नियंत्रण स्थापित हो गया। बादशाह अब बूढ़ा हो चला था और अन्धा भी हो गया था। वह पूर्णतया नि:सहाय था। वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन-यापन कर रहा था। अन्त में 1806 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।



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