हिरण्यकशिपु: Difference between revisions

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Revision as of 12:07, 28 December 2010

  • हिरण्यकशिपु अत्यंत बलवान दैत्यराज था। उसने कठोर तपस्या के बल पर ब्रह्मा से यह वर प्राप्त किया कि रात में या दिन में, कोई पशु, पक्षी, जलचर, मनुष्य देवता इत्यादि किसी भी प्रकार के शस्त्र से घर के बाहर अथवा भीतर उसे नहीं मार पायेगा। वरदान प्राप्त कर वह अपनी अमरता के उन्माद में सब पर नानाविध अत्याचार करने लगा। इस प्रकार वह पांच करोड़, इकसठ लाख, साठ हज़ार वर्ष तक सबको त्रस्त करता रहा। देवताओं ने ब्रह्मा से अनुनय-विनय की। ब्रह्मा ने कहा कि उनके भी जनक नारायण हैं, जो क्षीर सागर में शयन कर रहे हैं, वही उनका उद्धार कर पायेंगे। देवगण उनकी शरण में गये। नारायण ने आधा शरीर मनुष्य का सा तथा आधा सिंह का-सा बनाकर नरसिंह विग्रह धारण किया तथा हिरण्यकशिपु से युद्ध प्रारंभ किया। कई हज़ार दैत्यों को मारकर उन्होंने हिरण्यकशिपु को सायंकाल के समय (जब न दिन था, न रात थी) राजमहल की देहली पर (जो भवन के भीतर थी, न बाहर) अपने नाख़ूनों से (जो कि शस्त्र नहीं थे) जंघा पर रखकर मार डाला। [1]
  • हिरण्यकशिपु ने तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न करके अवध्य होने का वर प्राप्त किया। तदुपरांत देवतागण उसके निंरकुश उद्धत रूप से त्रस्त हो गये, अत: विष्णु नरसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु की सभा में गये। उनका हिरण्यकशिपु से युद्ध हुआ जिसमें वह (हिरण्यकशिपु) मारा गया। [2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, सभापर्व, अध्याय 38
  2. हरिवंश पुराण, भविष्यपर्व, 41-47,

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