कैवल्योपनिषद

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 04:48, 27 July 2010 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replace - "==उपनिषद के अन्य लिंक== {{उपनिषद}}" to "==सम्बंधित लिंक== {{संस्कृत साहित्य}}")
Jump to navigation Jump to search
  • कृष्ण यजुर्वेदीय इस उपनिषद में महर्षि आश्वलायन द्वारा ब्रह्मा जी के सम्मुख जिज्ञासा प्रकट करने पर 'कैवल्य पद-प्राप्ति' के मर्म को समझाया गया है।
  • इस 'ब्रह्माविद्या' की प्राप्ति कर्म, धन-धान्य या सन्तान के द्वारा असम्भव है। इसे श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इसमें स्वयं को ब्राह्मी चेतना से अभिन्न अनुभव करने की बात कही गयी है, अर्थात सबको स्वयं में और स्वयं को सब में अनुभव करते हुए त्रिदेवों, चराचर सृष्टि के पंचभूतों आदि में अभेद की स्थिति का वर्णन किया गया है। इसमें छब्बीस मन्त्र हैं।
  • महर्षि आश्वलायन के पूछने पर ब्रह्मा जी ने कहा-'हे मुनिवर! उस अतिश्रेष्ठ परात्पर तत्त्व को श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योगाभ्यास द्वारा जाना जा सकता है। उसे न तो कर्म से, न सन्तान से और न धन से पाया जा सकता है। उसे योगीजन ही प्राप्त कर सकते हैं। वह परात्पर पुरुष ब्रह्मा, शिव और इन्द्र है और वही अक्षर-रूप में ओंकार-स्वरूप परब्रह्म है। वही विष्णु है, वही प्राणतत्त्व है, वही कालाग्नि है, वही आदित्य है और चन्द्रमा है। जो मनुष्य अपनी आत्मा को समस्त प्राणियों के समान देखता है और समस्त प्राणियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है, वही साधक 'कैवल्य पद' प्राप्त करता है। यह कैवल्य पद ही आत्मा से साक्षात्कार है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं में जो कुछ भी भोग-रूप में है, उनसे तटस्थ साक्षी-रूप में सदाशिव मैं स्वयं हूं। मुझसे ही सब कुछ प्रादुर्भत होता है और सब कुछ मुझसे ही लीन हो जाता है।'
  • 'ऋषिवर ! मैं अणु से भी अणु, अर्थात परमाणु हूं। मैं स्वयं विराट पुरुष हूँ और विचित्रताओं से भरा यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही स्वरूप है। मैं पुरातन पुरुष हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही हिरण्यगर्भा हूँ और मैं ही शिव-रूप परमतत्व हूँ।'


सम्बंधित लिंक

श्रुतियाँ


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः