कात्यायन श्रौतसूत्र: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "व्यवहारिक" to "व्यावहारिक")
 
(10 intermediate revisions by 3 users not shown)
Line 43: Line 43:
जातूकर्ण्य, वात्स्य तथा बादरि आचार्यों का इसमें नाम्ना उल्लेख है। अन्य शाखान्तरीय अथवा स्वशाखीय मतों का उल्लेख 'इत्येके' अथवा 'इत्येकेषाम्' कहकर किया गया है। जैमिनि के पूर्वमीमांसा सूत्रों का इस पर बहुत अधिक प्रभाव है। पूर्वमीमांसागत श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या; इन छ: प्रमाणों का भी इसमें उल्लेख है। क्रम, तन्त्र, अतिदेश प्रभृति मीमांसा की पारिभाषिक शब्दावली का बहुधा प्रयोग देखा जा सकता है।
जातूकर्ण्य, वात्स्य तथा बादरि आचार्यों का इसमें नाम्ना उल्लेख है। अन्य शाखान्तरीय अथवा स्वशाखीय मतों का उल्लेख 'इत्येके' अथवा 'इत्येकेषाम्' कहकर किया गया है। जैमिनि के पूर्वमीमांसा सूत्रों का इस पर बहुत अधिक प्रभाव है। पूर्वमीमांसागत श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या; इन छ: प्रमाणों का भी इसमें उल्लेख है। क्रम, तन्त्र, अतिदेश प्रभृति मीमांसा की पारिभाषिक शब्दावली का बहुधा प्रयोग देखा जा सकता है।
==अश्वमेध==
==अश्वमेध==
सूत्रकार का मुख्य उद्देश्य कर्म के व्यवहारिक स्वरूप का यथातथ्य प्रतिपादन करना है, इसलिए [[शतपथ ब्राह्मण]] के दशम काण्ड (अग्नि रहस्य) से गृहीत सामग्री कात्यायन श्रौतसूत्र में नहीं दिखलाई देती, क्योंकि उसमें रहस्यमय पक्ष पर अधिक बल है। सौत्रामणी और अश्वमेध के निरूपण में सूत्रकार ने शतपथोक्त क्रमों से भिन्न पद स्वीकार किए हैं। एकाह और अहीन यागों का विवरण ताण्ड्यानुसार अधिक है। [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] की दक्षिणा में यजमान राजा के द्वारा ऋत्विजों के निमित्त विभिन्न रानियों के दान का भी विधान है। विकल्प में रानियों की अनुचरियाँ भी दी जा सकती हैं।
सूत्रकार का मुख्य उद्देश्य कर्म के व्यावहारिक स्वरूप का यथातथ्य प्रतिपादन करना है, इसलिए [[शतपथ ब्राह्मण]] के दशम काण्ड (अग्नि रहस्य) से गृहीत सामग्री कात्यायन श्रौतसूत्र में नहीं दिखलाई देती, क्योंकि उसमें रहस्यमय पक्ष पर अधिक बल है। सौत्रामणी और अश्वमेध के निरूपण में सूत्रकार ने शतपथोक्त क्रमों से भिन्न पद स्वीकार किए हैं। एकाह और अहीन यागों का विवरण ताण्ड्यानुसार अधिक है। [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] की दक्षिणा में यजमान राजा के द्वारा ऋत्विजों के निमित्त विभिन्न रानियों के दान का भी विधान है। विकल्प में रानियों की अनुचरियाँ भी दी जा सकती हैं।
==रचना==
==रचना==
कात्यायन श्रौतसूत्र की कुछ सामग्री का सादृश्य [[बौधायन श्रौतसूत्र]] से भी है। परम्परा कात्यायन श्रौतसूत्र के प्रणयन का श्रेय कात्यायन को देती है। यह वे ही कात्यायन हैं, जिन्होंने पाणिनीय सूत्रों पर वार्तिकों की तथा वाजसनेयि प्रातिशाख्य की रचना की है। इनका समय ई. पूर्व तीसरी शती से पूर्व होना चाहिए। कात्यायन श्रौतसूत्र की रचना अत्यन्त सुव्यवस्थित सूत्रशैली में हुई है। विषय विवेचन क्रमयुक्त और सुसम्बद्ध है। वैदिक शब्दावली और अपाणिनीय प्रयोग भी कहीं–कहीं पाए जाते हैं। कात्यायन श्रौतसूत्र पर लिखित व्याख्याओं में भर्तृयज्ञ की व्याख्या सर्वप्राचीन मानी जाती है। अनन्त देव के भाष्य के साथ ही [[स्कन्द पुराण]]<balloon title="नागरखण्ड, 113–117" style=color:blue>*</balloon> में भी भर्तृयज्ञ का उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि वे नागर ब्राह्मण थे। 12वीं शती के 'त्रिकाण्डमण्डन' तथा मनुस्मृति के भाष्यकार मेधातिथि<balloon title="मनुस्मृति 8.3 पर भाष्य" style=color:blue>*</balloon> ने भी इनका उल्लेख किया है। तीसरी प्राचीन व्याख्या कर्काचार्य ने की है, जो सम्पूर्ण सूत्र पर उपलब्ध है। आनन्त देव का भाष्य अभी हस्तलेख के रूप में ही है। आधुनिक काल में पं. विद्याधर गौड़ ने इस पर 'सरलावृत्ति' की रचना की है।
कात्यायन श्रौतसूत्र की कुछ सामग्री का सादृश्य [[बौधायन श्रौतसूत्र]] से भी है। परम्परा कात्यायन श्रौतसूत्र के प्रणयन का श्रेय कात्यायन को देती है। यह वे ही कात्यायन हैं, जिन्होंने पाणिनीय सूत्रों पर वार्तिकों की तथा वाजसनेयि प्रातिशाख्य की रचना की है। इनका समय ई. पूर्व तीसरी शती से पूर्व होना चाहिए। कात्यायन श्रौतसूत्र की रचना अत्यन्त सुव्यवस्थित सूत्रशैली में हुई है। विषय विवेचन क्रमयुक्त और सुसम्बद्ध है। वैदिक शब्दावली और अपाणिनीय प्रयोग भी कहीं–कहीं पाए जाते हैं। कात्यायन श्रौतसूत्र पर लिखित व्याख्याओं में भर्तृयज्ञ की व्याख्या सर्वप्राचीन मानी जाती है। अनन्त देव के भाष्य के साथ ही [[स्कन्द पुराण]]<ref>नागरखण्ड, 113–117</ref> में भी भर्तृयज्ञ का उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि वे नागर ब्राह्मण थे। 12वीं शती के 'त्रिकाण्डमण्डन' तथा मनुस्मृति के भाष्यकार मेधातिथि<ref>मनुस्मृति 8.3 पर भाष्य</ref> ने भी इनका उल्लेख किया है। तीसरी प्राचीन व्याख्या कर्काचार्य ने की है, जो सम्पूर्ण सूत्र पर उपलब्ध है। आनन्त देव का भाष्य अभी हस्तलेख के रूप में ही है। आधुनिक काल में पं. विद्याधर गौड़ ने इस पर 'सरलावृत्ति' की रचना की है।
==संस्करण==
==संस्करण==
इसके प्रकाशित संस्करणों का विवरण इस प्रकार है–
इसके प्रकाशित संस्करणों का विवरण इस प्रकार है–
Line 55: Line 55:




{{प्रचार}}
{{लेख प्रगति
|आधार=
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1
|माध्यमिक=
|पूर्णता=
|शोध=
}}
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{श्रौतसूत्र2}}
{{संस्कृत साहित्य}}
{{श्रौतसूत्र}}
{{श्रौतसूत्र}}


[[Category:साहित्य कोश]][[Category:सूत्र ग्रन्थ]]
[[Category:साहित्य कोश]][[Category:सूत्र ग्रन्थ]][[Category:संस्कृत साहित्य]]
__INDEX__
__INDEX__

Latest revision as of 13:59, 6 July 2017

यह यजुर्वेद की वाजसनेयि संहिता की काण्व और माध्यन्दिन दोनों शाखाओं से सम्बद्ध है, किन्तु विनियुक्त मन्त्रों का ग्रहण काण्व शाखा से ही अधिक किया गया है। इसका विभाजन 26 अध्यायों में है। प्रत्येक अध्याय कतिपय कण्डिकाओं में विभक्त है। तीन अध्यायों (22–24) को छोड़कर, जो सामवेदीय ताण्ड्य महाब्राह्मण के अनुरूप हैं, शेष भाग में शतपथ ब्राह्मणोक्त विधियों का प्रायेण अनुगमन है, जो नितरां स्वाभाविक है। शतपथ में भी इसकी काण्वशाखा का अधिक प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है।

विषय वस्तु

अध्याय–क्रम से कात्यायन श्रौतसूत्र में वर्णित विषय–वस्तु का विवरण इस प्रकार है–

प्रश्न विषय
अध्याय 1 परिभाषा;
अध्याय 2-3 दर्शपूर्णमास,
अध्याय 4 पिण्डपितृयज्ञ, दाक्षायणयज्ञ, अन्वारम्भणीयेष्टि, आग्रयणेष्टि, अग्न्याधेय तथा अग्निहोत्र,
अध्याय 5 निरूढ पशुबन्ध,
अध्याय 6-11 अग्निष्टोम,
अध्याय 12 द्वादशाह,
अध्याय 13 गवामयनसत्र,
अध्याय 14 वाजपेय,
अध्याय 15 राजसूय,
अध्याय 16-18 अग्निचयन,
अध्याय 19 कौकिली सौत्रामणी,
अध्याय 20 अश्वमेध,
अध्याय 21 पुरुषमेध, सर्वमेध, पितृमेध,
अध्याय 22 एकाह,
अध्याय 23-24 अहीन,
अध्याय 25 प्रायश्चित्त,
अध्याय 26 प्रवर्ग्य।

जातूकर्ण्य, वात्स्य तथा बादरि आचार्यों का इसमें नाम्ना उल्लेख है। अन्य शाखान्तरीय अथवा स्वशाखीय मतों का उल्लेख 'इत्येके' अथवा 'इत्येकेषाम्' कहकर किया गया है। जैमिनि के पूर्वमीमांसा सूत्रों का इस पर बहुत अधिक प्रभाव है। पूर्वमीमांसागत श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या; इन छ: प्रमाणों का भी इसमें उल्लेख है। क्रम, तन्त्र, अतिदेश प्रभृति मीमांसा की पारिभाषिक शब्दावली का बहुधा प्रयोग देखा जा सकता है।

अश्वमेध

सूत्रकार का मुख्य उद्देश्य कर्म के व्यावहारिक स्वरूप का यथातथ्य प्रतिपादन करना है, इसलिए शतपथ ब्राह्मण के दशम काण्ड (अग्नि रहस्य) से गृहीत सामग्री कात्यायन श्रौतसूत्र में नहीं दिखलाई देती, क्योंकि उसमें रहस्यमय पक्ष पर अधिक बल है। सौत्रामणी और अश्वमेध के निरूपण में सूत्रकार ने शतपथोक्त क्रमों से भिन्न पद स्वीकार किए हैं। एकाह और अहीन यागों का विवरण ताण्ड्यानुसार अधिक है। अश्वमेध की दक्षिणा में यजमान राजा के द्वारा ऋत्विजों के निमित्त विभिन्न रानियों के दान का भी विधान है। विकल्प में रानियों की अनुचरियाँ भी दी जा सकती हैं।

रचना

कात्यायन श्रौतसूत्र की कुछ सामग्री का सादृश्य बौधायन श्रौतसूत्र से भी है। परम्परा कात्यायन श्रौतसूत्र के प्रणयन का श्रेय कात्यायन को देती है। यह वे ही कात्यायन हैं, जिन्होंने पाणिनीय सूत्रों पर वार्तिकों की तथा वाजसनेयि प्रातिशाख्य की रचना की है। इनका समय ई. पूर्व तीसरी शती से पूर्व होना चाहिए। कात्यायन श्रौतसूत्र की रचना अत्यन्त सुव्यवस्थित सूत्रशैली में हुई है। विषय विवेचन क्रमयुक्त और सुसम्बद्ध है। वैदिक शब्दावली और अपाणिनीय प्रयोग भी कहीं–कहीं पाए जाते हैं। कात्यायन श्रौतसूत्र पर लिखित व्याख्याओं में भर्तृयज्ञ की व्याख्या सर्वप्राचीन मानी जाती है। अनन्त देव के भाष्य के साथ ही स्कन्द पुराण[1] में भी भर्तृयज्ञ का उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि वे नागर ब्राह्मण थे। 12वीं शती के 'त्रिकाण्डमण्डन' तथा मनुस्मृति के भाष्यकार मेधातिथि[2] ने भी इनका उल्लेख किया है। तीसरी प्राचीन व्याख्या कर्काचार्य ने की है, जो सम्पूर्ण सूत्र पर उपलब्ध है। आनन्त देव का भाष्य अभी हस्तलेख के रूप में ही है। आधुनिक काल में पं. विद्याधर गौड़ ने इस पर 'सरलावृत्ति' की रचना की है।

संस्करण

इसके प्रकाशित संस्करणों का विवरण इस प्रकार है–

  • वेबर के द्वारा संपादित तथा कर्क–भाष्य एवं देवयाज्ञिक पद्धति के अंशों सहित संस्करण बर्लिन से 1859 ई. में प्रकाशित है, जिसका पुनर्मुद्रण 1972 में वाराणसी से हुआ।
  • कर्क–भाष्य सहित वी. पी. मदन मोहन पाठक के द्वारा संपादित रूप में वाराणसी से 1903 से 1908 के मध्य प्रकाशित।
  • वी. शर्मा के द्वारा संपादित संस्करण 1931–33 के मध्य प्रकाशित।
  • विद्याधर गौड़ की ‘सरलावृत्ति’ अच्युत ग्रन्थमाला वाराणसी से सं. 1987 वि. में प्रकाशित।
  • डॉ. के. पी. सिंह ने कात्यायन श्रौतसूत्र का आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह भी वाराणसी से प्रकाशित है।



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नागरखण्ड, 113–117
  2. मनुस्मृति 8.3 पर भाष्य

संबंधित लेख

श्रुतियाँ