वीरधन्वा: Difference between revisions
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'''वीरधन्वा''' [[महाभारत]] के अनुसार [[त्रिगर्त|त्रिगर्त देश]] का निवासी एक वीर योद्धा था, जिसने महाभारत युद्ध में [[कौरव सेना]] का पक्ष लिया था। महारथी [[ | '''वीरधन्वा''' [[महाभारत]] के अनुसार [[त्रिगर्त|त्रिगर्त देश]] का निवासी एक वीर योद्धा था, जिसने महाभारत युद्ध में [[कौरव सेना]] का पक्ष लिया था। महारथी [[धृष्टकेतु (शिशुपाल पुत्र)|चेदिराज धृष्टकेतु]] द्वारा इनका वध हुआ। | ||
*रणक्षेत्र में [[क्षेमधूर्ति]] का वध करके प्रसन्न हुए महारथी बृहत्क्षत्र जिस प्रकार [[युधिष्ठिर]] के हित के लिये कौरव सेना का संहार कर रहे थे, ठीक उसी प्रकार [[द्रोणाचार्य]] के हित के लिये महाधनुर्धर पराक्रमी वीरधन्वा ने आते हुए धृष्टकेतु को रोका। | *रणक्षेत्र में [[क्षेमधूर्ति]] का वध करके प्रसन्न हुए महारथी बृहत्क्षत्र जिस प्रकार [[युधिष्ठिर]] के हित के लिये कौरव सेना का संहार कर रहे थे, ठीक उसी प्रकार [[द्रोणाचार्य]] के हित के लिये महाधनुर्धर पराक्रमी वीरधन्वा ने आते हुए धृष्टकेतु को रोका। | ||
*वीरधन्वा और धृष्टकेतु परस्पर भिड़कर अनेक सहस्त्र बाणों द्वारा एक-दूसरे को चोट पहुंचाने लगे। | *वीरधन्वा और धृष्टकेतु परस्पर भिड़कर अनेक सहस्त्र बाणों द्वारा एक-दूसरे को चोट पहुंचाने लगे। महान् वन में तीव्र मद वाले दो यूथपति गजराजों के समान वे दोनों पुरुष सिंह परस्पर युद्ध करने लगे। | ||
*वे दोनों ही | *वे दोनों ही महान् पराक्रमी थे और एक-दूसरे को मार डालने की इच्छा से रोष में भरकर पर्वत की गुफा में पहुंचकर लड़ने वाले दो सिंहों के समान आपस में जुझ रहे थे। उनका वह घमासान युद्ध देखने ही योग्य था। वह सिद्धों और चारण समुहों को भी आश्रर्यजनक एवं अद्भुत दिखायी देता था।<ref>[[महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-22]]</ref> | ||
*तत्पश्रात् वीरधन्वा ने कुपित होकर हंसते हुए से ही एक भल्ल द्वारा धृष्टकेतु के धनुष के टुकड़े कर दिये। | *तत्पश्रात् वीरधन्वा ने कुपित होकर हंसते हुए से ही एक भल्ल द्वारा धृष्टकेतु के धनुष के टुकड़े कर दिये। | ||
*महारथी [[ | *महारथी [[धृष्टकेतु (शिशुपाल पुत्र)|चेदिराज धृष्टकेतु]] ने उस कटे हुए धनुष को फेंक कर एक लोहे की बनी हुई स्वर्ण दण्ड विभूषित विशाल शक्ति हाथ में ले ली। | ||
*उस अत्यनत प्रबल शक्ति को दोनों हाथों से उठाकर यत्नशील धृष्टकेतु ने सहसा वीरधन्वा के रथ पर उसे दे मारा। उस वीरघातिनी शक्ति की गहरी चोट खाकर वीरधन्वा का वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गया और वह तुरंत ही रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। | *उस अत्यनत प्रबल शक्ति को दोनों हाथों से उठाकर यत्नशील धृष्टकेतु ने सहसा वीरधन्वा के रथ पर उसे दे मारा। उस वीरघातिनी शक्ति की गहरी चोट खाकर वीरधन्वा का वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गया और वह तुरंत ही रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। | ||
*त्रिगर्त देश के महारथी वीरधन्वा के मारे जाने पर [[पांडव सेना]] ने चारों ओर से [[कौरव सेना]] को घेर लिया। | *त्रिगर्त देश के महारथी वीरधन्वा के मारे जाने पर [[पांडव सेना]] ने चारों ओर से [[कौरव सेना]] को घेर लिया। |
Latest revision as of 11:00, 1 August 2017
वीरधन्वा महाभारत के अनुसार त्रिगर्त देश का निवासी एक वीर योद्धा था, जिसने महाभारत युद्ध में कौरव सेना का पक्ष लिया था। महारथी चेदिराज धृष्टकेतु द्वारा इनका वध हुआ।
- रणक्षेत्र में क्षेमधूर्ति का वध करके प्रसन्न हुए महारथी बृहत्क्षत्र जिस प्रकार युधिष्ठिर के हित के लिये कौरव सेना का संहार कर रहे थे, ठीक उसी प्रकार द्रोणाचार्य के हित के लिये महाधनुर्धर पराक्रमी वीरधन्वा ने आते हुए धृष्टकेतु को रोका।
- वीरधन्वा और धृष्टकेतु परस्पर भिड़कर अनेक सहस्त्र बाणों द्वारा एक-दूसरे को चोट पहुंचाने लगे। महान् वन में तीव्र मद वाले दो यूथपति गजराजों के समान वे दोनों पुरुष सिंह परस्पर युद्ध करने लगे।
- वे दोनों ही महान् पराक्रमी थे और एक-दूसरे को मार डालने की इच्छा से रोष में भरकर पर्वत की गुफा में पहुंचकर लड़ने वाले दो सिंहों के समान आपस में जुझ रहे थे। उनका वह घमासान युद्ध देखने ही योग्य था। वह सिद्धों और चारण समुहों को भी आश्रर्यजनक एवं अद्भुत दिखायी देता था।[1]
- तत्पश्रात् वीरधन्वा ने कुपित होकर हंसते हुए से ही एक भल्ल द्वारा धृष्टकेतु के धनुष के टुकड़े कर दिये।
- महारथी चेदिराज धृष्टकेतु ने उस कटे हुए धनुष को फेंक कर एक लोहे की बनी हुई स्वर्ण दण्ड विभूषित विशाल शक्ति हाथ में ले ली।
- उस अत्यनत प्रबल शक्ति को दोनों हाथों से उठाकर यत्नशील धृष्टकेतु ने सहसा वीरधन्वा के रथ पर उसे दे मारा। उस वीरघातिनी शक्ति की गहरी चोट खाकर वीरधन्वा का वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गया और वह तुरंत ही रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।
- त्रिगर्त देश के महारथी वीरधन्वा के मारे जाने पर पांडव सेना ने चारों ओर से कौरव सेना को घेर लिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस. पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 100 |
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