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तत्रापरा ॠग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽर्थ वेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोज्योतिषमिति। अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते॥'<ref>मुंडकोपनिषद, 1।1।4-5</ref>
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'अर्थात मनुष्य को जानने योग्य दो विद्याएं हैं-परा  और अपरा। उनमें चारों वेदों के शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष- ये सब 'अपरा' विद्या हैं तथा जिससे वह अविनाशी परब्रह्म तत्त्व से जाना जाता है, वही 'परा' विद्या है।'
'अर्थात मनुष्य को जानने योग्य दो विद्याएं हैं-परा  और [[अपरा विद्या|अपरा]]। उनमें चारों वेदों के शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष- ये सब 'अपरा' विद्या हैं तथा जिससे वह अविनाशी परब्रह्म तत्त्व से जाना जाता है, वही 'परा' विद्या है।'
*इन छ: को इस प्रकार बताया गया है- ज्योतिष वेद के दो नेत्र हैं, निरुक्त 'कान' है, शिक्षा 'नाक', व्याकरण 'मुख' तथा कल्प 'दोनों हाथ' और छन्द 'दोनों पांव' हैं-
*इन छ: को इस प्रकार बताया गया है- ज्योतिष वेद के दो नेत्र हैं, निरुक्त 'कान' है, शिक्षा 'नाक', व्याकरण 'मुख' तथा कल्प 'दोनों हाथ' और छन्द 'दोनों पांव' हैं-
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<poem>'कल्पौ वेद विहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्।'</poem>
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'अर्थात् 'कल्प' वेद प्रतिपादित कर्मों का भली-प्रकार विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। कल्प में यज्ञों की विधियों का वर्णन होता है।'
'अर्थात् 'कल्प' वेद प्रतिपादित कर्मों का भली-प्रकार विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। कल्प में यज्ञों की विधियों का वर्णन होता है।'
*ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन [[संस्कार]] एवं यज्ञों के लिए मुहूर्त निर्धारण करना है एवं यज्ञस्थली, मंडप आदि का नाम बतलाना है। इस समय लगधाचार्य के वेदांग ज्योतिष के अतिरिक्त सामान्य ज्योतिष के अनेक  ग्रन्थ है। [[नारद]], [[पराशर]], [[वसिष्ठ]] आदि ॠषियों के ग्रन्थों के अतिरिक्त वाराहमिहिर, आर्यभट्ट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रन्थ प्रख्यात हैं। पुरातन काल में ज्योतिष ग्रन्थ चारों वेदों के अलग-अलग थे-आर्ष ज्योतिष (ॠग्वेद), याजुष ज्योतिष (यजुर्वेद) और आथर्वण ज्योतिष (अथर्ववेद)।
*ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन [[संस्कार]] एवं यज्ञों के लिए मुहूर्त निर्धारण करना है एवं यज्ञस्थली, मंडप आदि का नाम बतलाना है। इस समय लगधाचार्य के वेदांग ज्योतिष के अतिरिक्त सामान्य ज्योतिष के अनेक  ग्रन्थ है। [[नारद]], [[पराशर]], [[वसिष्ठ]] आदि ॠषियों के ग्रन्थों के अतिरिक्त वाराहमिहिर, आर्यभट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रन्थ प्रख्यात हैं। पुरातन काल में ज्योतिष ग्रन्थ चारों वेदों के अलग-अलग थे-आर्ष ज्योतिष (ॠग्वेद), याजुष ज्योतिष (यजुर्वेद) और आथर्वण ज्योतिष (अथर्ववेद)।
{{संदर्भ ग्रंथ}}
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

Latest revision as of 08:34, 15 March 2018

  • वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
  1. शिक्षा - वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बंधी प्राचीनतम साहित्य 'प्रातिशाख्य' है।
  2. कल्प - वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किए गये विधि नियमों का प्रतिपादन 'कल्पसूत्र' में किया गया है।
  3. व्याकरण - इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
  4. निरूक्त - शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र 'निरूक्त' कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने 'निरूक्त' की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
  5. छन्द - वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्ध है।
  6. ज्योतिष - इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम आचार्य 'लगध मुनि' है।
  • वेद पुरुष के 6 अंग माने गये हैं- कल्प, शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त तथा ज्योतिष। मुण्डकोपनिषद में आता है-

'तस्मै स हो वाच। द्वै विद्ये वेदितब्ये इति ह स्म यद्ब्रह्म विद्यौ वदंति परा चैवोपरा च॥
तत्रापरा ॠग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽर्थ वेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोज्योतिषमिति। अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते॥'[1]

'अर्थात मनुष्य को जानने योग्य दो विद्याएं हैं-परा और अपरा। उनमें चारों वेदों के शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष- ये सब 'अपरा' विद्या हैं तथा जिससे वह अविनाशी परब्रह्म तत्त्व से जाना जाता है, वही 'परा' विद्या है।'

  • इन छ: को इस प्रकार बताया गया है- ज्योतिष वेद के दो नेत्र हैं, निरुक्त 'कान' है, शिक्षा 'नाक', व्याकरण 'मुख' तथा कल्प 'दोनों हाथ' और छन्द 'दोनों पांव' हैं-

शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते मुखं व्याकरणं स्मृतम्।
निरुक्त श्रौतमुच्यते, छन्द: पादौतु वेदस्य ज्योतिषामयनं चक्षु:॥

  • वैदिकमन्त्रों के स्वर, अक्षर, मात्रा एवं उच्चारण की विवेचना 'शिक्षा' से होती है। शिक्षाग्रन्थ जो उपलब्ध हैं-पाणिनीय शिक्षा (ॠग्वेद), व्यास शिक्षा (कृष्ण यजुर्वेद), याज्ञवल्क्य आदि 25 शिक्षाग्रन्थ (शुक्ल यजुर्वेद), गौतमी, नारदीय, लोमशी शिक्षा (सामवेद) तथा माण्डूकी शिक्षा (अथर्ववेद)।
  • भाषा नियमों का स्थिरीकरण 'व्याकरण' का कार्य है। शाकटायन व्याकरण सूत्र तथा पाणिनीय व्याकरण यजुर्वेद से सम्बद्ध माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त सारस्वत व्याकरण, प्राकृत प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कामधेनु व्याकरण, हेमचन्द्र व्याकरण आदि अनेक व्याकरण शास्त्र के ग्रन्थ भी हैं। सभी पर अनेक भाष्य एवं टीकाएं लिखी गयी हैं। अनेक व्याकरण-ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं।
  • वेदों की व्याख्या पद्धति बताना 'निरुक्त' का कार्य है। इसके अनेक ग्रन्थ लुप्त हैं। निरुक्त को वेदों का विश्वकोश कहा गया है। अब यास्क का निरुक्त ग्रन्थ उपलब्ध है, जिस पर अनेक भाष्य रचनाएं हुई हैं।
  • 'छन्द' के कुछ ग्रन्थ ही मिलते हैं, जिसमें वैदिक छन्दों पर गार्ग्यप्रोक्त उपनिदान-सूत्र (सामवेदीय), पिंगल नाग प्रोक्त छन्द: सूत्र (छन्दोविचित) वेंकट माधव क्ड़ड़त छन्दोऽनुक्रमणी, जयदेव कृत छन्दसूत्र के अतिरिक्त लौकिक छन्दों पर छन्दशास्त्र (हलायुध वृत्ति), छन्दोमञ्जरी, वृत्त रत्नाकर, श्रुतबोध आदि हैं।
  • जब ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञ-यागादि की कर्मकांडीय व्याख्या में व्यवहारगत कठिनाइयाँ आईं, तब कल्पसूत्रों की 'प्रतिशाखा' में रचना हुई। ऋग्वेद के प्रातिशाख्य वर्गद्वय वृत्ति में कहा गया है-

'कल्पौ वेद विहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्।'

'अर्थात् 'कल्प' वेद प्रतिपादित कर्मों का भली-प्रकार विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। कल्प में यज्ञों की विधियों का वर्णन होता है।'

  • ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन संस्कार एवं यज्ञों के लिए मुहूर्त निर्धारण करना है एवं यज्ञस्थली, मंडप आदि का नाम बतलाना है। इस समय लगधाचार्य के वेदांग ज्योतिष के अतिरिक्त सामान्य ज्योतिष के अनेक ग्रन्थ है। नारद, पराशर, वसिष्ठ आदि ॠषियों के ग्रन्थों के अतिरिक्त वाराहमिहिर, आर्यभट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रन्थ प्रख्यात हैं। पुरातन काल में ज्योतिष ग्रन्थ चारों वेदों के अलग-अलग थे-आर्ष ज्योतिष (ॠग्वेद), याजुष ज्योतिष (यजुर्वेद) और आथर्वण ज्योतिष (अथर्ववेद)।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मुंडकोपनिषद, 1।1।4-5

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