शांखायन आरण्यक: Difference between revisions

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*15वें अध्याय में आचार्यों की वंश–परम्परा दी गई है। तदनुसार स्वयंभू [[ब्रह्मा]], [[प्रजापति]], [[इन्द्र]], [[विश्वामित्र]], देवरात, साकभश्व, व्यश्व, विश्वमना, उद्दालक, सुम्नयु, बृहद्दिवा, प्रतिवेश्श, प्रातिवेश्श, सोम, सोमपा, सोमापि, प्रियव्रत, उद्दालक आरुणि, कहोल कौषीतकि और अन्तिम आचार्य गुणाख्य शांखायन का उल्लेख है। शांखायन–आरण्यक की नाम–परम्परा शांखायन इन्हीं गुणाख्य शांखायन से प्रवर्तित हुई।  
*15वें अध्याय में आचार्यों की वंश–परम्परा दी गई है। तदनुसार स्वयंभू [[ब्रह्मा]], [[प्रजापति]], [[इन्द्र]], [[विश्वामित्र]], देवरात, साकभश्व, व्यश्व, विश्वमना, उद्दालक, सुम्नयु, बृहद्दिवा, प्रतिवेश्श, प्रातिवेश्श, सोम, सोमपा, सोमापि, प्रियव्रत, उद्दालक आरुणि, कहोल कौषीतकि और अन्तिम आचार्य गुणाख्य शांखायन का उल्लेख है। शांखायन–आरण्यक की नाम–परम्परा शांखायन इन्हीं गुणाख्य शांखायन से प्रवर्तित हुई।  


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Revision as of 13:06, 10 January 2011

शांखायन आराण्यक में पन्द्रह अध्याय हैं।

  • प्रथम दो अध्यायों में ऐतरेय आरण्यक के सदृश महाव्रत का विवेचन है।
  • इसके तृतीय से लेकर षष्ठपर्यन्त अध्याय कौषीतकि उपनिषद् कहलाते हैं।
  • सप्तम और अष्टम अध्याय संहितोपनिषद् के रूप में प्रसिद्ध हैं।
  • नवमाध्याय में प्राण की श्रेष्ठता का वर्णन है।
  • दशम अध्याय में आन्तर आध्यात्मिक अग्निहोत्र का विशद तथा सर्वाङ्गीण निरूपण है। इस सन्दर्भ में कहा गया है कि सभी देवता पुरुष में प्रतिष्ठित हैं। वाणी में अग्नि, प्राण में वायु, नेत्रों में आदित्य, मन में चन्द्रमा, श्रवण में दिशाएँ तथा वीर्य में जल। जो इसे जानकर स्वयं खाता–पीता तथा खिलाता–पिलाता है, उससे सभी देवों के निमित्त आहुतियाँ पहुँच जाती हैं।[1]
  • 11वें अध्याय में मृत्यु के निराकरण के लिए एक विशिष्ट याग विहित है। इसी अध्याय में स्वप्नों के फल उल्लिखित हैं। अनिष्ट–निवारण के लिए होमरूप शान्तिकर्म विहित है।
  • 12वें अध्याय में पूर्ववत आशीर्वाद की प्रार्थना तथा फल–कथन है। समृद्धीशाली व्यक्ति के लिए बिल्व के फल से एक मणि बनाने की प्रक्रिया दी गई है।
  • 13वें अध्याय में बतलाया गया है कि व्यक्ति पहले विरक्त होकर अपने शरीर को अभ्यास करे। इस संक्षिप्त अध्याय में तपस्या, श्रद्धा, शान्ति और दमनादि उपायों के अवलम्बन का निर्देश है। अन्त में उसे 'यदयमात्मा स एष तत्त्वमसीत्यात्माऽवगम्योऽहं ब्रह्मास्मि' रूप में अनुभूति करनी चाहिए।
  • 14वें अध्याय में केवल दो मन्त्र हैं–
    • प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि उपर्युक्त 'अहं ब्रह्मास्मि' वाक्य ऋचाओं का मूर्धा है, यजुषों का उत्तमाङ्ग है, सामों का शिर है, और आथर्वणमन्त्रों का मुण्ड है। इसे समझे बिना जो वेदाध्ययन करता है, वह मूर्ख है। वह वास्तव में वेद का शिरश्छेदन कर उसे धड़ भर बना देता है।
    • दूसरा वह सुप्रसिद्ध मन्त्र इस अध्याय में है, जिसके अनुसार अर्थ–ज्ञान के बिना वेदपाठ करने वाला व्यक्ति ठूँठ के समान है। इसके विपरीत अर्थज्ञ व्यक्ति सम्पूर्ण कल्याण की प्राप्ति करते हुए अन्त में स्वर्ग लाभ को प्राप्त कर लेता है–

'स्थाणुरथं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं विजानाति योऽर्थम्।
योऽर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।।'

  • 15वें अध्याय में आचार्यों की वंश–परम्परा दी गई है। तदनुसार स्वयंभू ब्रह्मा, प्रजापति, इन्द्र, विश्वामित्र, देवरात, साकभश्व, व्यश्व, विश्वमना, उद्दालक, सुम्नयु, बृहद्दिवा, प्रतिवेश्श, प्रातिवेश्श, सोम, सोमपा, सोमापि, प्रियव्रत, उद्दालक आरुणि, कहोल कौषीतकि और अन्तिम आचार्य गुणाख्य शांखायन का उल्लेख है। शांखायन–आरण्यक की नाम–परम्परा शांखायन इन्हीं गुणाख्य शांखायन से प्रवर्तित हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शांखायन आराण्यक 10.1

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