श्रीपति (कवि): Difference between revisions
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- श्रीपति कालपी के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।
- इन्होंने संवत 1777 में 'काव्यसरोज' नामक रीति ग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं -
- कविकल्पद्रुम,
- रससागर,
- अनुप्रासविनोद,
- विक्रमविलास,
- सरोज कलिका,
- अलंकारगंगा।
- श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण किया है।
- दोषों का विचार अधिक विस्तार के साथ किया है और दोषों के उदाहरणों में केशवदास के बहुत से पद्य रखे हैं। इससे इनका साहित्यिक विषयों का ज्ञान पता चलता है। *'काव्यसरोज' बहुत ही प्रौढ़ ग्रंथ है। काव्यांगों का निरूपण जिस स्पष्टता के साथ इन्होंने किया है उससे इनकी स्वच्छ बुद्धि का परिचय मिलता है। यदि उस काल में गद्य व्याख्या की रीति होती तो श्रीपति आचार्यत्व और भी अधिक पूर्णता के साथ प्रदर्शित कर सकते थे।
- आचार्यत्व के अतिरिक्त कवित्व भी इनमें ऊँची कोटि का था। रचना विवेक इनमें बहुत ही जागृत और रुचि अत्यंत परिमार्जित थी। झूठे शब्दाडंबर में ये बहुत कम पड़े हैं। अनुप्रास इनकी रचनाओं में बराबर आए हैं, पर उससे अर्थ या भावव्यंजना में बाधा नहीं पडती है। अधिकतर अनुप्रास रसानुकूल वर्णविन्यास के रूप में आकर भाषा में कहीं ओज, कहीं माधुर्य घटित करते मिलते हैं।
- पावस ऋतु का तो इन्होंने बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है। इनकी रचना के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -
जल भरे झूमैं मानौ भूमै परसत आय,
दसहु दिसान घूमैं दामिनि लए लए।
धूरिधार धूमरे से, धूम से धुंधारे कारे,
धुरवान धारे धावैं छवि सों छए छए
श्रीपति सुकवि कहै घेरि घेरि घहराहिं,
तकत अतन तन ताव तें तए तए।
लाल बिनु कैसे लाजचादर रहैगी आज,
कादर करत मोहिं बादर नये नये
सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ,
नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।
श्रीपति सुकवि जहाँ ओज ना सरोजन की,
फूल न फुलत जाहि चित दै चहा करै
बकन की बानी की बिराजति है राजधानी,
काई सों कलित पानी फेरत हहा करे।
घोंघन के जाल, जामें नरई सेवाल ब्याल,
ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै?
घूँघट उदयगिरिवर तैं निकसि रूप
सुधा सो कलित छवि कीरति बगारो है।
हरिन डिठौना स्याम सुख सील बरषत,
करषत सोक, अति तिमिर बिदारो है
श्रीपति बिलोकि सौति बारिज मलिन होत,
हरषि कुमुद फूलै नंद को दुलारो है।
रंजन मदन, तन गंजन बिरह, बिबि,
खंजन सहित चंदबदन तिहारो है
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