कठरुद्रोपनिषद: Difference between revisions
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*जो जगत को प्रकाश देने वाला है, नित्य प्रकाश स्वरूप हे, वह समस्त जगत का साक्षी, निर्मल आकृति वाला सभी का 'आत्मा' है। वह ज्ञान और सत्य-रूप में अद्वितीय 'परब्रह्म' है। वही सबका आश्रय-स्थल है। वह सबका सार रस-स्वरूप है। जो इस अद्वैत-रूप' 'ब्रह्म' को प्राप्त करने की साधना करता है, वही 'संन्यासी' है। | *जो जगत को प्रकाश देने वाला है, नित्य प्रकाश स्वरूप हे, वह समस्त जगत का साक्षी, निर्मल आकृति वाला सभी का 'आत्मा' है। वह ज्ञान और सत्य-रूप में अद्वितीय 'परब्रह्म' है। वही सबका आश्रय-स्थल है। वह सबका सार रस-स्वरूप है। जो इस अद्वैत-रूप' 'ब्रह्म' को प्राप्त करने की साधना करता है, वही 'संन्यासी' है। | ||
*बुद्धिमान पुरुष अपने आपको 'मैं सब उपाधियों से मुक्त हूं' ऐसा मानकर मुक्तावस्था का सतत चिन्तन करते हैं। यही [[वेदान्त]] का रहस्य है। जीव अपने कर्मों से ही उत्पन्न होता है और स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त होता है। | *बुद्धिमान पुरुष अपने आपको 'मैं सब उपाधियों से मुक्त हूं' ऐसा मानकर मुक्तावस्था का सतत चिन्तन करते हैं। यही [[वेदान्त]] का रहस्य है। जीव अपने कर्मों से ही उत्पन्न होता है और स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त होता है। | ||
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Revision as of 09:32, 14 June 2011
- कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के इस उपनिषद में देवताओं द्वारा भगवान प्रजापति से 'ब्रह्मविद्या' जानने की जिज्ञासा की गयी है। प्रारम्भ में संन्यास ग्रहण करने की विधि बतायी गयी है। संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त विविध अनुशासनों का वर्णन है। उसके बाद 'ब्रह्म' और 'माया' का वर्णन है। अन्त में वेदान्त का सार बताया गया है।
- प्रजापति देवताओं को बताते हैं कि संन्यास ग्रहण करने वाले साधक को मुण्डन कराके व अपने परिवार से अनुमति लेकर ही संन्यास मार्ग ग्रहण करना चाहिए। उसे सभी प्रकार के अलंकरणों का त्याग कर देना चाहिए। समस्त प्राणियों के कल्याण हेतु ही आत्मतत्त्व का चिन्तन करना चाहिए। उसे समस्त आलस्य प्रमाद आदि का त्याग करके संयमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
- जो जगत को प्रकाश देने वाला है, नित्य प्रकाश स्वरूप हे, वह समस्त जगत का साक्षी, निर्मल आकृति वाला सभी का 'आत्मा' है। वह ज्ञान और सत्य-रूप में अद्वितीय 'परब्रह्म' है। वही सबका आश्रय-स्थल है। वह सबका सार रस-स्वरूप है। जो इस अद्वैत-रूप' 'ब्रह्म' को प्राप्त करने की साधना करता है, वही 'संन्यासी' है।
- बुद्धिमान पुरुष अपने आपको 'मैं सब उपाधियों से मुक्त हूं' ऐसा मानकर मुक्तावस्था का सतत चिन्तन करते हैं। यही वेदान्त का रहस्य है। जीव अपने कर्मों से ही उत्पन्न होता है और स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त होता है।
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