गिरधर की कुंडलियाँ: Difference between revisions
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[[गिरधर कविराय]] का कविता काल संवत् 1800 के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की | [[गिरधर कविराय]] का कविता काल संवत् 1800 के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की कुंडलियाँ घर घर में प्रसिद्ध हैं। अनपढ़ लोग भी दो-चार चरण जानते हैं। इस सर्वप्रियता का कारण है बिल्कुल सीधी सादी [[भाषा]] में तथ्याभाव का कथन। | ||
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दौलत पाइ न कीजिए सपने में अभिमान... | दौलत पाइ न कीजिए सपने में अभिमान... | ||
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बिन गुन लहै न कोय, सहस नर ग्राहक गुन के। | बिन गुन लहै न कोय, सहस नर ग्राहक गुन के। | ||
बिना विचारे जो करे सो पाछे | बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय... | ||
बिना विचारे जो करे सो पाछे | बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय | ||
काम बिगारे अपनों जग में होत हंसाय | काम बिगारे अपनों जग में होत हंसाय | ||
जग में होत हंसाय चित्त में चैन न पावै | जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै | ||
खान पान, सम्मान, राग-रंग कछु मनहिं न भावै। | खान पान, सम्मान, राग-रंग कछु मनहिं न भावै। | ||
कह गिरधर कविराय दु:ख कछु | कह गिरधर कविराय दु:ख कछु टारहिं न टारे | ||
खटकत है जिय माहिं कियो जो बिना विचारे। | खटकत है जिय माहिं कियो जो बिना विचारे। | ||
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रहिये लट पट काटि दिन | रहिये लट पट काटि दिन | ||
बरू | बरू घाम में सोय... | ||
रहिये लट पट काटि दन बरू | रहिये लट पट काटि दन बरू घाम में सोय | ||
छांह ना वा की बैठिये जो तरु पतरो होय | छांह ना वा की बैठिये जो तरु पतरो होय | ||
जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा देहैं | जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा देहैं |
Revision as of 12:22, 4 September 2012
गिरधर कविराय का कविता काल संवत् 1800 के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की कुंडलियाँ घर घर में प्रसिद्ध हैं। अनपढ़ लोग भी दो-चार चरण जानते हैं। इस सर्वप्रियता का कारण है बिल्कुल सीधी सादी भाषा में तथ्याभाव का कथन।
दौलत पाइ न कीजिए सपने में अभिमान...
दौलत पाइ न कीजिए सपने में अभिमान
चंचल जल दिन चार को ठांव न रहत निदान
ठांव न रहत निदान जियत जग में जस लीजै
मीठ वचन सुनाय विनय सब ही की कीजै
कह गिरधर कविराय अरे यह सब घट तौलत
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।
साईं अवसर के परे को न सहे दु:ख-द्वन्द्व...
साईं अवसर के परे को न सहे दु:ख-द्वन्द्व...
जाय बिकाने डोम घर वै राजा हरिचंद।
वै राजा हरिचंद करे मरघट रखवारी
धरें तपस्वी वेश, फिरे अर्जुन बलधारी
कहा गिरधर कविराय तपै वह भीम रसोई
कौ न करे घटि काम, परे अवसर के साईं
गुन के गाहक सहस नर...
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय
जैसे कागा, कोकिला सबद सुने सब कोय
सबद सुने सब कोय कोकिला सबै सुहावन
दौ को इक रंग काग सब गने अपावन
कह गिरधर कविराय सुनो हो ठाकुर मनके
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर ग्राहक गुन के।
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय...
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय
काम बिगारे अपनों जग में होत हंसाय
जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै
खान पान, सम्मान, राग-रंग कछु मनहिं न भावै।
कह गिरधर कविराय दु:ख कछु टारहिं न टारे
खटकत है जिय माहिं कियो जो बिना विचारे।
साईं बैर न कीजिए गुरु, पंडित, कवि, यार...
साईं बैर न कीजिए गुरु, पंडित, कवि, यार
बेटा, बनिता, पैरिया, यग्य करावन हार
यग्य करावन हार, राज मंत्री जो होई
विप्र, परोसी, वैद आपकी तपै रसोई।
कह गिरधर कविराय युगन तें यह चलि आई
इन तेरह सों तरह दिए बनि आवै साईं।
चिंता ज्वाल शरीर बन दावा
लगि-लगि जाय...
चिंता ज्वाल शरीर बन दावा लगि-लगि जाय
प्रगट धुआं नहिं देखियत उर अंतर धुंधवाय
उर अंतर धुंधवाय, जरै जस कांच की भट्टी
रक्त, मांस जरि जाय रहे पंजर की ठट्ठी
कह गिरधर कविराय सुनो रे मेरे मिंता
ते नर कैसे जियें जाहि व्यापी है चिंता
बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेउ...
बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेउ
जो बनि आवै सहज ही, ताही में चित्त देइ
ताही में चित्त देइ, बात जोई बनि आवै
दुर्जन हंसे न कोय, चित्त में खता न पावै
कह गिरधर कविराय करो यह मन परतीती
आगे की सुख समुझि, होई बीती सो बीती।
साईं अपने चित्त की भूल न
कहिए कोय...
साईं अपने चित्त की भूल न कहिए कोय
तब लगि घट में राखिये जब लगि कारज होय
जब लगि कारज होय, भूल किससे नहिं कहिये
दुर्जन हंसे न कोय, आप सियरे व्है रहिये
कह गिरधर कविराय बात चतुरन के ताई
करतूती कहि देत, आप कहिये नहिं साईं।
पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम...
पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम
दोनों हाथ उलीचिये यही सयानी काम
यही सयानी काम, राम को सुमिरन कीजै
परमारथ के काज सीस आगे धरि दीजै
कह गिरधर कविराय बड़ेन की याही बानी
चलिये चाल सुचाल राखिये अपनी पानी
रहिये लट पट काटि दिन
बरू घाम में सोय...
रहिये लट पट काटि दन बरू घाम में सोय
छांह ना वा की बैठिये जो तरु पतरो होय
जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा देहैं
जा दिन बहै बयारि टूट जरि से जैहैं
कह गिरधर कविराय छांह मोटे की गहिये
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिये।
साईं इस संसार में, मतलब को व्यवहार...
साईं इस संसार में, मतलब को व्यवहार
जब लगि पैसा गांठ में तब लगि ताको यार
तब लगि ताको यार, यार संगहि संग डोलें
पैसा रहा न पास, यार सुख सों नहिं बोले
कह गिरधर कविराय जगत यहि लेखा भाई
करत बेगर्जी प्रीति यार बिरला कोई साईं।
लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग...
लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग
गहरे नद-नाले जहां, तहां बचावे अंग
तहां बचावे अंग, झपट कुत्ता कू मारै
दुश्मन दावागीर होए तिन्हूं को झारै
कह गिरधर कविराय सुनो ओ मेरे पाठी
सब हथियारन छांड़, हाथ में लीजै लाठी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ