विनोबा भावे: Difference between revisions

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विनोवा जी के शरीर त्यागने के उपरांत [[पवनार आश्रम]] के सभी वरिष्ठ सहयोगियों ने उन्हे संयुक्त रूप से [[मुखाग्नि]] दी जिसमें बहनें भी सम्मिलित थीं।
विनोवा जी के शरीर त्यागने के उपरांत [[पवनार आश्रम]] के सभी बहनों ने
उन्हे संयुक्त रूप से [[मुखाग्नि]] दी।
इतिहास में इस तरह की मृत्यु के उदाहरण गिने चुने ही मिलते है। इस प्रकार मरने की क्रिया को '''[[प्रायोपवेश]]''' कहते है।  
इतिहास में इस तरह की मृत्यु के उदाहरण गिने चुने ही मिलते है। इस प्रकार मरने की क्रिया को '''[[प्रायोपवेश]]''' कहते है।  



Revision as of 14:24, 20 April 2013

विनोबा भावे
पूरा नाम विनायक नरहरि भावे
अन्य नाम विनोबा भावे
जन्म 11 सितंबर, 1895
जन्म भूमि गाहोदे, गुजरात, भारत
मृत्यु 15 नवम्बर, 1982
मृत्यु स्थान वर्धा, महाराष्ट्र
शिक्षा हाई स्कूल
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न, प्रथम रेमन मैग्सेसे पुरस्कार
नागरिकता भारतीय
आंदोलन भूदान यज्ञ नामक आन्दोलन के संस्थापक थे।
जेल यात्रा 1920 और 1930 के दशक में भावे कई बार जेल गए और 1940 में पाँच साल के लिए जेल जाना पड़ा।

विनोबा भावे (अंग्रेज़ी:Vinoba Bhave, जन्म: 11 सितंबर, 1895 - मृत्यु: 15 नवम्बर 1982) महात्मा गांधी के आदरणीय अनुयायी, भारत के एक सर्वाधिक जाने-माने समाज सुधारक एवं 'भूदान यज्ञ' नामक आन्दोलन के संस्थापक थे।

जीवन परिचय

विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को गाहोदे, गुजरात, भारत में हुआ था। विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था।

तपस्वी रूप

एक कुलीन ब्राह्मण परिवार जन्मे विनोबा ने 'गांधी आश्रम' में शामिल होने के लिए 1916 में हाई स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। गाँधी जी के उपदेशों ने भावे को भारतीय ग्रामीण जीवन के सुधार के लिए एक तपस्वी के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया।

जेल यात्रा

1920 और 1930 के दशक में भावे कई बार जेल गए और 1940 के दशक में ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण पाँच साल के लिए जेल जाना पड़ा। उन्हें सम्मानपूर्वक आचार्य की उपाधि दी गई।

भूमि का दान

विनोबा भावे का 'भूदान आंदोलन' का विचार 1951 में जन्मा। जब वह आन्ध्र प्रदेश के गाँवों में भ्रमण कर रहे थे, भूमिहीन अस्पृश्य लोगों या हरिजनों के एक समूह के लिए ज़मीन मुहैया कराने की अपील के जवाब में एक ज़मींदार ने उन्हें एक एकड़ ज़मीन देने का प्रस्ताव किया। इसके बाद वह गाँव-गाँव घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि का दान करने की अपील करने लगे और उन्होंने इस दान को गांधीजी के अहिंसा के सिद्धान्त से संबंधित कार्य बताया। भावे के अनुसार, यह भूमि सुधार कार्यक्रम हृदय परिवर्तन के तहत होना चाहिए न कि इस ज़मीन के बँटवारे से बड़े स्तर पर होने वाली कृषि के तार्किक कार्यक्रमों में अवरोध आएगा, लेकिन भावे ने घोषणा की कि वह हृदय के बँटवारे की तुलना में ज़मीन के बँटवारे को ज़्यादा पसंद करते हैं। हालांकि बाद में उन्होंने लोगों को 'ग्रामदान' के लिए प्रोत्साहित किया, जिसमें ग्रामीण लोग अपनी भूमि को एक साथ मिलाने के बाद उसे सहकारी प्रणाली के अंतर्गत पुनर्गठित करते।

भूमि सुधार

आपके भूदान आन्दोलन से प्रेरित होकर हरदोई जनपद के सर्वोदय आश्रम टडियांवा द्वारा उत्तर प्रदेश के 25 जनपदों में श्री रमेश भाई के नेतृत्व में उसर भूमि सुधार कार्यक्रम सफलता पूर्वक चलाया गया।

मौन व्रत

1975 में पूरे वर्ष भर अपने अनुयायियों के राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होने के मुद्दे पर भावे ने मौन व्रत रखा। 1979 के एक आमरण अनशन के परिणामस्वरूप सरकार ने समूचे भारत में गो-हत्या पर निषेध लगाने हेतु क़ानून पारित करने का आश्वासन दिया।

मौलिक कार्यक्रम

विनोबा भावे के मौलिक कार्यक्रम और जीवन के उनके दर्शन को एक लेखों की श्रृंखला में समझाया गया है, जिन्हें 'भूदान यज्ञ' (1953) नामक एक पुस्तक में संगृहीत एवं प्रकाशित किया गया है।

सम्मान एवं पुरस्कार

विनोबा को 1958 में प्रथम रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से 1983 में मरणोपरांत सम्मानित किया।

मृत्यु

विनोबा जी ने जब यह देख लिया कि वृद्धावस्था ने उन्हें आ घेरा है तो उन्होंने अन्न जल त्याग दिया। जब आचार्य विनोवा जी ने अन्न और जल त्याग दिया तो उनके समर्थकों ने उनसे चैतन्यावस्था में बने रहने के लिये उर्जा के स्त्रोत की जानकारी चाही तो उन्होंने बताया कि वे वायु आकाश आदि से उर्जा ग्रहण करते हैं। आचार्य विनोवा ने कहा कि मृत्यु का दिवस विषाद का दिवस नहीं अपितु उत्सव का दिवस है इसलिये उन्होंने अपनी मृत्यु के लिये की दीपावली का दिवस 15 नवम्बर को निर्वाण दिवस के रूप में चुना। इस प्रकार अन्न जल त्यागने के कारण एक सप्ताह के अन्दर ही 15 नवम्बर 1982, वर्धा, महाराष्ट्र में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। विनोवा जी के शरीर त्यागने के उपरांत पवनार आश्रम के सभी बहनों ने उन्हे संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी। इतिहास में इस तरह की मृत्यु के उदाहरण गिने चुने ही मिलते है। इस प्रकार मरने की क्रिया को प्रायोपवेश कहते है।


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