मतिराम: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "श्रृंगार" to "शृंगार")
Line 4: Line 4:
ये तिकवाँपुर,ज़िला कानपुर, में संवत 1674 के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये [[बूँदी]] के महाराव भावसिंह के यहाँ बहुत समय तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललित ललाम' नामक [[अलंकार]] का ग्रंथ संवत 1716 और 1745 के बीच किसी समय बनाया।  
ये तिकवाँपुर,ज़िला कानपुर, में संवत 1674 के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये [[बूँदी]] के महाराव भावसिंह के यहाँ बहुत समय तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललित ललाम' नामक [[अलंकार]] का ग्रंथ संवत 1716 और 1745 के बीच किसी समय बनाया।  
==मतिराम सतसई==
==मतिराम सतसई==
इनका 'छंदसार' नामक पिंगल ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं है। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और हैं, 'साहित्यसार' और 'लक्षण श्रृंगार'। [[बिहारी सतसई]] के ढंग पर इन्होंने एक 'मतिराम सतसई' भी बनाई जो [[हिन्दी]] पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में [[बिहारीलाल|बिहारी]] के दोहों के समान ही हैं।
इनका 'छंदसार' नामक पिंगल ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं है। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और हैं, 'साहित्यसार' और 'लक्षण शृंगार'। [[बिहारी सतसई]] के ढंग पर इन्होंने एक 'मतिराम सतसई' भी बनाई जो [[हिन्दी]] पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में [[बिहारीलाल|बिहारी]] के दोहों के समान ही हैं।
==रचनाओं की विशेषता==
==रचनाओं की विशेषता==
मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सरलता और अत्यंत स्वाभाविकता। उसमें ना तो भावों की कृत्रिमता है और ना ही भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है। केवल [[अनुप्रास अलंकार|अनुप्रास]] के चमत्कार के लिए अशक्त शब्दों का प्रयोग कहीं नहीं है। जितने भी शब्द और वाक्य हैं, वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीति ग्रंथ के कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक [[भाषा]] कम ही कवियों में मिलती है, पर कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में जकड़ी हुई लगती है। सारांश यह कि मतिराम के जैसी रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण [[भाषा]] का अनुसरण कम ही मिलता है।
मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सरलता और अत्यंत स्वाभाविकता। उसमें ना तो भावों की कृत्रिमता है और ना ही भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है। केवल [[अनुप्रास अलंकार|अनुप्रास]] के चमत्कार के लिए अशक्त शब्दों का प्रयोग कहीं नहीं है। जितने भी शब्द और वाक्य हैं, वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीति ग्रंथ के कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक [[भाषा]] कम ही कवियों में मिलती है, पर कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में जकड़ी हुई लगती है। सारांश यह कि मतिराम के जैसी रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण [[भाषा]] का अनुसरण कम ही मिलता है।

Revision as of 13:20, 25 June 2013

मतिराम रीति काल के मुख्य कवियों में हैं और चिंतामणि तथा भूषण के भाई परंपरा से प्रसिद्ध हैं।

परिचय

ये तिकवाँपुर,ज़िला कानपुर, में संवत 1674 के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये बूँदी के महाराव भावसिंह के यहाँ बहुत समय तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललित ललाम' नामक अलंकार का ग्रंथ संवत 1716 और 1745 के बीच किसी समय बनाया।

मतिराम सतसई

इनका 'छंदसार' नामक पिंगल ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं है। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और हैं, 'साहित्यसार' और 'लक्षण शृंगार'। बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होंने एक 'मतिराम सतसई' भी बनाई जो हिन्दी पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।

रचनाओं की विशेषता

मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सरलता और अत्यंत स्वाभाविकता। उसमें ना तो भावों की कृत्रिमता है और ना ही भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है। केवल अनुप्रास के चमत्कार के लिए अशक्त शब्दों का प्रयोग कहीं नहीं है। जितने भी शब्द और वाक्य हैं, वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीति ग्रंथ के कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा कम ही कवियों में मिलती है, पर कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में जकड़ी हुई लगती है। सारांश यह कि मतिराम के जैसी रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण भाषा का अनुसरण कम ही मिलता है।

भावों की सरलता

भाषा के ही समान मतिराम के भाव ना तो कृत्रिम हैं और ना ही व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ हैं। नायिका के विरह ताप को लेकर बिहारी के समान अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन इन्होंने नहीं किया है। इनकी भावव्यंजक श्रृंखला सीधी और सरल है, बिहारी के समान नहीं। शब्द वैचित्रय को ये वास्तविक काव्य से पृथक वस्तु मानते थे, उसी प्रकार विचारों की झूठी सोच को भी। इनका सच्चा कवि हृदय था। मतिराम यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बँधी लीकों पर चलने के लिए विवश न होते और अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चल पाते, तो और भी स्वाभाविक और सच्ची भावविभूति देखने को मिलती, इसमें कोई संदेह नहीं। भारतीय जीवन से लिए हुए इनके मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव भरे हैं, वे समान रूप से सबकी अनुभूति के अंग हैं।

ग्रंथ

'रसराज' और 'ललित ललाम' मतिराम के ये दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं, क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग होता आया है। अपने विषय के ये अनुपम ग्रंथ हैं। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का अभ्यास होता चलता है। 'रसराज' तो अति उत्तम ग्रंथ है। 'ललित ललाम' में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत सरस और स्पष्ट हैं। इसी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ इतने सर्वप्रिय रहे हैं। रीति काल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। बिहारी की प्रसिद्धि का कारण वाग्वैदग्ध्य है। दूसरे बिहारी ने केवल दोहे कहे हैं, इससे उनमें वह 'नाद सौंदर्य' नहीं आ सका है जो कवित्त सवैये की लय के द्वारा संघटित होता है -

कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
ऑंखिन में अलसानि चितौनि में मंजु विलासन की सरसाई
को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि त्यौं त्यौं खरी निकरै सी निकाई

क्यों इन ऑंखिन सों निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै।
नेकु निहारे कलंक लगै यहि गाँव बसे कहु कैसे कै जीजै
होत रहै मन यों मतिराम कहूँ बन जाय बड़ो तप कीजै।
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधारारस पीजै

केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।
प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो, भीतर बैठि कै बात सुनाई
जेठी पठाई गई दुलही हँसि हेरि हरैं मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्हीं सुगेह की देहरि पै धारि आई

दोऊ अनंद सो ऑंगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई
आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।
ऑंखिन तें गिरे ऑंसुन के बूँद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाई

सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चमू,
सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।
कहै मतिराम ताहि रोकिबे को संगर में,
काहू के न हिम्मत हिए में उलहति है
सत्रुसाल नंद के प्रताप की लपट सब,
गरब गनीम बरगीन को दहति है।
पति पातसाह की, इजति उमरावन की,
राखी रैया राव भावसिंह की रहति है




पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख