जयौ रांम गोब्यंद बीठल बासदेव -रैदास: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('{{पुनरीक्षण}} {| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (Text replace - "१" to "1")
Line 43: Line 43:
देव दीन उधंरन, चरंन सरन तेरी।।
देव दीन उधंरन, चरंन सरन तेरी।।
नहीं आंन गति बिपति कौं हरन और।
नहीं आंन गति बिपति कौं हरन और।
श्रीपति सुनसि सीख संभाल प्रभु करहु मेरी।।१।।
श्रीपति सुनसि सीख संभाल प्रभु करहु मेरी।।1।।
अहो देव कांम केसरि काल, भुजंग भांमिनी भाल।
अहो देव कांम केसरि काल, भुजंग भांमिनी भाल।
लोभ सूकर क्रोध बर बारनूँ।।२।।
लोभ सूकर क्रोध बर बारनूँ।।२।।

Revision as of 09:48, 1 November 2014

चित्र:Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"
जयौ रांम गोब्यंद बीठल बासदेव -रैदास
कवि रैदास
जन्म 1398 ई. (लगभग)
जन्म स्थान काशी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 1518 ई.
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रैदास की रचनाएँ

जयौ रांम गोब्यंद बीठल बासदेव।
हरि बिश्न बैक्ऎंुठ मधुकीटभारी।।
कृश्न केसों रिषीकेस कमलाकंत।
अहो भगवंत त्रिबधि संतापहारी।। टेक।।
अहो देव संसार तौ गहर गंभीर।
भीतरि भ्रमत दिसि ब दिसि, दिसि कछू न सूझै।।
बिकल ब्याकुल खेंद, प्रणतंत परमहेत।
ग्रसित मति मोहि मारग न सूझै।।
देव इहि औसरि आंन, कौंन संक्या समांन।
देव दीन उधंरन, चरंन सरन तेरी।।
नहीं आंन गति बिपति कौं हरन और।
श्रीपति सुनसि सीख संभाल प्रभु करहु मेरी।।1।।
अहो देव कांम केसरि काल, भुजंग भांमिनी भाल।
लोभ सूकर क्रोध बर बारनूँ।।२।।
ग्रब गैंडा महा मोह टटनीं, बिकट निकट अहंकार आरनूँ।
जल मनोरथ ऊरमीं, तरल तृसना मकर इन्द्री जीव जंत्रक मांही।
समक ब्याकुल नाथ, सत्य बिष्यादिक पंथ, देव देव विश्राम नांही।।३।।
अहो देव सबै असंगति मेर, मधि फूटा भेर।
नांव नवका बड़ैं भागि पायौ।
बिन गुर करणधार डोलै न लागै तीर।
विषै प्रवाह औ गाह जाई।
देव किहि करौं पुकार, कहाँ जाँऊँ।
कासूँ कहूँ, का करूँ अनुग्रह दास की त्रासहारी।
इति ब्रत मांन और अवलंबन नहीं।
तो बिन त्रिबधि नाइक मुरारी।।३।।
अहो देव जेते कयैं अचेत, तू सरबगि मैं न जांनूं।
ग्यांन ध्यांन तेरौ, सत्य सतिम्रिद परपन मन सा मल।
मन क्रम बचन जंमनिका, ग्यान बैराग दिढ़ भगति नाहीं।
मलिन मति रैदास, निखल सेवा अभ्यास।
प्रेम बिन प्रीति सकल संसै न जांहीं।।४।।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख