महात्मा गाँधी की शिक्षा: Difference between revisions

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गाँधी जी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन भाषा को सुधारने का प्रयास किया। [[राजकोट]] के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह 'लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी' के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों ([[1888]]-[[1891]]) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की।  
गाँधी जी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन भाषा को सुधारने का प्रयास किया। [[राजकोट]] के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह 'लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी' के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों ([[1888]]-[[1891]]) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की।  
<blockquote><span style="color: #8f5d31">जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के [[हृदय]] की वृत्ति को बताती हैं। -महात्मा गाँधी</span></blockquote>
<blockquote><span style="color: #8f5d31">जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के [[हृदय]] की वृत्ति को बताती हैं। -महात्मा गाँधी</span></blockquote>
गांधी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन भाषा को सुधारने का प्रयास किया। राजकोट के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह 'लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी' के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों (1888-91) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की।
<blockquote><span style="color: #8f5d31">जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। -महात्मा गांधी</span></blockquote>
[[इंग्लैंड]] के शाकाहारी रेस्तरां और आवास-गृहों में गांधी की मुलाक़ात न सिर्फ़ भोजन के मामले में कट्टर लोगों से हुई, बल्कि उन्हें कुछ गम्भीर स्त्री-पुरुष भी मिले, जिन्हें [[बाइबिल]] और [[गीता|भगवदगीता]] से परिचय कराने का श्रेय दिया। भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले सर एडविन आर्नोल्ड के अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा। परिचित शाकाहारी अंग्रेज़ों में एडवर्ड कारपेंटर जैसे समाजवादी और मानवतावादी थे, जो कि 'ब्रिटिश थोरो' कहलाते थे। 'जॉर्ज बर्नाड शॉ' जैसे फ़ेबियन, और [[एनी बेसेंट]] सरीखे धर्मशास्त्री शामिल थे। उनमें से अधिकांश आदर्शवादी थे। कुछ विद्रोही तेवर के भी थे। जो उत्तरवर्ती विक्टोरियाई व्यवस्था के तत्कालीन मूल्यों को नहीं जानते थे। वे सादा जीवन के मुक़ाबले सहयोग को अधिक महत्त्व देते थे। इन विचारों ने गांधी के व्यक्तित्व और बाद में उनकी राजनीति को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>
[[जुलाई]] [[1891]] में जब गांधी [[भारत]] लौटे, तो उनकी अनुपस्थिति में माता का देहान्त हो चुका था और उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि बैरिस्टर की डिग्री से अच्छे पेशेवर जीवन की गारंटी नहीं मिल सकती। वकालत के पेशे में पहले ही काफ़ी भीड़ हो चुकी थी और गांधी उनमें अपनी जगह बनाने के मामले में बहुत संकोची थे। बंबई<ref>(वर्तमान [[मुंबई]])</ref> न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की '[[मुम्बई उच्च न्यायालय|बंबई उच्च न्यायालय]]' में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे। एक स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी को नाराज़ कर देने के कारण उनका यह काम भी बन्द हो गया। इसलिए उन्होंने [[दक्षिण अफ़्रीका]] में नडाल स्थित एक भारतीय कम्पनी से एक साल के अनुबंध को स्वीकार करके राहत की साँस ली।





Revision as of 12:07, 9 December 2016

250px|thumb|महात्मा गाँधी सन 1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे 'बंबई यूनिवर्सिटी' की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित 'सामलदास कॉलेज' में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड की यात्रा और गाँधी जी ने, जिनका 'सामलदास कॉलेज' में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि 'दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र' के रूप में थी। सितंबर, 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक 'इनर टेंपल' में दाख़िल हो गए। [[चित्र:Mahatma-Gandhi-And-Kasturba-Gandhi-1.gif|thumb|left|महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी]]

शाकाहारी समाज की सदस्यता

भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गाँधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया, जैसे- उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढ़ा था, उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने शाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया, जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफ़िकल सोसाइटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना 1875 में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था। उन्हीं लोगों ने गाँधी जी को श्रीमद्भगवद गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों के बारे में पढ़ने से पहले गाँधी जी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी।

पढ़ाई के प्रति गम्भीर

गाँधी जी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन भाषा को सुधारने का प्रयास किया। राजकोट के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह 'लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी' के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों (1888-1891) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की।

जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। -महात्मा गाँधी

गांधी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन भाषा को सुधारने का प्रयास किया। राजकोट के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह 'लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी' के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका में भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों (1888-91) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की।

जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। -महात्मा गांधी

इंग्लैंड के शाकाहारी रेस्तरां और आवास-गृहों में गांधी की मुलाक़ात न सिर्फ़ भोजन के मामले में कट्टर लोगों से हुई, बल्कि उन्हें कुछ गम्भीर स्त्री-पुरुष भी मिले, जिन्हें बाइबिल और भगवदगीता से परिचय कराने का श्रेय दिया। भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले सर एडविन आर्नोल्ड के अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा। परिचित शाकाहारी अंग्रेज़ों में एडवर्ड कारपेंटर जैसे समाजवादी और मानवतावादी थे, जो कि 'ब्रिटिश थोरो' कहलाते थे। 'जॉर्ज बर्नाड शॉ' जैसे फ़ेबियन, और एनी बेसेंट सरीखे धर्मशास्त्री शामिल थे। उनमें से अधिकांश आदर्शवादी थे। कुछ विद्रोही तेवर के भी थे। जो उत्तरवर्ती विक्टोरियाई व्यवस्था के तत्कालीन मूल्यों को नहीं जानते थे। वे सादा जीवन के मुक़ाबले सहयोग को अधिक महत्त्व देते थे। इन विचारों ने गांधी के व्यक्तित्व और बाद में उनकी राजनीति को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। महात्मा गांधी

जुलाई 1891 में जब गांधी भारत लौटे, तो उनकी अनुपस्थिति में माता का देहान्त हो चुका था और उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि बैरिस्टर की डिग्री से अच्छे पेशेवर जीवन की गारंटी नहीं मिल सकती। वकालत के पेशे में पहले ही काफ़ी भीड़ हो चुकी थी और गांधी उनमें अपनी जगह बनाने के मामले में बहुत संकोची थे। बंबई[1] न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की 'बंबई उच्च न्यायालय' में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे। एक स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी को नाराज़ कर देने के कारण उनका यह काम भी बन्द हो गया। इसलिए उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में नडाल स्थित एक भारतीय कम्पनी से एक साल के अनुबंध को स्वीकार करके राहत की साँस ली।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (वर्तमान मुंबई)

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