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एक बार राजा बलि ने देवताओं पर चढ़ाई करके इन्द्रलोक पर अधिकार कर लिया। उसके दान के चर्चे सर्वत्र होने लगे। तब [[विष्णु]] वामन अंगुल का वेश धारण करके राजा बलि से दान मांगने जा पहुंचे। दैत्यों के गुरु [[शुक्राचार्य]] ने बलि को सचेत किया कि तेरे द्वार पर दान मांगने स्वयं विष्णु भगवान पधारे है। उन्हे दान मत दे बैठना, परन्तु राजा बलि उनकी बात नहीं माना। उसने इसे अपना सौभाग्य समझा कि भगवान उसके द्वार पर भिक्षा मांगने आए हैं। तब विष्णु ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि ने संकल्प करके भूमि दान कर दी। विष्णु ने अपना विराट रूप धारण करके दो पगों में तीनों लोक नाप लिया और तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखकर उसे पाताल भेज दिया।  
एक बार राजा बलि ने देवताओं पर चढ़ाई करके इन्द्रलोक पर अधिकार कर लिया। उसके दान के चर्चे सर्वत्र होने लगे। तब [[विष्णु]] वामन अंगुल का वेश धारण करके राजा बलि से दान मांगने जा पहुंचे। दैत्यों के गुरु [[शुक्राचार्य]] ने बलि को सचेत किया कि तेरे द्वार पर दान मांगने स्वयं विष्णु भगवान पधारे है। उन्हें दान मत दे बैठना, परन्तु राजा बलि उनकी बात नहीं माना। उसने इसे अपना सौभाग्य समझा कि भगवान उसके द्वार पर भिक्षा मांगने आए हैं। तब विष्णु ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि ने संकल्प करके भूमि दान कर दी। विष्णु ने अपना विराट रूप धारण करके दो पगों में तीनों लोक नाप लिया और तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखकर उसे पाताल भेज दिया।  
==कथा महाभारत से==
==कथा महाभारत से==
[[इंद्र]] ने [[ब्रह्मा]] से पूछा कि बलि का निवासस्थान कहां है। ब्रह्मा ने उसके प्रश्न का अनौचित्य बताते हुए उससे कहा कि किसी शून्य घर में अश्व, गो, गर्दभ आदि में जो श्रेष्ठ जीव हो, वही बलि होगा। इंद्र ने पुन: पूछा कि एकांत में मिलने पर इंद्र उसका हनन करे अथवा नहीं। ब्रह्मा ने कहा- 'नहीं'। इंद्र ने एक शून्य घर में गर्दभ योनि में बलि को देखा। इंद्र ने तरह-तरह से, व्यंग्यपूर्वक उससे पूछा कि इतने वैभव, शक्ति, छत्र, चंवर तथा ब्रह्मा की दी हुई माला के अधिपति रहने के उपरांत इस निरीह योनि में उन सब तत्त्वों से विहीन होकर उसे कैसा लग रहा है? न वहां स्वर्णदंड था, न दिव्यमाला, न चंवर इत्यादि। बलि ने हंसकर कहा कि 'उसका प्रश्न अनुचित है तथा उसकी समस्त वैभव-संपन्न वस्तुएं एक गुफा में रखी हुई हैं। अच्छे दिन आने पर वह पुन: उन्हें ग्रहण कर लेगा।' इंद्र का उसके बुरे दिनों में उसका परिहास करना उचित नहीं है। अस्थिर कालचक्र के परिणामस्वरूप कभी भी कुछ भी हो सकता है। तदनंतर इंद्र के देखते-देखते बलि के शरीर से एक सुंदरी निकली। इंद्र ने उसका परिचय पूछा तो जाना कि वह मूर्तिमती [[महालक्ष्मी देवी|लक्ष्मी]] थी। वह सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम तथा धर्म में निवास करती थी। उस योनि को प्राप्त कर बलि इनमें से किसी का भी निर्वाह करने में समर्थ नहीं था। अत: उसके शरीर से वह निकल आयी थी। इंद्र ने कहा कि वह शारीरिक बल तथा मानसिक शक्ति के अनुसार उसे ग्रहण करेगा। साथ ही उसने ऐसा उपाय भी पूछा कि जिससे लक्ष्मी कभी उसका परित्याग न करें यों कोई भी व्यक्ति (देवता या मनुष्य) अकेला, लक्ष्मी को धारण करने में समर्थ नहीं था।  
[[इंद्र]] ने [[ब्रह्मा]] से पूछा कि बलि का निवासस्थान कहां है। ब्रह्मा ने उसके प्रश्न का अनौचित्य बताते हुए उससे कहा कि किसी शून्य घर में अश्व, गो, गर्दभ आदि में जो श्रेष्ठ जीव हो, वही बलि होगा। इंद्र ने पुन: पूछा कि एकांत में मिलने पर इंद्र उसका हनन करे अथवा नहीं। ब्रह्मा ने कहा- 'नहीं'। इंद्र ने एक शून्य घर में गर्दभ योनि में बलि को देखा। इंद्र ने तरह-तरह से, व्यंग्यपूर्वक उससे पूछा कि इतने वैभव, शक्ति, छत्र, चंवर तथा ब्रह्मा की दी हुई माला के अधिपति रहने के उपरांत इस निरीह योनि में उन सब तत्त्वों से विहीन होकर उसे कैसा लग रहा है? न वहां स्वर्णदंड था, न दिव्यमाला, न चंवर इत्यादि। बलि ने हंसकर कहा कि 'उसका प्रश्न अनुचित है तथा उसकी समस्त वैभव-संपन्न वस्तुएं एक गुफा में रखी हुई हैं। अच्छे दिन आने पर वह पुन: उन्हें ग्रहण कर लेगा।' इंद्र का उसके बुरे दिनों में उसका परिहास करना उचित नहीं है। अस्थिर कालचक्र के परिणामस्वरूप कभी भी कुछ भी हो सकता है। तदनंतर इंद्र के देखते-देखते बलि के शरीर से एक सुंदरी निकली। इंद्र ने उसका परिचय पूछा तो जाना कि वह मूर्तिमती [[महालक्ष्मी देवी|लक्ष्मी]] थी। वह सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम तथा धर्म में निवास करती थी। उस योनि को प्राप्त कर बलि इनमें से किसी का भी निर्वाह करने में समर्थ नहीं था। अत: उसके शरीर से वह निकल आयी थी। इंद्र ने कहा कि वह शारीरिक बल तथा मानसिक शक्ति के अनुसार उसे ग्रहण करेगा। साथ ही उसने ऐसा उपाय भी पूछा कि जिससे लक्ष्मी कभी उसका परित्याग न करें यों कोई भी व्यक्ति (देवता या मनुष्य) अकेला, लक्ष्मी को धारण करने में समर्थ नहीं था।  
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#जया- के साथ [[विष्णु]] के विमान पर बैठकर [[इंद्र]] के पास पहुंची क्योंकि दैत्यों में अनाचार आरंभ हो गया था। उस समय [[नारद]] भी इंद्र के पास थे।<ref>महाभारत, शांतिपर्व, 223-228</ref>
#जया- के साथ [[विष्णु]] के विमान पर बैठकर [[इंद्र]] के पास पहुंची क्योंकि दैत्यों में अनाचार आरंभ हो गया था। उस समय [[नारद]] भी इंद्र के पास थे।<ref>महाभारत, शांतिपर्व, 223-228</ref>
==कथा ब्रह्म पुराण से==
==कथा ब्रह्म पुराण से==
बलि नामक दैत्य गुरु भक्त प्रतापी और वीर राजा था। देवता उसे नष्ट करने में असमर्थ थे। वह विष्णु भक्त था। देवता भी विष्णु की शरण में गये। विष्णु ने कहा कि वह भी उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे। बलि ने [[अश्वमेध यज्ञ]] की योजना की। वहां [[अदिति]] पुत्र [[वामन अवतार|वामन]] (विष्णु) ब्राह्मण-वेश में पहुंचे। [[शुक्राचार्य|शुक्र]] ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे [[विष्णु]] हैं, बलि शुक्र से पूछे बिना कोई वस्तु उन्हें दान न करे, किंतु वामन के मांगने पर बलि ने उन्हें तीन पग भूमि देने का वादा कर लिया। वामन ने दो पग में समस्त भूमंण्डल नाप लिया- 'तीसरा पग कहां रखूं?' पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- 'इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई- मैं क्या करूं? मेरी पीठ प्रस्तुत है।' इस प्रकार विष्णु ने उसकी कमर पर तीसरा पग रखा। उसकी भक्ति ने उसकी कमर पर तीसरा पग रखां उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे रसातल के राजा होने का वर दिया।<ref>ब्रह्म पुराण, अध्याय 3, 1-56</ref>  
बलि नामक दैत्य गुरु भक्त प्रतापी और वीर राजा था। देवता उसे नष्ट करने में असमर्थ थे। वह विष्णु भक्त था। देवता भी विष्णु की शरण में गये। विष्णु ने कहा कि वह भी उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे। बलि ने [[अश्वमेध यज्ञ]] की योजना की। वहां [[अदिति]] पुत्र [[वामन अवतार|वामन]] (विष्णु) ब्राह्मण-वेश में पहुंचे। [[शुक्राचार्य|शुक्र]] ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे [[विष्णु]] हैं, बलि शुक्र से पूछे बिना कोई वस्तु उन्हें दान न करे, किंतु वामन के मांगने पर बलि ने उन्हें तीन पग भूमि देने का वादा कर लिया। वामन ने दो पग में समस्त भूमंण्डल नाप लिया- 'तीसरा पग कहां रखूं?' पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- 'इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई- मैं क्या करूं? मेरी पीठ प्रस्तुत है।' इस प्रकार विष्णु ने उसकी कमर पर तीसरा पग रखा। उसकी भक्ति ने उसकी कमर पर तीसरा पग रख़ाँ उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे रसातल के राजा होने का वर दिया।<ref>ब्रह्म पुराण, अध्याय 3, 1-56</ref>  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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[[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]]
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Latest revision as of 10:38, 11 July 2011

राजा बलि
एक बार राजा बलि ने देवताओं पर चढ़ाई करके इन्द्रलोक पर अधिकार कर लिया। उसके दान के चर्चे सर्वत्र होने लगे। तब विष्णु वामन अंगुल का वेश धारण करके राजा बलि से दान मांगने जा पहुंचे। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने बलि को सचेत किया कि तेरे द्वार पर दान मांगने स्वयं विष्णु भगवान पधारे है। उन्हें दान मत दे बैठना, परन्तु राजा बलि उनकी बात नहीं माना। उसने इसे अपना सौभाग्य समझा कि भगवान उसके द्वार पर भिक्षा मांगने आए हैं। तब विष्णु ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि ने संकल्प करके भूमि दान कर दी। विष्णु ने अपना विराट रूप धारण करके दो पगों में तीनों लोक नाप लिया और तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखकर उसे पाताल भेज दिया।

कथा महाभारत से

इंद्र ने ब्रह्मा से पूछा कि बलि का निवासस्थान कहां है। ब्रह्मा ने उसके प्रश्न का अनौचित्य बताते हुए उससे कहा कि किसी शून्य घर में अश्व, गो, गर्दभ आदि में जो श्रेष्ठ जीव हो, वही बलि होगा। इंद्र ने पुन: पूछा कि एकांत में मिलने पर इंद्र उसका हनन करे अथवा नहीं। ब्रह्मा ने कहा- 'नहीं'। इंद्र ने एक शून्य घर में गर्दभ योनि में बलि को देखा। इंद्र ने तरह-तरह से, व्यंग्यपूर्वक उससे पूछा कि इतने वैभव, शक्ति, छत्र, चंवर तथा ब्रह्मा की दी हुई माला के अधिपति रहने के उपरांत इस निरीह योनि में उन सब तत्त्वों से विहीन होकर उसे कैसा लग रहा है? न वहां स्वर्णदंड था, न दिव्यमाला, न चंवर इत्यादि। बलि ने हंसकर कहा कि 'उसका प्रश्न अनुचित है तथा उसकी समस्त वैभव-संपन्न वस्तुएं एक गुफा में रखी हुई हैं। अच्छे दिन आने पर वह पुन: उन्हें ग्रहण कर लेगा।' इंद्र का उसके बुरे दिनों में उसका परिहास करना उचित नहीं है। अस्थिर कालचक्र के परिणामस्वरूप कभी भी कुछ भी हो सकता है। तदनंतर इंद्र के देखते-देखते बलि के शरीर से एक सुंदरी निकली। इंद्र ने उसका परिचय पूछा तो जाना कि वह मूर्तिमती लक्ष्मी थी। वह सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम तथा धर्म में निवास करती थी। उस योनि को प्राप्त कर बलि इनमें से किसी का भी निर्वाह करने में समर्थ नहीं था। अत: उसके शरीर से वह निकल आयी थी। इंद्र ने कहा कि वह शारीरिक बल तथा मानसिक शक्ति के अनुसार उसे ग्रहण करेगा। साथ ही उसने ऐसा उपाय भी पूछा कि जिससे लक्ष्मी कभी उसका परित्याग न करें यों कोई भी व्यक्ति (देवता या मनुष्य) अकेला, लक्ष्मी को धारण करने में समर्थ नहीं था।

लक्ष्मी के कथनानुसार इंद्र ने लक्ष्मी के चारों पैरों को क्रमश:-

  1. पृथ्वी,
  2. जल,
  3. अग्नि तथा
  4. सत्पुरुषों में प्रतिष्ठित कर दिया। इंद्र ने कहा कि जो कोई भी लक्ष्मी को कष्ट देगा, इंद्र के क्रोध तथा दंड का भागी होगा। तदनंतर परित्यक्त बलि ने कहा कि सूर्य जब अस्ताचल की ओर नहीं बढ़ेगा तथा मध्याह्न काल में स्थिर हो जायेगा तब वह (बलि) देवताओं को पराजित करेगा। इंद्र ने बताया कि ब्रह्मा की व्यवस्था के अधीन सूर्य दक्षिणायण तथा उत्तरायण तो होगा पर मध्याह्न में नहीं रूकेगा। इंद्र ने कहा- 'बलि, तुम्हें जिधर इच्छा हो, चले जाओ। मैंने तुम्हारा वध मात्र इसलिए नहीं किया कि मैं ब्रह्मा से प्रतिज्ञा करके आया था।' तदुपरांत बलि ने दक्षिण की ओर तथा इंद्र ने उत्तर की ओर प्रस्थान किया।

महाभारत के 228 अध्याय में कहा गया है कि लक्ष्मी अपनी आठ सखियों-

  1. आशा,
  2. श्रद्धा,
  3. शांति,
  4. धृति,
  5. विजिति,
  6. संतति,
  7. क्षमा और
  8. जया- के साथ विष्णु के विमान पर बैठकर इंद्र के पास पहुंची क्योंकि दैत्यों में अनाचार आरंभ हो गया था। उस समय नारद भी इंद्र के पास थे।[1]

कथा ब्रह्म पुराण से

बलि नामक दैत्य गुरु भक्त प्रतापी और वीर राजा था। देवता उसे नष्ट करने में असमर्थ थे। वह विष्णु भक्त था। देवता भी विष्णु की शरण में गये। विष्णु ने कहा कि वह भी उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे। बलि ने अश्वमेध यज्ञ की योजना की। वहां अदिति पुत्र वामन (विष्णु) ब्राह्मण-वेश में पहुंचे। शुक्र ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे विष्णु हैं, बलि शुक्र से पूछे बिना कोई वस्तु उन्हें दान न करे, किंतु वामन के मांगने पर बलि ने उन्हें तीन पग भूमि देने का वादा कर लिया। वामन ने दो पग में समस्त भूमंण्डल नाप लिया- 'तीसरा पग कहां रखूं?' पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- 'इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई- मैं क्या करूं? मेरी पीठ प्रस्तुत है।' इस प्रकार विष्णु ने उसकी कमर पर तीसरा पग रखा। उसकी भक्ति ने उसकी कमर पर तीसरा पग रख़ाँ उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे रसातल के राजा होने का वर दिया।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, शांतिपर्व, 223-228
  2. ब्रह्म पुराण, अध्याय 3, 1-56

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