सबलसिंह चौहान: Difference between revisions

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सबलसिंह चौहान के निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं है। शिवसिंह जी ने यह लिखकर कि कोई इन्हें 'चन्दागढ़ का राजा' और कोई 'सबलगढ़ का राजा' बतलाते हैं, यह अनुमान किया है कि ये [[इटावा]] के किसी गाँव के जमींदार थे। सबलसिंह जी ने [[औरंगजेब]] के दरबार में रहने वाले किसी राजा 'मित्रसेन' के साथ अपना संबंध बताया है। इन्होंने सारे [[महाभारत]] की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है। इनका महाभारत बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसे इन्होंने [[संवत्]] 1718 और संवत् 1781 के बीच पूरा किया। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने 'ऋतुसंहार का भाषानुवाद', 'रूपविलास' और एक पिंगलग्रंथ भी लिखा था पर वे प्रसिद्ध नहीं हुए। ये वास्तव में अपने महाभारत के लिए ही प्रसिद्ध हैं। इसमें यद्यपि [[भाषा]] का लालित्य या काव्य की छटा नहीं है पर सीधी सादी भाषा में कथा अच्छी तरह समझाई गई है -  
सबलसिंह चौहान के निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं है। शिवसिंह जी ने यह लिखकर कि कोई इन्हें 'चन्दागढ़ का राजा' और कोई 'सबलगढ़ का राजा' बतलाते हैं, यह अनुमान किया है कि ये [[इटावा]] के किसी गाँव के ज़मींदार थे। सबलसिंह जी ने [[औरंगजेब]] के दरबार में रहने वाले किसी राजा 'मित्रसेन' के साथ अपना संबंध बताया है। इन्होंने सारे [[महाभारत]] की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है। इनका महाभारत बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसे इन्होंने [[संवत्]] 1718 और संवत् 1781 के बीच पूरा किया। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने 'ऋतुसंहार का भाषानुवाद', 'रूपविलास' और एक पिंगलग्रंथ भी लिखा था पर वे प्रसिद्ध नहीं हुए। ये वास्तव में अपने महाभारत के लिए ही प्रसिद्ध हैं। इसमें यद्यपि [[भाषा]] का लालित्य या काव्य की छटा नहीं है पर सीधी सादी भाषा में कथा अच्छी तरह समझाई गई है -  
<poem>अभिमनु धाइ खड़ग परिहारे।
<poem>अभिमनु धाइ खड़ग परिहारे।
भूरिश्रवा बान दस छाँटे।
भूरिश्रवा बान दस छाँटे।

Latest revision as of 11:26, 5 July 2017

सबलसिंह चौहान के निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं है। शिवसिंह जी ने यह लिखकर कि कोई इन्हें 'चन्दागढ़ का राजा' और कोई 'सबलगढ़ का राजा' बतलाते हैं, यह अनुमान किया है कि ये इटावा के किसी गाँव के ज़मींदार थे। सबलसिंह जी ने औरंगजेब के दरबार में रहने वाले किसी राजा 'मित्रसेन' के साथ अपना संबंध बताया है। इन्होंने सारे महाभारत की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है। इनका महाभारत बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसे इन्होंने संवत् 1718 और संवत् 1781 के बीच पूरा किया। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने 'ऋतुसंहार का भाषानुवाद', 'रूपविलास' और एक पिंगलग्रंथ भी लिखा था पर वे प्रसिद्ध नहीं हुए। ये वास्तव में अपने महाभारत के लिए ही प्रसिद्ध हैं। इसमें यद्यपि भाषा का लालित्य या काव्य की छटा नहीं है पर सीधी सादी भाषा में कथा अच्छी तरह समझाई गई है -

अभिमनु धाइ खड़ग परिहारे।
भूरिश्रवा बान दस छाँटे।
तीन बान सारथि उर मारे।
सारथि जूझि गिरे मैदाना।
यहि अंतर सेना सब धाई।
रथ को खैंचि कुँवर कर लीन्हें।
अभिमनु कोपि खंभ परहारे।
अर्जुनसुत इमि मार किय महाबीर परचंड।
रूप भयानक देखियत जिमि जम लीन्हेंदंड



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 226-227।

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