एक तुम हो -माखन लाल चतुर्वेदी: Difference between revisions

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|मुख्य रचनाएँ=कृष्णार्जुन युद्ध, हिमकिरीटिनी, साहित्य देवता, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण, वेणु लो गूँजे धरा, अमीर इरादे, गरीब इरादे
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हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,


        रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
        कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा।




        कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
        हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
        तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
        कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते।




        तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
        तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
        तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
        कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ।


तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
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तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा


        तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
        तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर।


रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,


        प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
        जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।





Latest revision as of 09:17, 12 April 2018

एक तुम हो -माखन लाल चतुर्वेदी
कवि माखन लाल चतुर्वेदी
जन्म 4 अप्रैल, 1889 ई.
जन्म स्थान बावई, मध्य प्रदेश
मृत्यु 30 जनवरी, 1968 ई.
मुख्य रचनाएँ कृष्णार्जुन युद्ध, हिमकिरीटिनी, साहित्य देवता, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण, वेणु लो गूँजे धरा, अमीर इरादे, ग़रीब इरादे
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
माखन लाल चतुर्वेदी की रचनाएँ

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,

रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा।


कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते।


तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ।

तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर।

रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,

प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।


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