त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद: Difference between revisions
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*[[यजुर्वेद|शुक्ल यजुर्वेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में अष्टांग योग द्वारा ब्रह्म-प्राप्ति का वर्णन है। इस उपनिषद का प्रारम्भ त्रिशिखी नामक ब्राह्मण और भगवान [[आदित्य देवता|आदित्य]] के बीच 'आत्मा' और 'ब्रह्म' विषयक प्रश्नोत्तर से होता है। | *[[यजुर्वेद|शुक्ल यजुर्वेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में अष्टांग योग द्वारा ब्रह्म-प्राप्ति का वर्णन है। इस उपनिषद का प्रारम्भ त्रिशिखी नामक ब्राह्मण और भगवान [[आदित्य देवता|आदित्य]] के बीच 'आत्मा' और 'ब्रह्म' विषयक प्रश्नोत्तर से होता है। | ||
*इसके बाद इसमें [[शिव]] | *इसके बाद इसमें [[शिव]]तत्त्व की विद्यमानता, 'ब्रह्म' से अखिल विश्व की उत्पत्ति, एक ही पिण्ड के विभाजन से सृष्टि का निर्माण, आकाश का अंश-भेद, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जीव में 'ब्रह्म' का स्थान, ब्रह्म से लेकर पंचीकरण तक सृष्टि का विकास, सृष्टि में जड़-चेतन की स्थिति, मुक्तिप्रदायक अध्यात्मिक ज्ञान, कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग, ब्रह्मयोग, हठयोग, प्राणायाम, नाड़ीचक्र, कुण्डलिनी-जागरण, योगाभ्यास, ध्यान और धारणा आदि का विशद विवेचन किया गया है। | ||
*इस उपनिषदकार का कहना है कि ब्रह्म से अव्यक्त, अव्यक्त से महत, महत से अहंकार, अहंकार से पंचतन्मात्राएं, पंचतन्मात्राओं से पंचमहाभूत और पंचमहाभूतों ([[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[जल]], [[अग्निदेव|अग्नि]], [[वायु देव|वायु]] और [[आकाश तत्व|आकाश]]) से यह सम्पूर्ण विश्व उदित हुआ है। | *इस उपनिषदकार का कहना है कि ब्रह्म से अव्यक्त, अव्यक्त से महत, महत से अहंकार, अहंकार से पंचतन्मात्राएं, पंचतन्मात्राओं से पंचमहाभूत और पंचमहाभूतों ([[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[जल]], [[अग्निदेव|अग्नि]], [[वायु देव|वायु]] और [[आकाश तत्व|आकाश]]) से यह सम्पूर्ण विश्व उदित हुआ है। | ||
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*इस उपनिषद की मुख्य बात यही है कि विश्व-रूप देव का जो कुछ भी स्थूल, सूक्ष्म या फिर अन्य कोई भी रूप है, योगी अपने हृदय में इसका ध्यान करता है और वह स्वयं साक्षात वैसा ही हो जाता है, जैसा कि 'ब्रह्म' उसे दिखाई देता है। | *इस उपनिषद की मुख्य बात यही है कि विश्व-रूप देव का जो कुछ भी स्थूल, सूक्ष्म या फिर अन्य कोई भी रूप है, योगी अपने हृदय में इसका ध्यान करता है और वह स्वयं साक्षात वैसा ही हो जाता है, जैसा कि 'ब्रह्म' उसे दिखाई देता है। | ||
*'जीवात्मा' और 'परमात्मा' दोनों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरान्त, साधक 'मैं ब्रह्म हूं' की स्थिति तक पहुंच जाता है। उस स्थिति को 'समाधि' कहते हैं। इस प्रकार जो योगी उस परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है, वह अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग कर 'ब्रह्ममय' हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसा श्रेष्ठ योगी अथवा साधक, निर्वाण के पद पर आसीन होकर 'कैवल्यावस्था' की स्थिति में पहुंच जाता है। | *'जीवात्मा' और 'परमात्मा' दोनों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरान्त, साधक 'मैं ब्रह्म हूं' की स्थिति तक पहुंच जाता है। उस स्थिति को 'समाधि' कहते हैं। इस प्रकार जो योगी उस परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है, वह अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग कर 'ब्रह्ममय' हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसा श्रेष्ठ योगी अथवा साधक, निर्वाण के पद पर आसीन होकर 'कैवल्यावस्था' की स्थिति में पहुंच जाता है। | ||
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Latest revision as of 13:45, 13 October 2011
- शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में अष्टांग योग द्वारा ब्रह्म-प्राप्ति का वर्णन है। इस उपनिषद का प्रारम्भ त्रिशिखी नामक ब्राह्मण और भगवान आदित्य के बीच 'आत्मा' और 'ब्रह्म' विषयक प्रश्नोत्तर से होता है।
- इसके बाद इसमें शिवतत्त्व की विद्यमानता, 'ब्रह्म' से अखिल विश्व की उत्पत्ति, एक ही पिण्ड के विभाजन से सृष्टि का निर्माण, आकाश का अंश-भेद, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जीव में 'ब्रह्म' का स्थान, ब्रह्म से लेकर पंचीकरण तक सृष्टि का विकास, सृष्टि में जड़-चेतन की स्थिति, मुक्तिप्रदायक अध्यात्मिक ज्ञान, कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग, ब्रह्मयोग, हठयोग, प्राणायाम, नाड़ीचक्र, कुण्डलिनी-जागरण, योगाभ्यास, ध्यान और धारणा आदि का विशद विवेचन किया गया है।
- इस उपनिषदकार का कहना है कि ब्रह्म से अव्यक्त, अव्यक्त से महत, महत से अहंकार, अहंकार से पंचतन्मात्राएं, पंचतन्मात्राओं से पंचमहाभूत और पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से यह सम्पूर्ण विश्व उदित हुआ है।
ब्रह्म से साक्षात्कार
- इस उपनिषद की मुख्य बात यही है कि विश्व-रूप देव का जो कुछ भी स्थूल, सूक्ष्म या फिर अन्य कोई भी रूप है, योगी अपने हृदय में इसका ध्यान करता है और वह स्वयं साक्षात वैसा ही हो जाता है, जैसा कि 'ब्रह्म' उसे दिखाई देता है।
- 'जीवात्मा' और 'परमात्मा' दोनों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरान्त, साधक 'मैं ब्रह्म हूं' की स्थिति तक पहुंच जाता है। उस स्थिति को 'समाधि' कहते हैं। इस प्रकार जो योगी उस परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है, वह अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग कर 'ब्रह्ममय' हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसा श्रेष्ठ योगी अथवा साधक, निर्वाण के पद पर आसीन होकर 'कैवल्यावस्था' की स्थिति में पहुंच जाता है।
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