महोपनिषद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replacement - " जगत " to " जगत् ")
m (Text replacement - "पश्चात " to "पश्चात् ")
 
(One intermediate revision by the same user not shown)
Line 1: Line 1:
{{tocright}}
{{tocright}}
सामवेदीय परम्परा से सम्बद्ध महोपनिषद [[नारायण|श्रीनारायण]] के महान स्वरूप को प्रकट करने वाला है। इसे [[शुकदेव|शुकदेवजी]] और [[जनक|राजा जनक]] तथा ऋभु व निदाघ के प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा गया है। इसमें कुल छह अध्याय है।  
सामवेदीय परम्परा से सम्बद्ध महोपनिषद [[नारायण|श्रीनारायण]] के महान् स्वरूप को प्रकट करने वाला है। इसे [[शुकदेव|शुकदेवजी]] और [[जनक|राजा जनक]] तथा ऋभु व निदाघ के प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा गया है। इसमें कुल छह अध्याय है।  
==प्रथम अध्याय==
==प्रथम अध्याय==
''''नारायण' का स्वरूप''' इस अध्याय में सर्वप्रथम श्रीनारायण के अद्वितीय ईश्वरीय स्वरूप का विवेचन है। उसके उपरान्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों का विवेचन है। फिर [[रुद्र]] की उत्पत्ति और [[ब्रह्मा]] के जन्म का कथानक है। [[देवता|देवताओं]] आदि का प्रादुर्भाव और नारायण के विराट स्वरूप का विवेचन है। इस विराट स्वरूप वाले नारायण को हृदय द्वारा ही पाया जा सकता है; क्योंकि वही इसका स्थान है।  
''''नारायण' का स्वरूप''' इस अध्याय में सर्वप्रथम श्रीनारायण के अद्वितीय ईश्वरीय स्वरूप का विवेचन है। उसके उपरान्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों का विवेचन है। फिर [[रुद्र]] की उत्पत्ति और [[ब्रह्मा]] के जन्म का कथानक है। [[देवता|देवताओं]] आदि का प्रादुर्भाव और नारायण के विराट स्वरूप का विवेचन है। इस विराट स्वरूप वाले नारायण को हृदय द्वारा ही पाया जा सकता है; क्योंकि वही इसका स्थान है।  
Line 18: Line 18:
'''ज्ञान-अज्ञान की भूमिका'''
'''ज्ञान-अज्ञान की भूमिका'''
इस अध्याय में ज्ञान-अज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख है। महर्षि ऋभु अपने पुत्र से कहते हैं कि 'अज्ञान' और 'ज्ञान' की सात-सात भूमिकाएँ हैं। अहं भाव 'अज्ञान' का मूल स्वरूप है। इसी से 'यह मैं हूं और यह मेरा है' का भाव उत्पन्न होता है। अज्ञान से ही राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और जीव मोहग्रस्त होकर आत्म-स्वरूप से परे हट जाता है।<br />  
इस अध्याय में ज्ञान-अज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख है। महर्षि ऋभु अपने पुत्र से कहते हैं कि 'अज्ञान' और 'ज्ञान' की सात-सात भूमिकाएँ हैं। अहं भाव 'अज्ञान' का मूल स्वरूप है। इसी से 'यह मैं हूं और यह मेरा है' का भाव उत्पन्न होता है। अज्ञान से ही राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और जीव मोहग्रस्त होकर आत्म-स्वरूप से परे हट जाता है।<br />  
ज्ञान की पहली भूमिका 'शुभेच्छा' से प्रारम्भ होती है। सत्संगति से वैराग्य उत्पन्न होता है, सदाचार की भावनाएं जाग्रत होत हैं और भोग-वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है। ज्ञानी जन सत्कर्मों में संलग्न रहकर सनातन सदाचरण की परम्परा का निर्वाह करते हैं। ऐसे ज्ञानी पुरुष देहत्याग के पश्चात 'मुक्ति' के अधिकारी होते हैं।<br />  
ज्ञान की पहली भूमिका 'शुभेच्छा' से प्रारम्भ होती है। सत्संगति से वैराग्य उत्पन्न होता है, सदाचार की भावनाएं जाग्रत होत हैं और भोग-वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है। ज्ञानी जन सत्कर्मों में संलग्न रहकर सनातन सदाचरण की परम्परा का निर्वाह करते हैं। ऐसे ज्ञानी पुरुष देहत्याग के पश्चात् 'मुक्ति' के अधिकारी होते हैं।<br />  
==छठा अध्याय==
==छठा अध्याय==
'''समाधि और जीवन-मुक्त''' इस अध्याय में समाधि से परमेश्वर की प्राप्ति, ज्ञानियों की उपासना-विधि, अज्ञानियों की दु:खद स्थिति, वासना-त्याग के उपाय, जीवन्मुक्त व्यक्ति की महिमा आदि का वर्णन किया गया है। किसी भी प्रज्ञावान पुरुष में जगत् की नश्वरता का भाव, निर्भयता, समता, नित्यता, निष्काम दृष्टि, सोम्यता, धैर्य, मैत्री, सन्तोष, मृदुता, मोहहीनता आदि का समावेश रहता है। ऐसा व्यक्ति ही 'जीवन्मुक्त' होता है।  
'''समाधि और जीवन-मुक्त''' इस अध्याय में समाधि से परमेश्वर की प्राप्ति, ज्ञानियों की उपासना-विधि, अज्ञानियों की दु:खद स्थिति, वासना-त्याग के उपाय, जीवन्मुक्त व्यक्ति की महिमा आदि का वर्णन किया गया है। किसी भी प्रज्ञावान पुरुष में जगत् की नश्वरता का भाव, निर्भयता, समता, नित्यता, निष्काम दृष्टि, सोम्यता, धैर्य, मैत्री, सन्तोष, मृदुता, मोहहीनता आदि का समावेश रहता है। ऐसा व्यक्ति ही 'जीवन्मुक्त' होता है।  

Latest revision as of 07:33, 7 November 2017

सामवेदीय परम्परा से सम्बद्ध महोपनिषद श्रीनारायण के महान् स्वरूप को प्रकट करने वाला है। इसे शुकदेवजी और राजा जनक तथा ऋभु व निदाघ के प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा गया है। इसमें कुल छह अध्याय है।

प्रथम अध्याय

'नारायण' का स्वरूप इस अध्याय में सर्वप्रथम श्रीनारायण के अद्वितीय ईश्वरीय स्वरूप का विवेचन है। उसके उपरान्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों का विवेचन है। फिर रुद्र की उत्पत्ति और ब्रह्मा के जन्म का कथानक है। देवताओं आदि का प्रादुर्भाव और नारायण के विराट स्वरूप का विवेचन है। इस विराट स्वरूप वाले नारायण को हृदय द्वारा ही पाया जा सकता है; क्योंकि वही इसका स्थान है।

दूसरा अध्याय

जीवन-जगत क्या है?

इस अध्याय में शुकदेव जी व्यास जी के उपदेशों के प्रति 'जगत के प्रपंच-रूप के प्रकटीकरण और विनाश' विषय को लेकर अनादर भाव प्रकट करते हैं। शंका-समाधान के लिए वे राजा जनक के पास जाते हैं। राजा जनक पहले शुकदेव जी को समस्त भोग-विलासों के मध्य रखकर उनकी परीक्षा लेते हैं। जब भोग-विलास शुकदेव जी को नहीं डिगा पाते, तो राजा जनक उनकी इच्छा पूछकर, उनकी शंका का समाधान करते हैं, परन्तु शुकदेव जी कहते हैं कि उनके पिता ने भी ऐसा ही कहा था कि 'मन के विकल्प से ही प्रपंच उत्पन्न होते हैं और उस विकल्प के नष्ट हो जाने पर प्रपंचों का विनाश हो जाता है।' यह जगत् निन्दनीय और सार-रहित है, यह निश्चित है। तब यह जीवन क्या है? इसे बताने की कृपा करें।

इस पर राजा जनक के तत्त्व-दर्शन का उपदेश शुकदेव जी को देते हैं। विदेहराज ने कहा-'हे वत्स! यह दृश्य जगत् है ही नहीं, ऐसा पूर्ण बोध जब हो जाता है, तब दृश्य विषय से मन की शुद्धि हो जाती है। ऐसा ज्ञान पूर्ण होने पर ही उसे निर्वाण प्राप्त होता है व शान्ति मिलती है। जो वासनाओं का त्याग कर देता है, समस्त पदार्थों की आकांक्षा से रहित हो जाता है, जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन एकाग्र और पवित्र है, जो सर्वत्र मोह-रहित है, निष्कामी है, शोक और हर्षोल्लास में समान भाव रखता है, जिसके मन में अहंकार, ईर्ष्या व द्वेष के भाव नहीं हैं, जो त्यागी है, जो धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख, जन्म-मृत्यु आदि के भावों से परे है, वही पुरुष जीवन-मुक्त कहलाता है। ऐसी विदेह-मुक्ति गम्भीर और स्तब्ध होती है। ऐसी अवस्था में सर्वत्र प्रकाश और आनन्द ही अनुभव होता है। यही शिव-स्वरूप चैतन्य है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है।'
विदेहराज राजा जनक के इस तत्त्व-दर्शन को सुनकर शुकदेवजी संशय-रहित होकर परमतत्त्व आत्मा में स्थित होकर शान्त हो गये।

तीसरा अध्याय

संसार नश्वर है यह अध्याय 'निदाघ' मुनि के विचारों को प्रतिपादन करता है। इसमें मायावी जगत् को अनित्य बताया गया है। तृष्णा और देह की निन्दा की गयी है। संसार को दु:खमय सिद्ध किया गया है और वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा का शमन किया गया है।

चौथा अध्याय

मोक्ष क्या है?

इस अध्याय में 'मोक्ष' के चार उपायों का वर्णन है। ये चार-'शम' (मनोनिग्रह), 'विचार,' 'सन्तोष' और 'सत्संग'- हैं। यदि इनमें से एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीन स्वयमेव ही वश में हो जाते हैं। इस नश्वर जगत् से 'मोक्ष' प्राप्त करने के लिए 'तप,' 'दम' (इन्द्रियदमन), 'शास्त्र' एवं 'सत्संग' से सतत अभ्यास द्वारा आत्मचिन्तन करना चाहिए।
गुरु एवं शास्त्र-वचनों के द्वारा अन्त:अनुभूति से अन्त:शुद्धि होती है। उसी के सतत अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार किया जा सकता है। शुभ-अशुभ के श्रवण से, भोजन से, स्पर्श से, दर्शन से और एवं ज्ञान से जिस मनुष्य को न तो प्रसन्नता होती है और न दु:ख होता है, वही मनुष्य शान्त औ समदर्शी कहलाता है। सन्तोष-रूपी अमृत का पान कर ज्ञानी जन आत्मा के महानाद (परमानन्द) को प्राप्त करते हैं। जब इस दृश्य जगत् की सत्ता का अभाव, बोधगम्य हो जाता है, तभी वह संशयरहित ज्ञान को समझ पाता है। यही आत्मा का कैवल्य रूप है। यह जगत् तो मात्र मनोविलास है। मुक्ति की आकांक्षा रखने वाले साधक को 'ब्रह्मतत्त्व' के बाद-विवाद में न पड़कर उसका चिन्तन-भर करना चाहिए।' यहाँ मेरा कुछ नहीं है, सब उसी का है। उसी की शक्ति से आबद्ध हमारा यह अस्तित्त्व है।' ऐसा समझना चाहिए।

पांचवां अध्याय

ज्ञान-अज्ञान की भूमिका इस अध्याय में ज्ञान-अज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख है। महर्षि ऋभु अपने पुत्र से कहते हैं कि 'अज्ञान' और 'ज्ञान' की सात-सात भूमिकाएँ हैं। अहं भाव 'अज्ञान' का मूल स्वरूप है। इसी से 'यह मैं हूं और यह मेरा है' का भाव उत्पन्न होता है। अज्ञान से ही राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और जीव मोहग्रस्त होकर आत्म-स्वरूप से परे हट जाता है।
ज्ञान की पहली भूमिका 'शुभेच्छा' से प्रारम्भ होती है। सत्संगति से वैराग्य उत्पन्न होता है, सदाचार की भावनाएं जाग्रत होत हैं और भोग-वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है। ज्ञानी जन सत्कर्मों में संलग्न रहकर सनातन सदाचरण की परम्परा का निर्वाह करते हैं। ऐसे ज्ञानी पुरुष देहत्याग के पश्चात् 'मुक्ति' के अधिकारी होते हैं।

छठा अध्याय

समाधि और जीवन-मुक्त इस अध्याय में समाधि से परमेश्वर की प्राप्ति, ज्ञानियों की उपासना-विधि, अज्ञानियों की दु:खद स्थिति, वासना-त्याग के उपाय, जीवन्मुक्त व्यक्ति की महिमा आदि का वर्णन किया गया है। किसी भी प्रज्ञावान पुरुष में जगत् की नश्वरता का भाव, निर्भयता, समता, नित्यता, निष्काम दृष्टि, सोम्यता, धैर्य, मैत्री, सन्तोष, मृदुता, मोहहीनता आदि का समावेश रहता है। ऐसा व्यक्ति ही 'जीवन्मुक्त' होता है।


संबंधित लेख

श्रुतियाँ