सैय्यद मुबारक़ अली बिलग्रामी: Difference between revisions
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Revision as of 09:53, 10 May 2011
- सैयद मुबारक अली बिलग्रामी का जन्म संवत 1640 में हुआ था, अत: इनका कविताकाल संवत 1670 के बाद का मानना चाहिए।
- सैयद मुबारक अली बिलग्रामी संस्कृत, फारसी और अरबी के अच्छे पंडित और हिन्दी के सहृदय कवि थे।
- ब्रजभाषा पर इनका पूरा अधिकार था।
- इन्होंने केवल श्रृंगार की ही कविता करते थे।
- इनके सैकड़ों कवित्त और दोहे पुराने काव्यसंग्रहों में मिलते हैं, किंतु अभी तक इनका 'अलकशतक और तिलशतक' ग्रंथ ही उपलब्ध हो सका है, जिसमें सौ दोहे नायिका की अलकों पर और सौ दोहे नायिका के मुखमंडल के तिल पर लिखे गए हैं। इनका जैसा अधिकार दोहों की रचना पर देखने को मिलता है वैसा ही कवित्त और सवैयों की रचना पर भी दिखाई पड़ता है। कविता में इन्होंने अपना नाम 'मुबारक' ही रखा है। जनश्रुति के अनुसार इन्होंने नायिका के दस प्रमुख अंगों में से प्रत्येक पर सौ दोहों की रचना की थी, किंतु अभी तक अलक और तिल इन दो ही अंगों पर सौ सौ दोहे मिल सके हैं। 'शिवसिंह सरोज' में इनकी पाँच कविताएँ संकलित हैं, जिनमें चार कवित्त और एक सवैया है।
- इन दोहों के अतिरिक्त इनके बहुत से कवित्त सवैये संग्रह ग्रंथों में पाए जाते और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं।
- इनकी उत्प्रेक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी होती थी और वर्णन के उत्कर्ष के लिए कभी कभी ये बहुत दूर तक बढ़ जाते थे। कुछ उदाहरण हैं -
परी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होय।
मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोय
चिबुक कूप में मन परयो छबिजल तृषा विचारि।
कढ़ति मुबारक ताहि तिय अलक डोरि सी डारि
चिबुक कूप रसरी अलक तिल सु चरस दृग बैल।
बारी वैस सिंगार को सींचत मनमथ छैल [1]
कनक बरन बाल, नगन लसत भाल,
मोतिन के माल उर सोहैं भलीभाँति है।
चंदन चढ़ाय चारु चंदमुखी मोहनी सी,
प्रात ही अन्हाय पग धारे मुसकाति है।
चूनरी विचित्र स्याम सजि कै मुबारकजू,
ढाँकि नखसिख तें निपट सकुचाति है।
चंद्रमैं लमेटि कै समेटि कै नखत मानो,
दिन को प्रनाम किए राति चली जाति है [2]
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इनका अनुमानित कविता काल संवत 1670 ठहरता है। यद्यपि मोटे तौर पर रीतिकाल का आरंभ संवत 1700 से माना जाता है तथापि केशवदास के समय से कविता की जो श्रृगांर धारा प्रवाहित हो चली थी उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि रीतिकाल का आरंभ कविवर केशवदास से ही मानना समीचीन है, क्योंकि लौकिक श्रृगांर काव्य का प्राधान्य ही रीतिकाल की प्रमुख विशेषता रही है, जिसमें हृदय पक्ष को अछूता न छोड़कर भी चमत्कार का प्राधान्य सुरक्षित था।
- इन्होंने मुबारक़ नाम से कविताएँ लिखी हैं। मुबारक़ भी श्रृगांर के ही कवि हैं और ये केशवदास के जीवनकाल में ही कविता करने लगे थे। इनके काव्य में भी चमत्कारों की प्रधानता है। अलंकारों में उपमा, रूपक, अपह्नुति, संदेह, यमक, अनुप्रास और सर्वाधिक रूप में उत्प्रेक्षा अलंकार इन्हें प्रिय था। इनकी उत्प्रेक्षाएँ बहुत दूर की दौड़ लगाने वाली होने पर भी हृदयावर्जक हैं।
- प्रासादिकता इनकी कविता में सर्वत्र मिलती है। इनकी भाषा साफ सुथरी है, जिसमें पाठक को कहीं उलझन नहीं होती। तत्कालीन लोकप्रिय कवियों में इनका अपना विशिष्ट स्थान है। इनके कितने ही कवित्त आज भी लोगों की जिह्वा पर लोकोक्ति की भाँति विराजते हैं।
- 'आँगुरी तेरी कटेगी कटाछन', 'जु औरै कलपाइहै सो कैसे कल पाइहै', और 'दिन को प्रनाम किए राति चली जाति है' जैसी इनकी उक्तियाँ अत्यंत लोकप्रिय हैं। निस्संदेह मुबारक ऊँचे दर्जे के कवि हैं।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने अपने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ नामक ग्रंथ में हरदोई से संबद्ध रसलीन, सम्मन, कादिर बख्श, सैय्यद मुबारक़ अली बिलग्रामी आदि का उल्लेख किया है।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अलकशतक और तिलशतक से
- ↑ फुटकल से
- ↑ अँजुरी भर धूप (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 5 मई, 2011।