परिमल -सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला': Difference between revisions

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परिमल सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का काव्य-संग्रह है। 1922 ई. में 'अनामिका' नाम से उनका एक काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुका था। इस दृष्टि से यह द्वितीय काव्य-ग्रंथ है। पर इसमें संग्रहीत कविताओं की रचना-तिथियों को देखते हुए इसे प्रथम संग्रह माना जा सकता है।

प्रकाशन

परिमल का प्रकाशन 1921 ई. में हुआ। इस संग्रह में 'जुही की कली' जैसी कविता भी, जो 1916 ई. में लिखी गयी, संगृहीत है। पर सामान्यत: 'मतवाला'[1] में प्रकाशित अधिकांश कविताओं का ही संग्रह इसमें किया गया है।

निराला का प्रगतिशील दृष्टिकोण

'निराला' की बहुवस्तु-स्पर्शिनी प्रतिभा, प्रगतिशील दृष्टिकोण, दार्शनिक तथा बौद्धिक विचारधारा का परिचय 'परिमल' में संगृहीत रचनाओं से मिलने लगता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छायावादियों के सम्बन्ध में भाव-भूमि के संकोच का जो उल्लेख किया है, वह 'निराला' में नहीं पाया जाता। इस काव्य-संग्रह के तीन खण्ड में स्वच्छन्द छन्द का प्रयोग किया गया है तो तृतीय में मुक्तवृत का।

नवीन दृष्टिकोण

भारतीय लोकहितवाद के आन्दोलन की ओर अपने सम-सामयिक कवियों में 'निराला' सबसे पहले उन्मुख हुए। 'परिमल' की भिक्षुक, दीन, विधवा, बादल राग आदि कविताएँ उनके नवीन दृष्टिकोण की सूचना देने के साथ-साथ उनके अप्रतिम भावोन्मेष को भी प्रकट करती है। यह उनके उद्दाम यौवन का काल था। उसकी प्रखर धारा में अवरोधों का टिकना सम्भव न था-"बहने दो, रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है, यौवन मदकी बाढ़ नदी की, किसे देख झुकती है।"

भाषा शैली

'परिमल' के भाषा सहज, मधुर तथा आकर्षक है। अभी उससे अलंकृति का स्पर्श नहीं हो पाया है। संस्कृत के बहुप्रचलित तत्सम शब्दों का उन्होंने धड़ल्ले से प्रयोग किया है। सामासिक पदावली तथा नाद-योजना उनकी शैली की प्रमुख पहचान है। 'तुम और मैं' भाषा की दृष्टि से उनकी प्रतिनिधि रचना कही जा सकती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सन 1924-1925 ई.

बाहरी कड़ियाँ

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