देवकीनन्दन (कवि): Difference between revisions
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फेरि कै न जैहौं आली, | फेरि कै न जैहौं आली, दु:ख बिकरारे हैं। | ||
देवकीनंदन कहै धोखे नागछौनन के, | देवकीनंदन कहै धोखे नागछौनन के, | ||
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबारे हैं | अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबारे हैं |
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चित्र:Disamb2.jpg देवकीनन्दन | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- देवकीनन्दन (बहुविकल्पी) |
देवकीनंदन रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि तथा ग्रंथकार थे। ये काव्यांगों के प्रकाण्ड पण्डित तथा विद्वान थे। इन्होंने ‘शृंगार चरित्र’ नामक ग्रंथ का निर्माण सन 1783 ई. में किया। कवि के प्रौढ़ काव्यशास्त्रीय ज्ञान और उत्कृष्ट कवित्व प्रतिभा का सुंदर परिचय इस ग्रंथ में प्राप्त होता है।
परिचय
देवकीनंदन कन्नौज, उत्तर प्रदेश के समीपस्थ ग्राम मकरंद नगर (ज़िला फ़र्रुख़ाबाद) के निवासी थे। वे कवि शिवनाथ के पुत्र थे। गुरुदत्त इनके भाई थे। शिवसिंह, मिश्रबंधु और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने देवकीनंदन को सषली शुक्ल का पुत्र और शिवनाथ को उनका भाई बताया है, जो खोज विवरणों को देखते हुए ग़लत है। क्योंकि उसमें बार-बार ध्यान इस ओर खींचा गया है कि शिवनाथ कवि के भाई न होकर पिता थे।[1]
आश्रयदाता
कवि देवकीनंदन के दो आश्रयदाता थे-
- उमराव गिरि महंत के पुत्र कुँवर सरफराज गिरि
- रूद्रामऊ मालाएँ (ज़िला हरदोई) के रैकवारवंशीय राजा अवधूत सिंह
इन दोनों आश्रयदाताओं के नाम पर कवि ने एक-एक रचना की है।
रचनाएँ
देवकीनंदन बड़े विद्वान और काव्यांगों के प्रकाण्ड पण्डित थे। अब तक उनकी कुल पाँच रचनाओं का पता लग पाया है-
- शृंगार चरित्र
- सरफराज चंद्रिका
- अवधूत भूषण
- ससुरारि पचीसी
- नखशिख
इनका एक नखशिख भी है। शिवसिंह को इनके इस नखशिख का ही पता था, दूसरे ग्रंथों का नहीं।
शृंगार चरित्र
‘शृंगार चरित्र’ का निर्माण सन 1783 ई. में हुआ। इसके अंतर्गत कवि ने नायक-नायिका, भाव, विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, संचारी, काव्य गुण, वृत्तियों, शब्दार्थ एवं चित्रालंकारों आदि का सम्यक निरूपण किया है। कवि के प्रौढ़ काव्यशास्त्रीय ज्ञान और उत्कृष्ट कवित्व प्रतिभा का सुंदर परिचय इस ग्रंथ में प्राप्त होता है। यह ग्रंथ किसी को समर्पित नहीं किया गया है, जिससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस रचना के निर्माण काल (1783 ई.) तक कवि अवधूत सिंह के यहाँ नहीं गया होगा।[1]
सरफराज चंद्रिका
‘सरफराज चंद्रिका’ का रचनाकाल सन 1783 ई. है। यह अलंकार ग्रंथ कुँवर सरफ़राज गिरि के प्रीत्यर्थ लिखा गया था।
अवधूत भूषण
‘अवधूत भूषण’ का रचना काल सन 1799 ई. है। यह भी एक अलंकार ग्रंथ है, जो रुद्दामऊ, ज़िला हरदोई के राजा अवधूत सिंह नाम पर लिखा गया था। ‘अवधूत भूषण’ ‘शृंगार चरित्र’ का ही किंचित परिवर्द्धित रूपमात्र है।
ससुरारि पचीसी
‘ससुरारि पचीसी’ नामक रचना में कवि ने ससुरारि सुख और नायक-नायिका के कामानंद का शृंगारिक वर्णन किया है।
कला और भाव पक्ष
कवि की उक्त कृतियों का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि कवि का झुकाब कलागत वैशिट्य की ओर ही अधिक है तथापि भावों की सहजता, सरलता, स्वाभाविकता और मार्मिकता को उससे कहीं धक्का नहीं लगने पाया है। कला और भाव का सुंदर समन्वय इस कवि में देखने को मिलता है। इस दृष्टि से देवकीनंदन को पद्माकर की कोटि का कवि कह सकते हैं। प्रखर पाण्डित्य के कारण कहीं-कहीं उनकी कविता क्लिष्ट भी हो गई है; यत्र-तत्र कटु काव्य भी है। कवि के भावों में सर्वत्र लालित्य, माधुर्य और एक सहज अनूठापन है। भाषा साफ-सुथरी और मंजी हुई है।[1] भाव प्रौढ़ हैं, बुद्धि वैभव भी इनकी रचनाओं में पाया जाता है। कला वैचित्रय की ओर अधिक झुकी हुई होने पर भी इनकी कविता में लालित्य और माधुर्य है-
बैठी रंग रावटी में हेरत पिया की बाट,
आए न बिहारी भई निपट अधीर मैं।
देवकीनंदन कहै स्याम घटा घिरि आई,
जानि गति प्रलय की डरानी बहु, बीर मैं
सेज पै सदासिव की मूरति बनाय पूजी,
तीनि डर तीनहू की करी तदबीर मैं।
पाखन में सामरे, सुलाखन में अखैवट,
ताखन में लाखन की लिखी तसवीर मैं
मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारै,
फेरि कै न जैहौं आली, दु:ख बिकरारे हैं।
देवकीनंदन कहै धोखे नागछौनन के,
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबारे हैं
मानि मुख चंदभाव चोंच दई अधारन,
तीनौ ये निकुंजन में एकै तार तारे हैं।
ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे, तैसे,
मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं
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