दीनदयाल गिरि: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "बाग " to "बाग़ ")
No edit summary
Line 55: Line 55:




{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
Line 67: Line 65:
[[Category:कवि]]  
[[Category:कवि]]  
[[Category:रीति_काल]]
[[Category:रीति_काल]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:रीतिकालीन कवि]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]]  
[[Category:चरित कोश]]  
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 12:34, 8 January 2012

बाबा दीनदयाल गिरि गोसाईं थे। इनका जन्म शुक्रवार बसंतपंचमी, संवत् 1859 में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक 'पाठक कुल' में हुआ था। जब ये 5 या 6 वर्ष के थे तभी इनके माता पिता इन्हें महंत कुशागिरि को सौंप चल बसे। महंत कुशागिरि पंचक्रोशी के मार्ग में पड़ने वाले 'देहली विनायक' स्थान के अधिकारी थे। काशी में महंत जी के और भी कई मठ थे। ये विशेषत: गायघाट वाले मठ में रहा करते थे। जब महंत कुशागिरि के मरने पर बहुत सी जायदाद नीलाम हो गई तब ये देहली विनायक के पास मठोली गाँव वाले मठ में रहने लगे। दीनदयाल गिरि संस्कृत और हिन्दी दोनों के अच्छे विद्वान थे। बाबू गोपालचंद्र (गिरिधरदास) से इनका बड़ा स्नेह था। इनका परलोकवास संवत् 1915 में हुआ।

भाषा शैली

दीनदयाल गिरि एक अत्यंत सहृदय और भावुक कवि थे। इनकी सी अन्योक्तियाँ हिन्दी के और किसी कवि की नहीं हुईं। यद्यपि इन अन्योक्तियों के भाव अधिकांश संस्कृत से लिये हुए हैं, पर भाषा शैली की सरसता और पदविन्यास की मनोहरता के विचार से वे स्वतंत्र काव्य के रूप में हैं। बाबा जी का भाषा पर बहुत ही अच्छा अधिकार था। इनकी सी परिष्कृत, स्वच्छ और सुव्यवस्थित भाषा बहुत थोड़े कवियों की है। कहीं कहीं कुछ पूरबीपन या अव्यवस्थित वाक्य मिलते हैं, पर बहुत कम। इसी से इनकी अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिनी हुई हैं। इनका 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' हिन्दी साहित्य में एक अनमोल वस्तु है। अन्योक्ति के क्षेत्र में कवि की मार्मिकता और सौंदर्य भावना के स्फुरण का बहुत अच्छा अवकाश रहता है। पर इसमें अच्छे भावुक कवि ही सफल हो सकते हैं। लौकिक विषयों पर तो इन्होंने सरल अन्योक्तियाँ कही ही हैं; अध्यात्मपक्ष में भी दो-एक रहस्यमयी उक्तियाँ इनकी हैं।

कलापक्ष और भावपक्ष

बाबाजी का जैसा कोमल व्यंजक पदविन्यास पर अधिकार था वैसा ही शब्द चमत्कार आदि के विधान पर भी। यमक और श्लेषमयी रचना भी इन्होंने बहुत सी की है। जिस प्रकार ये अपनी भावुकता हमारे सामने रखते हैं उसी प्रकार चमत्कार कौशल दिखाने में भी नहीं चूकते हैं। इससे जल्दी नहीं कहते बनता कि इनमें कलापक्ष प्रधान है या हृदयपक्ष। बड़ी अच्छी बात इनमें यह है कि इन्होंने दोनों को प्राय: अलग अलग रखा है। अपनी मार्मिक रचनाओं के भीतर इन्होंने चमत्कार प्रवृत्ति का प्रवेश प्राय: नहीं होने दिया है। 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' के आदि में कई श्लिष्ट पद्य आए हैं पर बीच में बहुत कम। इसी प्रकार अनुराग बाग़ में भी अधिकांश रचना शब्द वैचित्रय आदि से मुक्त है। यद्यपि अनुप्रासयुक्त सरस कोमल पदावली का बराबर व्यवहार हुआ है, पर जहाँ चमत्कार का प्रधान उद्देश्य रखकर ये बैठे हैं वहाँ श्लेष, यमक, अंतर्लापिका, बहिर्लापिका सब कुछ मौजूद है। सारांश यह कि ये एक बहुरंगी कवि थे। रचना की विविधा प्रणालियों पर इनका पूर्ण अधिकार था।

रचनाएँ

इनकी लिखी इतनी पुस्तकों का पता है ,

  1. अन्योक्तिकल्पद्रुम (संवत् 1912),
  2. अनुरागबाग़ (संवत् 1888),
  3. वैराग्य दिनेश (संवत् 1906),
  4. विश्वनाथ नवरत्न और
  5. दृष्टांत तरंगिणी (संवत् 1879)।
समय

इस सूची के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1879 से 1912 तक माना जा सकता है। 'अनुरागबाग' में श्रीकृष्ण की विविधा लीलाओं का बड़े ही ललित कवित्तों में वर्णन हुआ है। मालिनीछंद का भी बड़ा मधुर प्रयोग हुआ है। 'दृष्टांत तरंगिणी' में नीतिसंबंधी दोहे हैं। 'विश्वनाथ नवरत्न' शिव की स्तुति है। 'वैराग्य दिनेश' में एक ओर तो ऋतुओं आदि की शोभा का वर्णन है और दूसरी ओर ज्ञान, वैराग्य आदि का। -

केतो सोम कला करौ, करौ सुधा को दान।
नहीं चंद्रमणि जो द्रवै यह तेलिया पखान
यह तेलिया पखान, बड़ी कठिनाई जाकी।
टूटी याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी
बरनै दीनदयाल, चंद! तुमही चित चेतौ।
कूर न कोमल होहिं कला जो कीजे केतौ

बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माहिं।
यह तौ ऊसर भूमि है अंकुर जमिहैं नाहिं
अंकुर जमिहैं नाहिं बरष सत जौ जल दैहै।
गरजै तरजै कहा? बृथा तेरो श्रम जैहै
बरनै दीनदयाल न ठौर कुठौरहि परखै।
नाहक गाहक बिना, बलाहक! ह्याँ तू बरखै

चल चकई तेहि सर विषै, जहँ नहिं रैन बिछोह।
रहत एक रस दिवस ही, सुहृद हंस संदोह।
सुहृद हंस संदोह कोह अरु द्रोह न जाको।
भोगत सुख अंबोह, मोह दुख होय न ताको
बरनै दीनदयाल भाग बिन जाय न सकई।
पिय मिलाप नित रहै, ताहि सर तू चल चकई

कोमल मनोहर मधुर सुरताल सने
नूपुर निनादनि सों कौन दिन बोलिहैं।
नीके मन ही के वृंद वृंदन सुमोतिन को
गहि कै कृपा की अब चोंचन सो तौलिहैं
नेम धारि छेम सों प्रमुद होय दीनद्याल
प्रेम कोकनद बीच कब धौं कलोलिहैं।
चरन तिहारे जदुबंस राजहंस! कब
मेरे मन मानस में मंद मंद डोलिहैं

चरन कमल राजैं, मंजु मंजीर बाजैं।
गमन लखि लजावैं, हंसऊ नाहिं पावैं
सुखद कदमछाहीं, क्रीड़ते कुंज माहीं।
लखि लखि हरि सोभा, चित्त काको न लोभा

बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिं।
जूथ जंबुकन तें नहीं केहरि कहुँ नसि जाहिं
पराधीनता दुख महा सुखी जगत स्वाधीन।
सुखी रमत सुक बन विषै कनक पींजरे दीन


टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 269-71।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख