बख्शी हंसराज: Difference between revisions

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#रामचंद्रिका,  
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#बारहमासा (संवत् 1811)।  
#बारहमासा (संवत् 1811)।  
इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेहसागर' का संपादन श्रीयुत् लाला भगवानदीन जी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं।
इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेहसागर' का संपादन [[लाला भगवानदीन]] जी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं।
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इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा है। कल्पना भावविधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भावविकास के लिए अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेहसागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उध्दृत किए जाते हैं ,  
इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा है। कल्पना भावविधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भावविकास के लिए अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेहसागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उध्दृत किए जाते हैं ,  

Latest revision as of 05:57, 11 January 2014

बख्शी हंसराज श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् 1799 में पन्ना में हुआ था। इनके पूर्वज 'बख्शी हरिकिशुन जी' पन्ना राज्य के मंत्री थे। हंसराज जी पन्ना नरेश 'श्री अमानसिंह जी' के दरबारियों में थे। ये ब्रज की व्यास गद्दी के 'विजयसखी' नामक महात्मा के शिष्य थे, जिन्होंने इनका सांप्रदायिक नाम 'प्रेमसखी' रखा था। 'सखी भाव' के उपासक होने के कारण इन्होंने अत्यंत प्रेम माधुर्यपूर्ण रचनाएँ की हैं। इनके चार ग्रंथ पाए जाते हैं -

  1. सनेहसागर,
  2. विरहविलास,
  3. रामचंद्रिका,
  4. बारहमासा (संवत् 1811)।

इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेहसागर' का संपादन लाला भगवानदीन जी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं।

भाषा

इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा है। कल्पना भावविधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भावविकास के लिए अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेहसागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उध्दृत किए जाते हैं ,

दमकति दिपति देह दामिनि सी चमकत चंचल नैना।
घूँघट बिच खेलत खंजन से उड़ि उड़ि दीठि लगै ना
लटकति ललित पीठ पर चोटी बिच बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहु भुजंगिनी कारी

इत ते चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया।
उत तें अति आतुर आनंद सों आये कुँवर कन्हैया
कसि भौहैं, हँसि कुँवरि राधिका कान्ह कुँवर सों बोली।
अंग अंग उमगि भरे आनंद सौं, दरकति छिन छिन चोली

एरे मुकुटवार चरवाहे! गाय हमारी लीजौ।
जाय न कहूँ तुरत की ब्यानी, सौंपि खरक कै दीजौ
होहु चरावनहार गाय के बाँधानहार छुरैया।
कलि दीजौ तुम आय दोहनी, पावै दूध लुरैया

कोऊ कहूँ आय बनवीथिन या लीला लखि जैहै।
कहि कहि कुटिल कठिन कुटिलन सों सिंगरे ब्रजबगरैहै
जो तुम्हरी इनकी ये बातैं सुनिहैं कीरति रानी।
तौ कैसै पटिहै पाटे तें, घटिहै कुल को पानी



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 243-44।

बाहरी कड़ियाँ

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