कृष्ण (कवि): Difference between revisions

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*[[रीति काल]] के कवि '''कृष्ण''' माथुर चौबे थे और [[बिहारी लाल|बिहारी]] के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं।  
*[[रीति काल]] के कवि '''कृष्ण''' माथुर चौबे थे और [[बिहारी लाल|बिहारी]] के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं।  
*इन्होंने बिहारी के आश्रयदाता महाराज जयसिंह के मंत्री राजा आयामल्ल की आज्ञा से 'बिहारी सतसई' की जो टीका की उसमें महाराज के लिए वर्तमान कालिक क्रिया का प्रयोग किया है और उनकी प्रशंसा भी की है। अत: यह निश्चित है कि यह टीका जयसिंह के जीवनकाल में ही बनी।  
*इन्होंने बिहारी के आश्रयदाता महाराज जयसिंह के मंत्री राजा आयामल्ल की आज्ञा से '[[बिहारी सतसई]]' की जो टीका की उसमें महाराज के लिए वर्तमान कालिक क्रिया का प्रयोग किया है और उनकी प्रशंसा भी की है। अत: यह निश्चित है कि यह टीका जयसिंह के जीवनकाल में ही बनी।  
*महाराज जयसिंह संवत 1799 तक वर्तमान थे। अत: यह टीका संवत 1785 और 1790 के बीच की होगी। इस टीका में कृष्ण ने दोहों के भाव पल्लवित करने के लिए सवैये लगाए हैं और वार्तिक में काव्यांग स्फुट किए हैं।
*महाराज जयसिंह संवत 1799 तक वर्तमान थे। अत: यह टीका संवत 1785 और 1790 के बीच की होगी। इस टीका में कृष्ण ने दोहों के भाव पल्लवित करने के लिए सवैये लगाए हैं और वार्तिक में काव्यांग स्फुट किए हैं।
* काव्यांग इन्होंने अच्छी तरह दिखाए हैं और वे इस टीका के प्रधान अंग हैं, इसी से ये रीति काल के प्रतिनिधि कवियों के बीच ही रखे गए हैं।
* काव्यांग इन्होंने अच्छी तरह दिखाए हैं और वे इस टीका के प्रधान अंग हैं, इसी से ये रीति काल के प्रतिनिधि कवियों के बीच ही रखे गए हैं।

Latest revision as of 13:47, 19 January 2015

  • रीति काल के कवि कृष्ण माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं।
  • इन्होंने बिहारी के आश्रयदाता महाराज जयसिंह के मंत्री राजा आयामल्ल की आज्ञा से 'बिहारी सतसई' की जो टीका की उसमें महाराज के लिए वर्तमान कालिक क्रिया का प्रयोग किया है और उनकी प्रशंसा भी की है। अत: यह निश्चित है कि यह टीका जयसिंह के जीवनकाल में ही बनी।
  • महाराज जयसिंह संवत 1799 तक वर्तमान थे। अत: यह टीका संवत 1785 और 1790 के बीच की होगी। इस टीका में कृष्ण ने दोहों के भाव पल्लवित करने के लिए सवैये लगाए हैं और वार्तिक में काव्यांग स्फुट किए हैं।
  • काव्यांग इन्होंने अच्छी तरह दिखाए हैं और वे इस टीका के प्रधान अंग हैं, इसी से ये रीति काल के प्रतिनिधि कवियों के बीच ही रखे गए हैं।
  • इनकी भाषा सरल और सरस है तथा अनुप्रास आदि की ओर बहुत कम झुकी है। दोहों पर जो सवैये इन्होंने लगाए हैं उनसे इनकी सहृदयता, रचना कौशल और भाषा पर अधिकार अच्छी तरह प्रमाणित होता है। इनके सवैये इस प्रकार हैं -

सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन सदा, बसौ बिहारी लाल
छबि सों फबि सीस किरीट बन्यो रुचिसाल हिए बनमाल लसै।
कर कंजहि मंजु रली मुरली, कछनी कटि चारु प्रभा बरसै
कबि कृष्ण कहैं लखि सुंदर मूरति यों अभिलाष हिए सरसै।
वह नंद किसोर बिहारी सदा यहि बानिक मों हिय माँझ बसै

थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि।
तुमहू कान्ह मनौ भए आजुकाल के दानि
ह्वै अति आरत मैं बिनती बहु बार करी करुना रस भीनी।
कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु सुनी असुनी तुम काहे को कीनी
रीझते रंचक ही गुन सों वह बानि बिसारि मनो अब दीनी।
जानि परी तुमहू हरि जू! कलिकाल के दानिन की गति लीनी

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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