इस तरह उपेक्षा मेरी, क्यों करते हो मतवाले! आशा के कितने अंकुर, मैंने हैं उर में पाले॥ विश्वास-वारि से उनको, मैंने है सींच बढ़ाए। निर्मल निकुंज में मन के, रहती हूँ सदा छिपाए॥ मेरी साँसों की लू से, कुछ आँच न उनमें आए। मेरे अंतर की ज्वाला, उनको न कभी झुलसाए॥ कितने प्रयत्न से उनको, मैं हृदय-नीड़ में अपने, बढ़ते लख खुश होती थी, देखा करती थी सपने॥ इस भांति उपेक्षा मेरी, करके मेरी अवहेला, तुमने आशा की कलियाँ मसलीं खिलने की बेला॥