यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिर की इस गगन में, कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में? मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में! इस उजाड़ निर्जन खंडहर में, छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में तुझे रूप सजाने की सूझी, इस सत्यानाश प्रहर में! डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया - तराना, और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना; हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से, उधर तुझे भाता है इन पर नमक हाय, छिड़कना! महल कहां बस, हमें सहारा, केवल फूस-फास, तॄणदल का; अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का, गम, आँसू या गंगाजल का;