जाग-जाग सुकेशिनी री! अनिल ने आ मृदुल हौले शिथिल वेणी-बन्धन खोले पर न तेरे पलक डोले बिखरती अलकें, झरे जाते सुमन, वरवेशिनी री! छाँह में अस्तित्व खोये अश्रु से सब रंग धोये मन्दप्रभ दीपक सँजोये, पंथ किसका देखती तू अलस स्वप्न - निमेषिनी री? रजत - तारों घटा बुन बुन गगन के चिर दाग़ गिन-गिन श्रान्त जग के श्वास चुन-चुन सो गई क्या नींद की अज्ञात- पथ निर्देशिनी री? दिवस की पदचाप चंचल श्रान्ति में सुधि-सी मधुर चल आ रही है निकट प्रतिपल, निमिष में होगा अरुण-जग ओ विराग-निवेशिनी री? रूप-रेखा - उलझनों में कठिन सीमा - बन्धनों में जग बँधा निष्ठुर क्षणों में अश्रुमय कोमल कहाँ तू आ गई परदेशिनी री?