हे चिर महान्! महादेवी वर्मा हे चिर महान्! यह स्वर्ण रश्मि छू श्वेत भाल, बरसा जाती रंगीन हास; सेली बनता है इन्द्रधनुष परिमल मल मल जाता बतास! पर रागहीन तू हिमनिधान! नभ में गर्वित झुकता न शीश पर अंक लिये है दीन क्षार; मन गल जाता नत विश्व देख, तन सह लेता है कुलिश-भार! कितने मृदु, कितने कठिन प्राण! टूटी है कब तेरी समाधि, झंझा लौटे शत हार-हार; बह चला दृगों से किन्तु नीर सुनकर जलते कण की पुकार! सुख से विरक्त दु:ख में समान! मेरे जीवन का आज मूक तेरी छाया से हो मिलाप, तन तेरी साधकता छू ले, मन ले करुणा की थाह नाप! उर में पावस दृग में विहान!