जब यह दीप थके महादेवी वर्मा जब यह दीप थके तब आना। यह चंचल सपने भोले है, दृग-जल पर पाले मैने, मृदु पलकों पर तोले हैं; दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों मे पहुँचाना! साधें करुणा-अंक ढली है, सान्ध्य गगन-सी रंगमयी पर पावस की सजला बदली है; विद्युत के दे चरण इन्हें उर-उर की राह बताना! यह उड़ते क्षण पुलक-भरे है, सुधि से सुरभित स्नेह-धुले, ज्वाला के चुम्बन से निखरे है; दे तारो के प्राण इन्ही से सूने श्वास बसाना! यह स्पन्दन है अंक-व्यथा के चिर उज्जवल अक्षर जीवन की बिखरी विस्मृत क्षार-कथा के; कण का चल इतिहास इन्हीं से लिख-लिख अजर बनाना! लौ ने वर्ती को जाना है वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने रज का अंचल पहचाना है; चिर बन्धन में बाँध इन्हें धुलने का वर दे जाना!