बिछा प्रतीक्षा-पथ पर चिंतित नयनों के मदु मुक्ता-जाल। उनमें जाने कितनी ही अभिलाषाओं के पल्लव पाल॥ बिता दिए मैंने कितने ही व्याकुल दिन, अकुलाई रात। नीरस नैन हुए कब करके उमड़े आँसू की बरसात॥ मैं सुदूर पथ के कलरव में, सुन लेने को प्रिय की बात। फिरती विकल बावली-सी सहती अपवादों के आघात॥ किंतु न देखा उन्हें अभी तक इन ललचाई आँखों ने। संकोचों में लुटा दिया सब कुछ, सकुचाई आँखों ने॥ अब मोती के जाल बिछाकर, गिनतीं हैं नभ के तारे। इनकी प्यास बुझाने को सखि! आएंगे क्या फिर प्यारे?