बेनी प्रवीन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 07:58, 7 November 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "शृंगार" to "श्रृंगार")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
  • बेनी प्रवीन लखनऊ के वाजपेयी थे और लखनऊ के बादशाह 'गाज़ीउद्दीन हैदर' के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवल कृष्ण उर्फ ललन जी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से संवत 1874 में इन्होंने 'नवरसतरंग' नामक ग्रंथ बनाया। इसके पहले 'श्रृंगार भूषण' नामक एक ग्रंथ यह बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिए महाराज नानाराव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर 'नानारावप्रकाश' नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था।
  • इनका कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित न हुआ। इनके फुटकर कवित्त संग्रहीत मिलते हैं। कहते हैं कि बेनी बंदीजन (भँड़ौवावाले) से इनसे एक बार कुछ वाद हुआ था जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने इन्हें 'प्रवीन' की उपाधि दी थी। पीछे से रुग्ण होकर ये सपत्नीक आबू चले गए और वहीं इनका शरीरपात हुआ। इन्हें कोई पुत्र न था।
  • इनका 'नवरसतरंग' बहुत ही मनोहर ग्रंथ है। उसमें नायिका भेद के उपरांत रस भेद और भाव भेद का संक्षेप में निरूपण हुआ है। रीतिकाल के रस संबंधी और ग्रंथों की भाँति यह श्रृंगार का ही ग्रंथ है। इनमें नायिका भेद के अंतर्गत प्रेम क्रीड़ा की बहुत ही सुंदर कल्पनाएँ भरी पड़ी हैं।
  • भाषा इनकी बहुत साफ़ सुथरी और चलती है। ऋतुओं के वर्णन भी उद्दीपन की दृष्टि से जहाँ तक रमणीय हो सकते हैं किए गए हैं, जिनमें प्रथानुसार भोगविलास की सामग्री भी बहुत कुछ आ गई है। अभिसारिका आदि कुछ नायिकाओं के वर्णन बड़े ही सरस हैं।
  • ये ब्रजभाषा के मतिराम जैसे कवियों के समकक्ष हैं और कहीं कहीं तो भाषा और भाव के माधुर्य में पद्माकर तक से टक्कर लेते हैं।
  • यह श्रृंगार के सवैया ये विशेष उपयुक्त समझते थे।

भोर ही न्योति गई ती तुम्है वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी
आवै हँसी मोहिं देखत लालन, भाल में दीन्हीं महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमंडल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी
जान्यौं न मैं ललिता अलि ताहि जो सोवत माँहि गई करि झाँसी।
लाए हिए नख केहरि के सम, मेरी तऊ नहिं नींद बिनाँसी
लै गयी अंबर बेनी प्रवीन ओढ़ाय लटी दुपटी दुखरासी।
तोरि तनी, तन छोरि अभूषन भूलि गई गर देन को फाँसी
घनसार पटीर मिलै मिलै नीर चहै तन लावै न लावै चहै।
न बुझे बिरहागिन झार, झरी हू चहै घन लागे न लावै चहै
हम टेरि सुनावतिं बेनी प्रवीन चहै मन लावै, न लावै चहै।
अब आवै बिदेस तें पीतम गेह चहै धान लावै, न लावै चहै
काल्हि की गूँथी बाबा की सौं मैं गजमोतिन की पहिरी अतिआला।
आई कहाँ ते यहाँ पुखराज की, संग एई जमुना तट बाला
न्हात उतारी हौं बेनी प्रवीन, हसैं सुनि बैनन नैन रसाला।
जानति ना अंग की बदली, सब सों, 'बदली-बदली' कहै माला

सोभा पाई कुंज भौन जहाँ जहाँ कीन्हों गौन,
सरस सुगंधा पौन पाई मधुपनि है।
बीथिन बिथोरे मुकताहल मराल पाए,
आली दुसाल साल पाए अनगनि हैं
रैन पाई चाँदनी फटक सी चटक रुख,
सुख पायो पीतम प्रबीन बेनी धानि है।
बैन पाई सारिका, पढ़न लागी कारिका,
सो आई अभिसारिका कि चारु चिंतामनि है


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः