यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है? ज्योति-शर से पूर्व का रीता अभी तूणीर भी है, कुहर-पंखों से क्षितिज रूँधे विभा का तीर भी है, क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है ? छंद-रचना-सी गगन की रंगमय उमड़े नहीं घन, विहग-सरगम में न सुन पड़ता दिवस के यान का स्वन, पंक-सा रथचक्र से लिपटा अँधेरा है । रोकती पथ में पगों को साँस की जंजीर दुहरी, जागरण के द्वार पर सपने बने निस्पृह प्रहरी, नयन पर सूने क्षणों का अचल घेरा है । दीप को अब दूँ विदा, या आज इसमें स्नेह ढालूँ ? दूँ बुझा, या ओट में रख दग्ध बाती को सँभालूँ ? किरण-पथ पर क्यों अकेला दीप मेरा है ? यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है?