सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला! जिसने उसको ज्वाला सौंपी उसने इसमें मकरंद भरा, आलोक लुटाता वह घुल-घुल देता झर यह सौरभ बिखरा! दोनों संगी, पथ एक, किंतु कब दीप खिला कब फूल जला? वह अचल धरा को भेंट रहा शत-शत निर्झर में हो चंचल, चिर परिधि बन भू को घेरे इसका उर्मिल नित करूणा-जल कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरि ने निर्मम तन बदला? नभ तारक-सा खंडित पुलकित यह क्षुद्र-धारा को चूम रहा, वह अंगारों का मधु-रस पी केशर-किरणों-सा झूम रहा, अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक पिघला? नीलम मरकत के संपुट दो जिसमें बनता जीवन-मोती, इसमें ढलते सब रंग-रुप उसकी आभा स्पंदन होती! जो नभ में विद्युत-मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला! संसृति के प्रति पग में मेरी साँसों का नव अंकन चुन लो, मेरे बनने-मिटने में नित अपने साधों के क्षण गिन लो! जलते खिलते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला! सपने सपने में सत्य ढला!