ब्राह्मण ग्रन्थों का सांस्कृतिक वैशिष्ट्य: Difference between revisions

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'''सांस्कृतिक वैशिष्ट्य'''<br />
[[ब्राह्मण ग्रन्थ|ब्राह्मण-ग्रन्थों]] की सर्वाधिक उपादेयता यज्ञ-संस्था के उद्भव और विकास को समझने की दृष्टि से है। यज्ञों के स्वरूप और सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्य-कलाप की कार्य-कारण-मीमांसा ब्राह्मणग्रन्थों की अपनी विशिष्ट उपलब्धि है। यज्ञ-संस्था वैदिक धर्म की धुरी है। शबरस्वामी ने याग के अनुष्ठाता को ही धार्मिक कहा है।<ref>यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते। यश्च यस्य कर्ता, स तेन व्यपदिश्यते, यथा पाचको लावक इति। तेन य: पुरुषो नि:श्रेयसेन संयुनक्ति, से धर्मशब्देन उच्यते। न केवलं लोके, वेदेऽपि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् (ऋग्वेद 10.90.16) इति यजतिशब्दवाच्यमेव धर्मं समामनन्ति- जैमनीय मीमांसासूत्र 1.1.1. पर शाबरभाष्य। </ref> सम्पूर्ण वैदिक मन्त्रराशि (आम्नाय) को क्रियार्थक सिद्ध करने में ही ब्राह्मणग्रन्थों और पूर्वमीमांसा ने अपनी सार्थकता समझी है। एक दिन से लेकर सहस्रसंवत्सर-साध्य यागों के विस्तृत विधि-विधान की प्रस्तुति में, ब्राह्मणग्रन्थों के योगदान का पूर्ण आकलन दु:साध्य ही है। आज श्रौतयागों के सम्पादन का वातावरण भले ही न हो, किन्तु युगविशेष में उनके प्रचुर प्रचलन की उपेक्षा नहीं की जा सकतीं आज भी, विज्ञान की मान्यताओं के सन्दर्भ में उनकी उपादेयता को प्रबुद्ध वर्ग स्वीकार कर ही रहा है। कालान्तर, से यज्ञों के द्रव्यात्मक रूप में साथ ही स्वाध्याय और जप-यज्ञ की अवधारणाएँ सम्मिलित हो गईं। समय के परिवर्तन के साथ ही अनेक वैदिक यज्ञों में तान्त्रिक क्रियाओं का समावेश भी होता रहा। ब्राह्मणग्रन्थ इन सभी परिवर्तनों के साक्षी हैं।
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[[ब्राह्मण ग्रन्थ|ब्राह्मण-ग्रन्थों]] की सर्वाधिक उपादेयता यज्ञ-संस्था के उद्भव और विकास को समझने की दृष्टि से है। यज्ञों के स्वरूप और सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्य-कलाप की कार्य-कारण-मीमांसा ब्राह्मणग्रन्थों की अपनी विशिष्ट उपलब्धि है। यज्ञ-संस्था वैदिक धर्म की धुरी है। शबरस्वामी ने याग के अनुष्ठाता को ही धार्मिक कहा है।<ref>यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते। यश्च यस्य कर्ता, स तेन व्यपदिश्यते, यथा पाचको लावक इति। तेन य: पुरुषो नि:श्रेयसेन संयुनक्ति, से धर्मशब्देन उच्यते। न केवलं लोके, वेदेऽपि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् (ऋग्वेद 10.90.16) इति यजतिशब्दवाच्यमेव धर्मं समामनन्ति- जैमनीय मीमांसासूत्र 1.1.1. पर शाबरभाष्य। </ref> सम्पूर्ण वैदिक मन्त्रराशि (आम्नाय) को क्रियार्थक सिद्ध करने में ही ब्राह्मणग्रन्थों और पूर्वमीमांसा ने अपनी सार्थकता समझी है। एक दिन से लेकर सहस्रसंवत्सर-साध्य यागों के विस्तृत विधि-विधान की प्रस्तुति में, ब्राह्मणग्रन्थों के योगदान का पूर्ण आकलन दु:साध्य ही है। आज श्रौतयागों के सम्पादन का वातावरण भले ही न हो, किन्तु युगविशेष में उनके प्रचुर प्रचलन की उपेक्षा नहीं की जा सकतीं आज भी, विज्ञान की मान्यताओं के सन्दर्भ में उनकी उपादेयता को प्रबुद्ध वर्ग स्वीकार कर ही रहा है। [[कालान्तर]], से यज्ञों के द्रव्यात्मक रूप में साथ ही स्वाध्याय और जप-यज्ञ की अवधारणाएँ सम्मिलित हो गईं। समय के परिवर्तन के साथ ही अनेक वैदिक यज्ञों में तान्त्रिक क्रियाओं का समावेश भी होता रहा। ब्राह्मणग्रन्थ इन सभी परिवर्तनों के साक्षी हैं।
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[[गंगा नदी|गंगा]], [[यमुना नदी|यमुना]] की अन्तर्वेदी और [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] के तटों पर निवास करने वाले जन-समुदाय की सम्पूर्ण धार्मिक आस्थाओं की संचिकाएँ हैं ब्राह्मणग्रन्थ। धर्म का यज्ञ-यागात्मक स्वरूप आज सरस्वती की धारा के समान ही इंगितवेद्य हो चुका है। विद्वानों का विचार है कि भक्ति-आन्दोलन की प्रबलता ने भी व्ययसाध्य यज्ञों के सम्पादन के स्थान पर अन्य क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया। धर्म के द्वितीय स्वरूप जिसका निर्माण स्वाध्याय, मन्त्र-जप, तीर्थ-दर्शन और व्रत-उपवासों से हुआ है, को भी ब्राह्मणग्रन्थों में अभिव्यक्ति मिली। गंगा की निर्मल धारा के समान धर्म का यह रूप आज भी जनमानस का सबसे बड़ा सम्बल है। धर्म के तृतीय रूप में टोने-टोटके, अभिचार-कृत्य और झाड़-फूँक आते हैं। यह समाज के सामान्यवर्ग में अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है। यमुना की नील-शबल जलराशि से इसकी समानता प्रतीत होती है। [[अथर्ववेद]] के अनन्तर सामविधान और [[षडविंश ब्राह्मण]] प्रभृति ब्राह्मण-ग्रन्थों ने इन धार्मिक आस्थाओं को भी ऋचाओं और सामों की उदात्तता से मण्डित करने की चेष्टा की। ब्राह्मण-ग्रन्थों में विद्यमान इस त्रिविध स्वरूप का ही उपबृंहण कालान्तर से स्मृतियों तथा इतिहास और पुराणसाहित्य में हुआ। प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल और आचार-व्यवहार की दृष्टि से भी ब्राह्मण-ग्रन्थों की उपादेयता असन्दिग्ध है। महर्षि [[यास्क]] ने 'निरुक्त' में जिस 'धात्वर्थवाद' का पल्लवन किया, उसका बीजारोपण ब्राह्मणों में ही हो चुका था।  
[[गंगा नदी|गंगा]], [[यमुना नदी|यमुना]] की अन्तर्वेदी और [[सरस्वती]] के तटों पर निवास करने वाले जन-समुदाय की सम्पूर्ण धार्मिक आस्थाओं की संचिकाएँ हैं ब्राह्मणग्रन्थ। धर्म का यज्ञ-यागात्मक स्वरूप आज सरस्वती की धारा के समान ही इंगितवेद्य हो चुका है। विद्वानों का विचार है कि भक्ति-आन्दोलन की प्रबलता ने भी व्ययसाध्य यज्ञों के सम्पादन के स्थान पर अन्य क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया। धर्म के द्वितीय स्वरूप जिसका निर्माण स्वाध्याय, मन्त्र-जप, तीर्थ-दर्शन और व्रत-उपवासों से हुआ है, को भी ब्राह्मणग्रन्थों में अभिव्यक्ति मिली। गंगा की निर्मल धारा के समान धर्म का यह रूप आज भी जनमानस का सबसे बड़ा सम्बल है। धर्म के तृतीय रूप में टोने-टोटके, अभिचार-कृत्य और झाड़-फूँक आते हैं। यह समाज के सामान्यवर्ग में अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है। यमुना की नील-शबल जलराशि से इसकी समानता प्रतीत होती है। [[अथर्ववेद]] के अनन्तर सामविधान और [[षडविंश ब्राह्मण]] प्रभृति ब्राह्मण-ग्रन्थों ने इन धार्मिक आस्थाओं को भी ऋचाओं और सामों की उदात्तता से मण्डित करने की चेष्टा की। ब्राह्मण-ग्रन्थों में विद्यमान इस त्रिविध स्वरूप का ही उपबृंहण कालान्तर से स्मृतियों तथा इतिहास और पुराणसाहित्य में हुआ। प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल और आचार-व्यवहार की दृष्टि से भी ब्राह्मण-ग्रन्थों की उपादेयता असन्दिग्ध है। महर्षि यास्क ने 'निरुक्त' में जिस 'धात्वर्थवाद' का पल्लवन किया, उसका बीजारोपण ब्राह्मणों में ही हो चुका था।  
 
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Latest revision as of 13:35, 26 December 2012

सांस्कृतिक वैशिष्ट्य

अन्य सम्बंधित लेख


ब्राह्मण-ग्रन्थों की सर्वाधिक उपादेयता यज्ञ-संस्था के उद्भव और विकास को समझने की दृष्टि से है। यज्ञों के स्वरूप और सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्य-कलाप की कार्य-कारण-मीमांसा ब्राह्मणग्रन्थों की अपनी विशिष्ट उपलब्धि है। यज्ञ-संस्था वैदिक धर्म की धुरी है। शबरस्वामी ने याग के अनुष्ठाता को ही धार्मिक कहा है।[1] सम्पूर्ण वैदिक मन्त्रराशि (आम्नाय) को क्रियार्थक सिद्ध करने में ही ब्राह्मणग्रन्थों और पूर्वमीमांसा ने अपनी सार्थकता समझी है। एक दिन से लेकर सहस्रसंवत्सर-साध्य यागों के विस्तृत विधि-विधान की प्रस्तुति में, ब्राह्मणग्रन्थों के योगदान का पूर्ण आकलन दु:साध्य ही है। आज श्रौतयागों के सम्पादन का वातावरण भले ही न हो, किन्तु युगविशेष में उनके प्रचुर प्रचलन की उपेक्षा नहीं की जा सकतीं आज भी, विज्ञान की मान्यताओं के सन्दर्भ में उनकी उपादेयता को प्रबुद्ध वर्ग स्वीकार कर ही रहा है। कालान्तर, से यज्ञों के द्रव्यात्मक रूप में साथ ही स्वाध्याय और जप-यज्ञ की अवधारणाएँ सम्मिलित हो गईं। समय के परिवर्तन के साथ ही अनेक वैदिक यज्ञों में तान्त्रिक क्रियाओं का समावेश भी होता रहा। ब्राह्मणग्रन्थ इन सभी परिवर्तनों के साक्षी हैं।


गंगा, यमुना की अन्तर्वेदी और सरस्वती के तटों पर निवास करने वाले जन-समुदाय की सम्पूर्ण धार्मिक आस्थाओं की संचिकाएँ हैं ब्राह्मणग्रन्थ। धर्म का यज्ञ-यागात्मक स्वरूप आज सरस्वती की धारा के समान ही इंगितवेद्य हो चुका है। विद्वानों का विचार है कि भक्ति-आन्दोलन की प्रबलता ने भी व्ययसाध्य यज्ञों के सम्पादन के स्थान पर अन्य क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया। धर्म के द्वितीय स्वरूप जिसका निर्माण स्वाध्याय, मन्त्र-जप, तीर्थ-दर्शन और व्रत-उपवासों से हुआ है, को भी ब्राह्मणग्रन्थों में अभिव्यक्ति मिली। गंगा की निर्मल धारा के समान धर्म का यह रूप आज भी जनमानस का सबसे बड़ा सम्बल है। धर्म के तृतीय रूप में टोने-टोटके, अभिचार-कृत्य और झाड़-फूँक आते हैं। यह समाज के सामान्यवर्ग में अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है। यमुना की नील-शबल जलराशि से इसकी समानता प्रतीत होती है। अथर्ववेद के अनन्तर सामविधान और षडविंश ब्राह्मण प्रभृति ब्राह्मण-ग्रन्थों ने इन धार्मिक आस्थाओं को भी ऋचाओं और सामों की उदात्तता से मण्डित करने की चेष्टा की। ब्राह्मण-ग्रन्थों में विद्यमान इस त्रिविध स्वरूप का ही उपबृंहण कालान्तर से स्मृतियों तथा इतिहास और पुराणसाहित्य में हुआ। प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल और आचार-व्यवहार की दृष्टि से भी ब्राह्मण-ग्रन्थों की उपादेयता असन्दिग्ध है। महर्षि यास्क ने 'निरुक्त' में जिस 'धात्वर्थवाद' का पल्लवन किया, उसका बीजारोपण ब्राह्मणों में ही हो चुका था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते। यश्च यस्य कर्ता, स तेन व्यपदिश्यते, यथा पाचको लावक इति। तेन य: पुरुषो नि:श्रेयसेन संयुनक्ति, से धर्मशब्देन उच्यते। न केवलं लोके, वेदेऽपि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् (ऋग्वेद 10.90.16) इति यजतिशब्दवाच्यमेव धर्मं समामनन्ति- जैमनीय मीमांसासूत्र 1.1.1. पर शाबरभाष्य।

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