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छीतस्वामी [[विट्ठलनाथ]] जी के शिष्य और [[अष्टछाप]] के अंतर्गत थे। पहले ये [[मथुरा]] के सुसम्पन्न पंडा थे और राजा [[बीरबल]] जैसे लोग इनके जजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्री[[कृष्ण]] का गुणगान करने लगे।
'''छीतस्वामी''' [[विट्ठलनाथ]] जी के शिष्य और [[अष्टछाप]] के अंतर्गत थे। पहले ये [[मथुरा]] के सुसम्पन्न पंडा थे और राजा [[बीरबल]] जैसे लोग इनके जजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्री[[कृष्ण]] का गुणगान करने लगे।
इनकी रचनाओं का समय सन् 1555 ई. के आसपास माना जाता हैं।
==परिचय==
==परिचय==
अष्टछाप के कवियों में छीतस्वामी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त गृहस्थ-जीवन बिताते हुए तथा अपने ही घर रहते हुए श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा की। ये [[मथुरा]] के रहने वाले चौबे थे। इनका जन्म अनुमानत: सन् 1510 ई. के आसपास, सम्प्रदाय प्रवेश सन् 1535 ई. तथा गोलोकवास सन् 1585 ई. में हुआ था। वार्ता में लिखा है कि ये बड़े मसखरे, लम्पट और गुण्डे थे। एक बार गोसाई विट्ठलनाथ की परीक्षा लेने के लिए वे अपने चार चौबे मित्रों के साथ उन्हें एक खोटा रुपया और एक थोथा नारियल भेंट करने गये, किन्तु विट्ठलनाथ को देखते ही इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने हाथ जोड़कर गोसाईं जी से क्षमा याचना की और उनसे शरण में लेने की प्रार्थना की। शरण में लेने के बाद गोसाईं जी ने श्रीनाथ जी की सेवा-प्रणाली के निर्माण में छीतस्वामी से बहुत सहायता ली। महाराज [[बीरबल]] के वे पुरोहित थे और उनसे वार्षिक वृत्ति पाते थे। एक बार बीरबल को उन्होंने एक पद सुनाया, जिसमें गोस्वामी जी की साक्षात [[कृष्ण]] के रूप में प्रशंसा वर्णित थी। बीरबल ने उस पद की सराहना नहीं की। इस पर छीतस्वामी अप्रसन्न हो गये और उन्होंने बीरबल से वार्षिक वृत्ति लेना बन्द कर दिया। गोसाईं जी ने लाहौर के वैष्णवों से उनके लिए वार्षिक वृत्ति का प्रबन्ध कर दिया। कविता और संगीत दोनों में छीतस्वामी बड़े निपुण थे। प्सिद्ध है कि [[अकबर]] भी उनके पद सुनने के लिए भेष बदलकर आते थे।  
अष्टछाप के कवियों में छीतस्वामी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त गृहस्थ-जीवन बिताते हुए तथा अपने ही घर रहते हुए श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा की। ये [[मथुरा]] के रहने वाले चौबे थे। इनका जन्म अनुमानत: सन् 1510 ई. के आसपास, सम्प्रदाय प्रवेश सन् 1535 ई. तथा गोलोकवास सन् 1585 ई. में हुआ था। वार्ता में लिखा है कि ये बड़े मसखरे, लम्पट और गुण्डे थे। एक बार गोसाई विट्ठलनाथ की परीक्षा लेने के लिए वे अपने चार चौबे मित्रों के साथ उन्हें एक खोटा रुपया और एक थोथा नारियल भेंट करने गये, किन्तु विट्ठलनाथ को देखते ही इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने हाथ जोड़कर गोसाईं जी से क्षमा याचना की और उनसे शरण में लेने की प्रार्थना की। शरण में लेने के बाद गोसाईं जी ने श्रीनाथ जी की सेवा-प्रणाली के निर्माण में छीतस्वामी से बहुत सहायता ली। महाराज [[बीरबल]] के वे पुरोहित थे और उनसे वार्षिक वृत्ति पाते थे। एक बार बीरबल को उन्होंने एक पद सुनाया, जिसमें गोस्वामी जी की साक्षात [[कृष्ण]] के रूप में प्रशंसा वर्णित थी। बीरबल ने उस पद की सराहना नहीं की। इस पर छीतस्वामी अप्रसन्न हो गये और उन्होंने बीरबल से वार्षिक वृत्ति लेना बन्द कर दिया। गोसाईं जी ने लाहौर के वैष्णवों से उनके लिए वार्षिक वृत्ति का प्रबन्ध कर दिया। कविता और संगीत दोनों में छीतस्वामी बड़े निपुण थे। प्रसिद्ध है कि [[अकबर]] भी उनके पद सुनने के लिए भेष बदलकर आते थे।  
==रचनायें==
==रचनायें==
छीतस्वामी के केवल 64 पदों का पता चला है। उनका अर्थ-विषय भी वही है, जो अष्टछाप के अन्य प्रसिद्ध कवियों के पदों का है यथा-आठ पहर की सेवा, कृष्ण लीला के विविध प्रसंग, गोसाईं जी की बधाई आदि। इनके पदों का एक संकलन विद्या-विभाव, कांकरौली से 'छीतस्वामी' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है।
इनकी रचनाओं का समय सन् 1555 ई. के आसपास माना जाता हैं। छीतस्वामी के केवल 64 पदों का पता चला है। उनका अर्थ-विषय भी वही है, जो अष्टछाप के अन्य प्रसिद्ध कवियों के पदों का है यथा-आठ पहर की सेवा, कृष्ण लीला के विविध प्रसंग, गोसाईं जी की बधाई आदि। इनके पदों का एक संकलन विद्या-विभाग, कांकरौली से 'छीतस्वामी' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है।
इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है।
इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है।
==पद==  
==पद==  
‘हे विधना तोसों अँचरा पसारि माँगौ जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो’
‘हे विधना तोसों अँचरा पसारि माँगौ जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो’


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[सहायक ग्रन्थ-
[सहायक ग्रन्थ-
#दो सौ वैष्णवन की वार्ता: अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय: डा. दीनदयाल गुप्त;  
#दो सौ वैष्णवन की वार्ता: अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय: डॉ. दीनदयाल गुप्त;  
#अष्टछाप परिचय: प्रभुदयाल मीतल।]
#अष्टछाप परिचय: प्रभुदयाल मीतल।]
   
   
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 09:51, 4 February 2021

छीतस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे। पहले ये मथुरा के सुसम्पन्न पंडा थे और राजा बीरबल जैसे लोग इनके जजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगे।

परिचय

अष्टछाप के कवियों में छीतस्वामी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त गृहस्थ-जीवन बिताते हुए तथा अपने ही घर रहते हुए श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा की। ये मथुरा के रहने वाले चौबे थे। इनका जन्म अनुमानत: सन् 1510 ई. के आसपास, सम्प्रदाय प्रवेश सन् 1535 ई. तथा गोलोकवास सन् 1585 ई. में हुआ था। वार्ता में लिखा है कि ये बड़े मसखरे, लम्पट और गुण्डे थे। एक बार गोसाई विट्ठलनाथ की परीक्षा लेने के लिए वे अपने चार चौबे मित्रों के साथ उन्हें एक खोटा रुपया और एक थोथा नारियल भेंट करने गये, किन्तु विट्ठलनाथ को देखते ही इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने हाथ जोड़कर गोसाईं जी से क्षमा याचना की और उनसे शरण में लेने की प्रार्थना की। शरण में लेने के बाद गोसाईं जी ने श्रीनाथ जी की सेवा-प्रणाली के निर्माण में छीतस्वामी से बहुत सहायता ली। महाराज बीरबल के वे पुरोहित थे और उनसे वार्षिक वृत्ति पाते थे। एक बार बीरबल को उन्होंने एक पद सुनाया, जिसमें गोस्वामी जी की साक्षात कृष्ण के रूप में प्रशंसा वर्णित थी। बीरबल ने उस पद की सराहना नहीं की। इस पर छीतस्वामी अप्रसन्न हो गये और उन्होंने बीरबल से वार्षिक वृत्ति लेना बन्द कर दिया। गोसाईं जी ने लाहौर के वैष्णवों से उनके लिए वार्षिक वृत्ति का प्रबन्ध कर दिया। कविता और संगीत दोनों में छीतस्वामी बड़े निपुण थे। प्रसिद्ध है कि अकबर भी उनके पद सुनने के लिए भेष बदलकर आते थे।

रचनायें

इनकी रचनाओं का समय सन् 1555 ई. के आसपास माना जाता हैं। छीतस्वामी के केवल 64 पदों का पता चला है। उनका अर्थ-विषय भी वही है, जो अष्टछाप के अन्य प्रसिद्ध कवियों के पदों का है यथा-आठ पहर की सेवा, कृष्ण लीला के विविध प्रसंग, गोसाईं जी की बधाई आदि। इनके पदों का एक संकलन विद्या-विभाग, कांकरौली से 'छीतस्वामी' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है।

पद

‘हे विधना तोसों अँचरा पसारि माँगौ जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो’



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

[सहायक ग्रन्थ-

  1. दो सौ वैष्णवन की वार्ता: अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय: डॉ. दीनदयाल गुप्त;
  2. अष्टछाप परिचय: प्रभुदयाल मीतल।]

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