हृदयराम: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
|||
(2 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
हृदयराम [[पंजाब]] के रहने वाले थे और [[कृष्णदास]] के पुत्र थे। इन्होंने [[संवत्]] 1680 में [[संस्कृत]] के 'हनुमन्नाटक' के आधार पर [[भाषा]] 'हनुमन्नाटक' लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है। इसमें अधिकतर कवित्त और सवैयों में बड़े अच्छे संवाद हैं। [[गोस्वामी तुलसीदास]] जी ने अपने समय की सारी प्रचलित काव्य पद्धतियों पर 'रामचरित' का गान किया। केवल रूपक या नाटक के ढंग पर उन्होंने कोई रचना नहीं की। गोस्वामी जी के समय से ही उनकी ख्याति के साथ साथ रामभक्ति की तरंगें भी देश के भिन्न भिन्न भागों में उठ चली थीं। अत: उस काल के भीतर ही नाटक के रूप में कई रचनाएँ हुईं जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हृदयराम का हनुमन्नाटक हुआ - | '''हृदयराम''' [[पंजाब]] के रहने वाले थे और [[कृष्णदास]] के पुत्र थे। इन्होंने [[संवत्]] 1680 में [[संस्कृत]] के 'हनुमन्नाटक' के आधार पर [[भाषा]] 'हनुमन्नाटक' लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है। इसमें अधिकतर कवित्त और सवैयों में बड़े अच्छे संवाद हैं। [[गोस्वामी तुलसीदास]] जी ने अपने समय की सारी प्रचलित काव्य पद्धतियों पर 'रामचरित' का गान किया। केवल रूपक या नाटक के ढंग पर उन्होंने कोई रचना नहीं की। गोस्वामी जी के समय से ही उनकी ख्याति के साथ साथ रामभक्ति की तरंगें भी देश के भिन्न भिन्न भागों में उठ चली थीं। अत: उस काल के भीतर ही नाटक के रूप में कई रचनाएँ हुईं जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हृदयराम का हनुमन्नाटक हुआ - | ||
<poem>देखन जौ पाऊँ तौ पठाऊँ जमलोक, | <poem>देखन जौ पाऊँ तौ पठाऊँ जमलोक, | ||
हाथ दूजो न लगाऊँ, वार करौं एक करको। | हाथ दूजो न लगाऊँ, वार करौं एक करको। | ||
मीजि मारौं उर ते उखारि भुजदंड, हाड़, | मीजि मारौं उर ते उखारि भुजदंड, हाड़, | ||
Line 29: | Line 29: | ||
एहो हनू! कह्यौ श्री रघुबीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही? | एहो हनू! कह्यौ श्री रघुबीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही? | ||
है प्रभु लंक कलंक बिना सुबसै तहँ रावन | है प्रभु लंक कलंक बिना सुबसै तहँ रावन बाग़ की छाँहीं | ||
जीवति है? कहिबेई को नाथ, सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं। | जीवति है? कहिबेई को नाथ, सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं। | ||
प्रान बसै पद पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं। | प्रान बसै पद पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं। | ||
</poem> | </poem> | ||
{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
Line 46: | Line 44: | ||
[[Category:कवि]] | [[Category:कवि]] | ||
[[Category:निर्गुण भक्ति]] | [[Category:निर्गुण भक्ति]] | ||
[[Category:चरित कोश]] | |||
[[Category:साहित्य कोश]] | [[Category:साहित्य कोश]] | ||
[[Category:भक्ति काल]] | [[Category:भक्ति काल]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
Latest revision as of 09:23, 11 September 2012
हृदयराम पंजाब के रहने वाले थे और कृष्णदास के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1680 में संस्कृत के 'हनुमन्नाटक' के आधार पर भाषा 'हनुमन्नाटक' लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है। इसमें अधिकतर कवित्त और सवैयों में बड़े अच्छे संवाद हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने समय की सारी प्रचलित काव्य पद्धतियों पर 'रामचरित' का गान किया। केवल रूपक या नाटक के ढंग पर उन्होंने कोई रचना नहीं की। गोस्वामी जी के समय से ही उनकी ख्याति के साथ साथ रामभक्ति की तरंगें भी देश के भिन्न भिन्न भागों में उठ चली थीं। अत: उस काल के भीतर ही नाटक के रूप में कई रचनाएँ हुईं जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हृदयराम का हनुमन्नाटक हुआ -
देखन जौ पाऊँ तौ पठाऊँ जमलोक,
हाथ दूजो न लगाऊँ, वार करौं एक करको।
मीजि मारौं उर ते उखारि भुजदंड, हाड़,
तोरि डारौं बर अवलोकि रघुबर को।
कासों राग द्विज को, रिसात भहरात राम,
अति थहरात गात लागत है धार को।
सीता को संताप मेटि प्रगट प्रताप कीनों,
को है वह आप चाप तोरयो जिन हर को।
जानकी को मुख न बिलोक्यों ताते कुंडल,
न जानत हौं, वीर पायँ छुवै रघुराई के।
हाथ जो निहारे नैन फूटियो हमारे,
ताते कंकन न देखे, बोल कह्यो सतभाइ के।
पाँयन के परिबे कौ जाते दास लछमन,
यातें पहिचानत है भूषन जे पायँ के।
बिछुआ है एई, अरु झाँझर हैं एई जुग,
नूपुर हैं, तेई राम जानत जराइ के।
सातों सिंधु, सातों लोक, सातों रिषि हैं ससोक,
सातों रबि घोरे, थोरे देखे न डरात मैं।
सातों दीप, सातों ईति काँप्यई करत और
सातों मत रात दिन प्रान हैं न गात मैं।
सातों चिरजीव बरराइ उठैं बार बार,
सातों सुर हाय हाय होत दिन रात मैं।
सातहूँ पताल काल सबद कराल, राम
भेदे सात ताल, चाल परी सात सात मैं
एहो हनू! कह्यौ श्री रघुबीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही?
है प्रभु लंक कलंक बिना सुबसै तहँ रावन बाग़ की छाँहीं
जीवति है? कहिबेई को नाथ, सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं।
प्रान बसै पद पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 4”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 109।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख